
पंद्रहवॉं बहुमत सम्मान चंदैनी गायक रामाधार साहू को

चिपचिपा रिसता खून
हमारी भाषा एवं संस्कृति का जो मान नहीं रखेगा उसे हम जूता मारेंगें
तमंचा रायपुरी
ओंकार ..... नत्था ..... पीपली लाईव .... और एड्स से मौत

ओंकार का घर मेरे सुपेला कार्यालय से बमुश्कल एक किलोमीटर दूर होगा, पर मुझे पांच मिनट के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है। ओंकार स्वयं एवं उसके दोस्त यार भी व्यस्त हैं मेल-मुलाकात चालू है इस कारण उसका मोबाईल नम्बर भी नहीं मिल पा रहा है। बात दरअसल यह है कि पीपली लाईव के पहले खस्ताहाल ओंकार का मोबाईल नम्बर रखने की हमने कभी आवश्यकता ही नहीं समझी, बल्कि उसे हमारा नम्बर अपने गंदे से फटे डायरी में सम्हालनी पड़ती थी और हम उसके नचइया गवईया किसी दोस्त को हांका देकर बुलवा लेते थे। .... खैर वक्त वक्त की बात है। हबीब साहब के दिनों में नया थियेटर की प्रस्तुतियों में भी ओंकार का ऐसा कोई धांसू रोल नहीं होता था कि प्रदर्शन देखने के बाद ग्रीन रूम में जाकर ओंकार को उठाकर गले से लगा लें ... हाथ तक मिलाने का खयाल नहीं आता था क्योंकि हबीब साहब के सभी हीरे नायाब होते थे। वह 'महराज पाय लगी ....' कहते हुए स्वयं हमसे मिलता था।
मेरी अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं : प्रेम साइमन का विरोध

विश्व रंगमंच दिवस पर नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-१ में आयोजित इस संपूर्ण कार्यक्रमों में हमारे ब्लागर साथी बालकृष्ण अय्यर जी भी उपस्थित थे एवं उन्होंनें भी रंगमंच पर अपने विचार रखे.
'विरोध' के अंतिम दृश्यों के पूर्व ही घर से श्रीमतीजी का फोन आया. कि पहले घर बाद में समाज और फिर देश की चिंता कीजिए. सुबह 9 से रात के 9 बजे की ड्यूटी के बीच भी 'नौटंकी' और साहित्य के लिए समय चुरा लेते हो पर घर के लिये समय नहीं होता. इस उलाहना मिश्रित विरोधात्मक फोन आने पर मैं 'गृह कारज नाना जंजाला' भुनभुनाते हुए बिना मित्रों से मिले झडीराम सर्वहारा बनकर दुर्ग अपने घर आ गया.
क्या इंटरनेट परोस रहा है नक्सल विचार धारा ??

सलवा जुडूम,डॉ.बिनायक सेन, अजय जीटी का मसला संपूर्ण विश्व में किस कदर छाया इसका उदाहरण बर्कले मे सामने आया. अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिष्ठित बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित एक सम्मेलन मे संपूर्ण विश्व के चिंतको के सामने छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन जी के विरूद्ध वहां के छात्रो ने ‘विश्वरंजन वापस जावो’ जैसे नारे लगाए और तख्तियां टांगनें पर उतारू हो गए. यह सब पूर्वनियोजित तरीके से नियमित रूप से इंटरनेट के माध्यम से छत्तीसगढ विरोधी खबरें विश्व के कोने कोने में फैलाये जाने से हुआ. बर्कले विश्वविद्यालय कैलीफोर्नियां में दक्षिण एशियाई संगठन के छात्र, प्रिस्टन, हार्वड, येल और अन्य जानेमाने विश्वविद्यालयों के छात्र व शिक्षक एक सुर में छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरोध में खडे हो गए. हालांकि छत्तीसगढ से उस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले डीजीपी एवं छत्तीसगढ के संपादक सुनील कुमार जी नें दमदारी से अपना पक्ष रखा था. विदित हो कि संपूर्ण विश्व में इस बडे आयोजन का हो – हल्ला हुआ था, विश्व के प्रबुद्ध समाज इससे वाकिफ हुआ था या इससे वाकिफ कराया गया था. विदेशों में खासकर इंडोनेशिया के महीदी, सीयरालियोन के कामजोर, सूडान के जंजावीद, रवांडा, चाड, आफ्रीका व विश्व के तमाम जन मिलिशियाओं के चिंतकों व शुभचिंतकों तक बस्तर की संवेदनाओं को बांटने एवं उनके समर्थकों/विचारकों को बस्तर के विषय में गंभीर होने एवं अपना समर्थक बनाने में कारगर माध्यम बनने के लिए इंटरनेट बेताब है, यह बर्कले में स्पष्ट हो गया. |
छत्तीसगढ के असुर: अगरिया
अरबी इतिहासकार हदरीषी नें भी लोहे के उत्पादन में हिन्दुओं की प्रवीणता को स्वीकारते हैं वे कहते हैं कि हिन्दुओं के बनाए गए टेढे फलों वाली तलवारों को किसी अन्य तलवारों से मात देना असंभव था. उन्होंनें आगे यह भी लिखा कि हिन्दुस्तान में अयस्कों से लौह निर्माण व हथियार निर्माण करने के निजी कार्यशालाओं में विश्व प्रसिद्ध तलवारें ढाली जाती थी. एक और इतिहासकार चार्डिन कहता है कि पर्शिया के लडाकों के लिए बनने वाले तलवारों को ढालने के लिए भारतीय लोहे को मिलाया जाता था क्योंकि भारतीय लोहा पर्शियन के लिए पवित्र था और उसे श्रद्धा से देखा जाता था जिसे इतिहासकार डूपरे नें भी स्वीकार किया था.
जनजातीय इतिहास के संबंध में रसेल व हीरालाल की दुर्लभ लेखनी इंटरनेट में उपलब्ध है जिसे बाक्स में दिये गये लिंक से पढा जा सकता है.
अगरिया पर मेरी कलम घसीटी के अंश
संजीव तिवारी
कौन है आदिवासियों के असल झंडाबरदार


एस्सार को बस्तर से लौह अयस्क को पाईप लाईन के द्वारा विशाखापट्टनम ले जाने के लिए लगभग साढ़े चार लाख क्यूसेक पानी की आवश्यकता पड़ती है। यह पानी बस्तर के कोंख से निकाल कर समुद्र में व्यर्थ बहा दी जाती है, अयस्क के साथ ही बस्तर का पानी भी लूट लिया जाता है। यदि इस पाईप लाईन के बदले ट्रकों से अयस्क की ढुलाई होती तो ये पानी बचता और स्थानीय लोगों को कुछ अतिरिक्त रोजगार मिल पाता। किन्तु कम्पनी द्वारा परिवहन की लागत से बचने वाले बड़े मुनाफे में नक्सलियों को हिस्सेदारी दे दी जाती है और स्थानीय लोग ठगे रह जा रहे हैं। स्थानीय लोगों को रोजगार की मांग यहां के राजनैतिक नेता लोग करते रहे हैं किन्तु खानापूर्ती के अतिरिक्त स्थानीय लोगों को रोजगार कभी भी दी नहीं गई है सिर्फ मूर्ख बनाया गया है।


संजीव तिवारी
लिंगा के संबंध में जनज्वार में हिमाशु कुमार की रिपोर्ट
जनतंत्र में लिंगा
मोहल्ला लाईव में लिंगा
आईबीएन में लिंगा
तहलका में सोनी सोढ़ी और लिंगा
एक यायावर : हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन ‘‘अज्ञेय’’

इसी सम्बंध में मनोहर श्याम जोषी कहते हैं “वे भला कब किसको अवसर देते हैं की कोइ उंहें कुछ भी जान सके, किसको वे अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं, जो भी उनके बारे में जानने का दावा करता है, ब्यर्थ करता है।“ कुछ कही कुछ सुनी व कुछ पढी गई बातों के आधार पर उंहें लोग याद करते हैं। उनके जीवन के सम्बंध में न सहीं उनके सहित्य के सम्बंध मे लोग उन्हें जानते हैं व उनकी लेखन क्षमता का लोहा मानते हैं। एक जमाने में “विशाल भारत” पत्रिका में छपने वाली कहानियों के नायक “सत्या” का जन्मदाता अज्ञेय जनमानस के लिये एक विचित्र लेखक हुआ करता था। कहां प्रेमचंद के कहनियों की भाषा भाव की सादगी और कहां यह अज्ञेय की भाषा जिसके अनेकों शब्दों को समझना तो दूर सहीं ढंग से उच्चारण कर पाना भी मुश्किल होता था, तिस पर एक अदभुत नायक “सत्य” एसा आदमी प्रेमचंद के नायकों सा जनमानस नहीं होता था। अत: कहनी के उद्देश्यों को समझने में लोगों को कई दिन लग लग जाते थे। जब वे समझते थे तो विस्मित रह जाते थे सत्य पर और अज्ञेय पर।
अपनी इसी शैली एवं क्रांतिकारी व भ्रमणशील जीवन का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करते हुये दिल्ली जेल, लाहोर, मेरठ, आगरा, डल्हौजी जैसे जगहों पर आपने अपनी उतकृष्ठ कृतियों का सृजन किया। अज्ञेय जी को भारत की संस्कृति एवं इतिहास के अतिरिक्त अन्य देशों की संस्कृति व इतिहास व तात्कालिक परिस्थितियों का विशद ज्ञान था। इसकी स्पट झलक उनकी कहानी व यात्रा वृतांतों में दृटिगत होता है, १९३१ में दिल्ली जेल में लिखी गयी उनकी कहानी “हारिति” अपने आप में संम्पूर्ण रूस को चित्रित करने वाली कहानी है, इसके नायक क्वानयिन व हारिति लम्बे समय तक याद किये जायेंगे, कहानी में शब्दों का प्रयोग इस ढंग से किया गया है कि आंखों के सामने सारा घटनाक्रम प्रस्तुत हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। अज्ञेय जी स्वयं क्रांतिकारी रहे हैं इस कारण वे क्रांति का चित्रण बहुत सटीक ढंग से करते थे। रूसी क्रांति की पृष्टभूमि पर लिखी गयी एक और कहानी “मिलन” में दमित्र्री व मास्टर निकोलाई का मिलन और रूस की उस समय की परिस्थिति का स्पष्ट चित्रण इस बात का ऐहसास देता है कि वे रूस के चप्पे चप्पे से वाकिफ थे। इसके अतिरिक्त “विवेक से बढकर” ग्रीक पर तुर्की आक्रमण एवं “स्मर्ना नगर का भीषण आग” “क्रांति का महानाद” “अंगोरा के पथ पर” जैसे कहानी में किया गया है, इन कहानियों को बार बार पढनें को जी चाहता है।
कहानी उपन्यास एवं कविता के साथ साथ संपादन के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेख्नीय है, हिन्दी पत्रकारिता को उन्होंने नई दिशा “दिनमान” “नवभारत टाईम्स” और “सैनिक” आदि के सहारे जो दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता। एक संपादक के रूप में समाचार पत्र और जनता के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन में वे सर्वप्रथम रहे। इस संबंध में एक दिलचस्प वाकया प्रस्तुत है, आगरा के एक दैनिक समाचार पत्र के अज्ञेय जी संपादक थे और इसके प्रबंध संपादक कृष्ण दत्त पालीवाल थे। वे उस समय चुनाव लड रहे थे और चाहते थे कि सैनिक के संपादकीय में उनकी प्रसंशा नगम मिर्च लगाकर प्रकाशित की जाय। अज्ञेय जी को यह उचित नहीं लगा और इस प्रस्ताव को उन्होंने बडे सरल शब्दों में ठुकराकर जनता एवं पत्रकारिता धर्म के प्रति अपना फर्ज निभाया।
ऱचनात्मक लेखन व संपादन के क्षेत्र में “प्रतीक” “विशाल भारत” व “नया प्रतीक” का संपादन उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा का महत्वपूर्ण योगदान है। अज्ञेय जी को अपने जीवन काल में ही कई छोटे बडे पुरूस्कार भी मिले और वे अलंकरणें से विभूषित भी हुए। इसी क्रम में भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार १४ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार “कितनी नावों में कितनी बार” के लिये प्राप्त हुआ। इसके पूर्व उनका नाम दो बार नोबेल पुरस्कार चयन समिति के बीच भी प्रस्तुत हुआ किन्तु यह सम्मान उन्हें नहीं मिल पाया।
१४ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह कलकत्ता के कला मंदिर में बुधवार २८ दिसम्बर १९७९ को आयोजित हुआ था। उक्त अवसर पर पुरस्कृत काव्य कृति “कितनी नावों में कितनी बार” के साथ साथ ही उनकी एक अन्य कविता “असाध्य वीणा” को मंच पर नृत्य नाटिका रूपक में प्रस्तुत किया गया। यह अकेली कविता “असाध्य वीणा” अज्ञेय जी के कवि रूप के विविध आयामों को समेटे हुए उनकी रचना शिल्प और शैली का प्रतिनिध्त्वि करती है। पुरस्कार प्राप्ति के बाद मंच से अपने धीर वीर गंभीर वाणी में उन्होंने कहा था 'मेरे पास वैसी बडी या गहरी कोई बात कहने को नहीं है .. … किन्तु वे बडी गहरी व गूढ बात कहते हुए उसी प्रवाह में कहते चले गये .. साहित्य एक अत्यंत ऋजु कर्म है उसकी वह ऋजुता ऐक जीवन व्यापी साधना से मिलती है । नव लेखन एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए नव प्रयोग के संम्बंध में उन्होंने कहा था, नये सुखवाद की जो हवा चल रही है उसमें मूल्यों की सारी चर्चा को अभिजात्य का मनोविलाश कह कर उडा दिया जाता है पर मैं ऐसा नहीं मानता और मेरा सारा जीवनानुभव इस धारणा का खण्डन करता है। मेरा विश्वास है कि इस अनुभव में मैं अकेला भी नहीं हूं।
अज्ञेय के समकालीन प्राय: सभी साहित्यकारों से उनके मधुर संबंध थे किन्तु यशपाल एवं जैनेन्द्र जी से उनका गहरा व पारिवारिक संबंध था। यशपाल के साथ वे सदा जेल में एवं बारूदों के बीच में रहे। इन दोनों के बीच में रहे एक क्रांतिकारी ने कहा था, कि क्रांतिकारी पार्टी में दो लेख्क थे, एक जनाब पिक्रिक एसिड धोते थे और दूसरे साहब श्रंगार प्रसाधन की सामाग्री बनाते थे, वे थे क्रमश: यशपाल व अज्ञेय। जैनेन्द्र जी से भी अज्ञेय जी का संम्बन्ध उल्लखनीय था। लेखक अज्ञेय ही थे जिनको लेकर जैनेन्द्र जी बहुत सी बातें करते थे, अज्ञेय को लेकर जैनेन्द्र जी हमेशा भावुक हो उठते थे, शायद इसका एक कारण तो यही था कि हिन्दी में अज्ञेय जी को परिचित कराने का दायित्व सर्वप्रथम उन्होनें ही वहन किया था।
अज्ञेय जी लाहौर के क्रांतिकारियों में मुख्य थे, उन्हे सजा हुयी तो दिल्ली जेल में रखा गया। उस समय उन्होंने अपनी कहानियां अपने वास्तविक नाम से जैनेन्द्र जी को भेजी, और जैनेन्द्र जी नें रचनाओं पर उनका असली नाम न देकर अज्ञेय नाम दिया, और इसी नाम से रचनायें प्रकाश्नार्थ पत्र पत्रिकाओं में भेजी। आगे जाकर वात्सायन का नाम अज्ञेय ही हिन्दी संसार में प्रतिष्ठित हुआ। अज्ञेय जी लम्बे समय तक जैनेन्द्र जी के साथ जुडे रहे उनके घर में भी रहे शंतिनिकेतन में भी रहे। जैनेन्द्र जी के उपन्यास “त्यागपत्र” का “द रेजिगनेशन” नाम से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। जैनेन्द्र जी ये मानते थे कि अज्ञेय अहं से कभी उबर नहीं पाये और ज्ञेय होने की सहजता उनसे हमेशा दूर रही किन्तु अज्ञेय जी के मन में अंत तक जैनेन्द्र जी के प्रति असीम श्रद्धा विद्यमान रही।
बहुयामी बहुरंगी प्रतिभा संपन्न और सामाजिक मर्यादाओं के संदर्भ में स्वच्छंद जीवन जीने वाले, अज्ञेय जी का लम्बे समय से न केवल उनकी रचनायें, अपितु उनका व्यक्तित्व भी, अपनी तरह का आर्कषण बनाये हुए था। इनके व्यक्तिगत जीवन में संतोष साहनी, कपिला व इला का हस्तक्षेप सर्वविदित है। कपिला दूर रह के भी अपने नाम के पीछे वात्सायन लिखती रहीं और अज्ञेय जी विवाह न करके भी इला के साथ रहे। इन बातों के बीच भी अज्ञेय जी नें अपनी रचना धर्मिता व अपनी विशिष्ट शैली को बरकरार रखा। अपने बारे में ही शायद उन्होंने “अमरवल्लरी” नामक कहानी में लिखा “प्रेम एक आईने की तरह स्वच्छ रहता है, प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना ही प्रतिबिंब पाता है और एक बार जब वह खंण्डित हो जाता है तब वह जुडता नहीं।” अज्ञेय जी का जीवन अत्यंत संर्घषरत विवादास्पद और कदम कदम पर चुनौतियों से भरा हुआ किन्तु सब कुछ झेल कर आगे बढने वाला रहा है। उन्होंनें हिन्दी कविता नई कविता कहानी उपन्यास आलोचना यात्रा संसमरण तथा अन्यान्य दिशाओं में उन्होनें विपुल कार्य किया है तथा उनके चिन्तन की गहराई से हिन्दी साहित्य को जो गरिमा और गौरवपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई है उनका महत्व कभी कम होने वाला नही है। मैं ईनकी ही कविता “युद़ध विराम” से उन्हे श्रदधा सुमन अर्पित करता हू :-
संजीव तिवारी
राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला : डॉ. पदुमलाल पन्नालाल बख्शी

तब ‘सरस्वती’ हिन्दी की एक मात्र ऐसी पत्रिका थी जो हिन्दी साहित्य की आमुख पत्रिका थी । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रारंभ इस पत्रिका के संबंध में सभी विज्ञ पाठक जानते हैं । सन् 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की संपादन क्षमता को नया आयाम देते हुए इन्हें ‘सरस्वती’ का सहा. संपादक नियुक्त किया । फिर 1921 में वे ‘सरस्वती’ के प्रधान संपादक बने यही वो समय था जब विषम परिस्थितियों में भी उन्होंनें हिन्दी के स्तरीय साहित्य को संकलित कर ‘सरस्वती’ का प्रकाशन प्रारंभ रखा ।
छत्तीसगढ के जिला राजनांदगांव के एक छोटे से कस्बे में 27 मई 1894 में जन्में पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की प्राथमिक शिक्षा म.प्र. के प्रथम मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल जैसे मनीषी गुरूओं के सानिध्य में विक्टोरिया हाई स्कूल, खैरागढ में हुई थी ।
प्रारंभ से ही प्रखर पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की प्रतिभा को खैरागढ के ही इतिहासकार लाल प्रद्युम्न सिंह जी ने समझा एवं बख्शी जी को साहित्य श्रृजन के लिए प्रोत्साहित किया और यहीं से साहित्य की अविरल धारा बह निकली ।
प्रतिभावान बख्शी जी ने बनारस हिन्दु कॉलेज से बी.ए. किया और एल.एल.बी. करने लगे किन्तु वे साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं समयाभाव के कारण एल.एल.बी. पूरा नहीं कर पाये, इस बीच में उनका विवाह मंडला निवासी एक सुपरिटेंडेंट की पुत्री से हो चुका था एवं पारिवारिक दायित्व बख्शी जी के साथ था । अत: बख्शी जी वापस छत्तीसगढ आकर सन् 1917 में राजनांदगांव के स्कूल में संस्कृत के शिक्षक नियुक्त हो गए ।
उनकी ‘प्लैट’ नामक अंग्रेजी कहानी की छाया अनुदित कहानी ‘तारिणी’ के जबलपुर के ‘हितकारिणी’ पत्रिका में प्रकाशन से तत्कालीन हिन्दी जगत इनकी लेखन क्षमता से अभिभूत हो गया था । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बख्शी जी की रचनायें प्रकाशित होने लगी थी जिनमें 1913 में ‘सरस्वती’ में ‘सोना निकालने वाली चीटियां’ एवं 1917 में ‘सरस्वती’ में ही इनकी मौलिक कहानी ‘झलमला’ ने इनके हिन्दी साहित्य जगत में दमदार उपस्थिति को सिद्ध कर दिया ।
बख्शी जी खैरागढ के विक्टोरिया हाई स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक भी रहे एवं इन्होंने खैरागढ की राजकुमारी उषा देवी और शारदा देवी को शिक्षा में पारंगत भी किया ।
साधारण जीवन जीने वाले स्वभावत: एकाकी एवं अल्पभाषी बख्शीजी का तकिया कलाम था ‘राम बाबू’ , स्वाभिमान इनमें कूट कूट कर भरा था । इनके संबंध में डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव अपने एक लेख में कहते हैं -
कभी किसी समारोह के लिए उनसे एक मानपत्र लिखने के लिए कहा गया । जाने क्या बात हुई कि तत्कालीन नायब साहब नें आकर उनसे कहा कि उस मानपत्र को संशोधन के लिए रायपुर किसी के पास भेजा जायेगा । बख्शी जी नें उस मानपत्र को तुरंत फाड दिया – मेरा लिखा हुआ कोई दूसरा संशोधित करेगा, एसी से लिखा लो । विजयलाल जी बतलाते हैं कि उन्हें इतने गुस्से में कभी नहीं देखा था । मुझे लगता है कि उनका गुस्सा उचित ही था । ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में जिसने हिन्दी के कितने ही लेखकों की भाषा का परिष्कार किया, उस व्यक्ति की ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभावित ही थी । यह तो एक लेखक के स्वाभिमान पर प्रश्न था ।
पिछले कुछ दिनों से उन्हें व उनके संबंध में पढते हुए मुझे लगा बख्शीजी मुझे कह रहे हों 'राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला !'
आज उनकी पुण्यतिथि है बख्शी जी को समस्त हिन्दी जगत 'सुरता' कर रहा है ।
संजीव तिवारी
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बख्शी जी के संबंध में उपलव्ध पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों मित्रों से फोन के द्वारा जब हमने यह लिख डाला तब इंटरनेट में इस संबंध में सर्च किया तो ढेरों लिंक मिले, जहां इनकी कृतियों का भी उल्लेख है । आप भी देखें :-
स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित छत्तीसगढ़ का प्रथम आँचलिक उपन्यास 'धान के देश में' के लिये श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी नें भूमिका भी लिखा ।
कविता कोश में डॉ. पदुमलाल पन्नालाल बख्शी के जीवन परिचय में विस्तार से लिखा है । उनकी कविता क्रमश: मातृ मूर्ति , एक घनाक्षरी और दो चार भी कविता कोश में उपलब्ध हैं ।
कथा यात्रा में आदरणीय रमेश नैयर जी कहते हैं
छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के कथाकारों को हिंदी साहित्य जगत् में विशेष प्रतिनिधित्व श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा किए गए ‘सरस्वती’ के संपादन काल में मिला। राजनांदगाँव के श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्वयं भी अच्छे कहानीकार थे। उन्होंने सन् 1911 से कहानियाँ लिखना शुरू किया था। बख्शीजी को प्रेमचंद युग का महत्त्वपूर्ण कथाकार माना गया है। बातचीत के अंदाज में कहानी कह जाने की विशिष्ट शैली बख्शीजी ने विकसित की थी। बख्शीजी की मान्यता थी कि छत्तीसगढ़ की समवन्यवादी और परोपकारी संस्कृति की छाप यहाँ के कथाकारों के लेखन पर गहराई से पड़ी। छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि कथाकारों के एक संकलन का संपादन करते हुए बख्शीजी ने लिखा था, ‘छत्तीसगढ़ की अपनी संस्कृति है जो उसके जनजीवन में लक्षित होती है। छत्तीसगढ़ियों के जीवन में विश्वास की दृढ़ता, स्नेह की विशुद्धि सहिष्णुता और निश्छल व्यवहार की महत्ता है। ये स्वयं धोखा खाकर भी दूसरों को धोखा नहीं देते हैं। गंगाजल, महापरसाद और तुलसीदास के द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों में भी जो एक बंधुत्व स्थापित होता है, उसमें स्थायित्व रहता है। जाति-भेद रहने पर भी सभी लोगों में एक पारिवारिक भावना उत्पन्न हो जाती है।’
यहां झलमला भी देखें
मनु शर्मा अपनी कृति उस पार का सूरज में कहते हैं
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी किसी घटना, किसी एक रोचक प्रसंग या किसी एक बात से निबंधों की शुरुआत करते हैं। नाटकीयता और कथात्मकता इनके निबंधों को रोचक बनाती है। सहजता इनकी एक अन्य विशेषता है। सियाराम शरण गुप्त ने भी अपने अपने निबंधों में छोटी-छोटी बातों को कहीं संस्मरण और कहीं व्यंग्य के माध्यम से कहा है। यह व्यक्ति-चेतना है। हिंदी में व्यक्ति-व्यंजक निबंध लिखनेवालों की ये दो परंपराएँ हैं। इन्हें व्यक्ति-व्यंजक और ललित कहकर अलग करना उचित नहीं है। ये दोनों एक ही हैं। फिर भी अंग्रेजी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों से हिंदी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की पहचान अलग है। अंग्रेजी के निबंधकारों की तरह अपने घर-परिवार, इष्ट-मित्र, पसंद-नापसंद का विवरण हिंदी के निबंधकार नहीं देते हैं। वे चुटकी लेते हैं, व्यंग्य करते हैं, किसी विश्वस्त और निकट व्यक्ति की तरह बात करते हैं।
(इंटरनेट के उद्धरण भारतीय साहित्य संग्रह एवं अन्य साईटों से लिए गये हैं)
संजीव तिवारी
छत्तीसगढी ‘नाचा’ के जनक : दाउ मंदराजी

इनके पिता स्व.रामाधीन दाउजी को दुलारसिंह की ये रूचि बिल्कुल पसंद नहीं थी इसलिए हमेंशा अपने पिताजी की प्रतारणा का सामना भी करना पडता था । चूंकि इनके पिताजी को इनकी संगतीय रूचि पसंद नहीं थी अतएव इनके पिताजी नें इनके रूचियों में परिर्वतन होने की आशा से मात्र 24 वर्ष की आयु में ही दुलारसिंह दाउ को वैवाहिक सूत्र में बांध दिया किन्तु पिताजी का यह प्रयास पूरी तरह निष्फल रहा । आखिर बालक दुलारसिंह अपनी कला के प्रति ही समर्पित रहे । दाउ मंदराजी को छत्तीसगढी नाचा पार्टी का जनक कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
लोककला में उनके योगदान को देखते हुए छत्तीसगढ शासन द्वारा प्रतिवर्ष राज्य में दाउ मंदराजी सम्मान दिया जाता है जो लोककला के क्षेत्र में राज्य का सवोच्च सम्मान है । छत्तीसगढ में सन् 1927-28 तक कोई भी संगठित नाचा पार्टी नहीं थी । कलाकार तो गांवों में थे किन्तु संगठित नहीं थे । आवश्यकता पडने पर संपर्क कर बुलाने पर कलाकार कार्यक्रम के लिए जुट जाते थे और कार्यक्रम के बाद अलग अलग हो जाते थे । आवागमन के साधन कम था, नाचा पार्टियां तब तक संगठित नहीं थी । ऐसे समय में दाउ मंदराजी नें 1927-28 में नाचा पार्टी बनाई, कलाकारों को इकट्ठा किया । प्रदेश के पहले संगठित रवेली नाचा पार्टी के कलाकरों में थे परी नर्तक के रूप में गुंडरदेही खलारी निवासी नारद निर्मलकर, गम्मतिहा के रूप में लोहारा भर्रीटोला वाले सुकालू ठाकुर, खेरथा अछोली निवासी नोहरदास, कन्हारपुरी राजनांदगांव के राम गुलाम निर्मलकर, तबलची के रूप में एवं चिकरहा के रूप में स्वयं दाउ मंदराजी ।
दाउ मंदराजी नें गम्मत के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक बुराईयों को समाज के सामने उजागर किया । जैसे मेहतरिन व पोंगवा पंडित के गम्मत में छुआ-छूत को दूर करने का प्रयास किया गया । ईरानी गम्मत हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास था । बुढवा एवं बाल विवाह ‘मोर नाव दमांद गांव के नाम ससुरार’ गम्मत में वृद्ध एवं बाल-विवाह में रोक की प्रेरणा थी । मरारिन गम्मत में देवर-भाभी के पवित्र रिश्ते को मॉं और बेटे के रूप में जनता के सामने रखा गया था दाउजी के गम्मतों में जिन्दगी की कहानी का प्रतिबिम्ब नजर आता था ।
आजकल के साजों की परी फिल्मी गीत गाती है और गम्मत की परी ठेठ लोकगीत गाती है ऐसा क्यों होता है ? के प्रश्न पर दाउजी कहते थे - समय बदलता है तो उसका अच्छा और बुरा दोनों प्रभाव कलाओं पर भी पडता है, लेकिन मैनें लोकजीवन पर आधारित रवेली नाच पार्टी को प्रारंभ से सन् 1950 तक फिल्मी भेंडेपन से अछूता रखा । पार्टी में महिला नर्तक परी, हमेशा ब्रम्हानंद, महाकवि बिन्दु, तुलसीदास, कबीरदास एवं तत्कालीन कवियों के अच्छे गीत और भजन प्रस्तुत करते रहे हैं । सन् 1930 में चिकारा के स्थान पर हारमोनियम और मशाल के स्थान पर गैसबत्ती से शुरूआत मैनें की ।
सार अर्थों में दाउजी नें छत्तीसगढी नाचा को नया आयाम दिया और कलाकरों को संगठित किया । दाउजी के इस परम्परा को तदनंतर दाउ रामचंद्र देशमुख, दाउ महासिंग चंद्राकर से लेकर लक्ष्मण चंद्राकर व दीपक चंद्राकर तक बरकरार रखे हुए हैं जिसके कारण ही हमारी सांस्कृतिक धरोहर अक्षुण बनी हुई है ।
‘सापेक्ष’ के संपादक डॉ. महावीर अग्रवाल के ग्रंथ छत्तीसगढी लोक नाट्य : नाचा के अंशों का रूपांतर
छत्तीसगढ गौरव : रवि रतलामी

हिन्दी या स्थानीय भाषा में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम व साफ्टवेयर के विकास से व्यक्ति के मूल में अंग्रेजी के प्रति सर्वमान्य झिझक दूर हो जायेगी क्योंकि हिन्दी या स्थानीय भाषा में संचालित होने व हेल्प मीनू भी उसी भाषा में होने के कारण सामान्य पढा लिखा व्यक्ति भी कम्प्यूटर प्रयोग कर पायेगा । यहां यह बात अपने जगह पर सदैव अनुत्तरित रहेगा कि भारत जैसे गरीब देश में कम्प्यूटर व इंटरनेट में हिन्दी या स्थानीय भाषा के प्रयोग को यदि प्रोत्साहन दिया जाए तो क्या मजदूरों को काम मिलेगा ? भूखों को रोटी मिलेगी ? पर इतना तो अवश्य है कि जैसे टीवी, एटीएम व मोबाईल और मोबाईल नेट पर मीडिया का प्रयोग इस गरीबी के बाद भी जिस तरह से बढा है और लोगों के द्वारा अब इसे विलासिता के स्थान पर आवश्यकता की श्रेणी में रखा जा रहा है । इसे देखते हुए इन सबके आधार में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम व साफ्टवेयरों का हिन्दीकरण व स्थानीय भाषाकरण की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता ।
कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग विगत कई वर्षों से हो रहा है, कहीं कृति देव, चाणक्य तो कहीं श्री लिपि या अन्य फोन्ट-साफ्टवेयर हिन्दी को प्रस्तुत करने के साधन हैं । इन सभी साधनों के प्रयोग करने के बाद ही आपके कम्प्यूटर में हिन्दी के दर्शन हो पाते हैं । इन साफ्टवेयरों को आपके कम्प्यूटर में डाउनलोड करने, संस्थापित करने एवं कहीं कहीं कुजी उपयोग करने या अन्य उबाउ तकनिकी के प्रयोग के झंझट सामने आते हैं और प्रयोक्ता हिन्दी से दूर होता चला जाता है किन्तु यूनिकोड आधारित हिन्दी नें इस मिथक को तोडा है । आज विन्डोज एक्सपी संस्थापित कम्प्यूटर यूनिकोड यानी संपूर्ण विश्व में कम्प्यूटर व इंटरनेट में मानक फोंट ‘मंगल’ हिन्दी को प्रदर्शित करने के सहज व सरल रूप में उभरा है जिसे अन्य आपरेटिंग सिस्टमों नें भी स्वीकारा है । जिसके बाद ही यूनिकोडित रूप से लिखे गये हिन्दी को वेब साईटों या कम्प्यूटर में देखने के लिए किसी भी साफ्टवेयर को संस्थापित या डाउनलोड करने की आवश्यकता अब शेष नहीं रही, मानक हिन्दी फोंट विश्व में कहीं भी अपने वास्तविक रूप में प्रदर्शित होने लगा है ।
‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लाग’ के अतिरिक्त रवि रतलामी ‘रचनाकार’ और ‘देसीटून्ज’ नाम के साईट में भी हिन्दी के अपने कौशल को प्रस्तुत कर रहे हैं । इन दोनों साईटों के संबंध में कहा जाता है कि ‘रचनाकार’ जहाँ पूरी तरह से गंभीर साहित्यिक ब्लॉग है, वहीं ‘देसीटून्ज’ में व्यंग्यात्मक शैली के कार्टून्स और केरीकेचर्स से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएँगे ।‘ हिन्दी साहित्य में रूचि रखने के कारण इन्होंने हिन्दी कविताऍं, गजल व व्यंग लेखन को भी आजमाया है जो अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं । रवि जी कई हिन्दी व अंग्रेजी के तकनीकि पत्रिकाओं में अब भी नियमित स्तभ लेखन करते हैं ।
रवि रतलामी अपने जन्म भूमि छत्तीसगढ की सेवा में भी पिछले कई वर्षों से लगे हुए थे । कम्प्यूटर में हिन्दी अनुप्रयोगों में गहन शोध करते हुए रवि नें छत्तीसगढी भाषा के आपरेटिंग सिस्टम पर भी कार्य किया एवं अंतत: इसे सफलतापूर्वक पूर्ण कर लिया । सरकार एवं जनता के द्वारा छत्तीसगढ में सूचना प्रौद्यौगिकी के बेहतर व सफलतम प्रयोग को देखते हुए यह आपरेटिंग सिस्टम हम छत्तीसगढियों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है इससे कम्प्यूटर का प्रयोग सरल हो जायेगा । धान खरीदी, ग्रामपंचायतों में भविष्य में लगने वाले कियोक्स टचस्क्रीन-कम्प्यूटर, च्वाईस सेंटरों आदि में अपनी भाषा में संचालित कम्प्यूटर को चलना व समझना आसान हो पायेगा ।
(ब्लाग जगत में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर )
श्री रवि रतलामी जी को सृजन-सम्मान के द्वारा एक प्रतिष्ठापूर्ण समारोह में 'छत्तीसगढ गौरव' सम्मान दिनांक 17.02.2008 को प्रदान किया जायेगा । रवि भाई को अग्रिम शुभकामनायें ।
श्री रवि रतलामी जी 17.02.2008 को सुबह 9 से संध्या 7 तक रायपुर में रहेंगें , निर्धारित कार्यक्रमों के बीच संभावना है कि हम दोपहर 11 से 2 तक उनके साथ रह कर हिन्दी चिट्ठाकारी पर पारिवारिक चर्चा करें एवं इस सम्मान समारोह के सहभागी बनें । रईपुर वाले हमर बिलागर भाई मन घलो संग म रहितेव त अडबड मजा आतीस, त आवत हव ना भाई मन .....
शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य के महान शिल्पी डॉ. पालेश्वर शर्मा
छत्तीसगढी गद्य का सौंदर्य निर्दिष्ट कराने वाले तथा लोक कथात्मक कहानियों से छत्तीसगढी कला साहित्य का समारंभ करने वाले ये ऐसे कथाकार हैं जिन्हें लोककथ्थकड और शिष्ट कथाकार का संधस्थल कहा जा सकता है । प्रयास प्रकाशन ने तैंतीस वर्ष पूर्ण उनकी कहानियों को भोजली त्रैमासिक छत्तीसगढी पत्रिका में प्रकाशित करके और फिर सुसक झन कुररी । सुरता ले । में संग्रहित करके एतिहासिक कार्य किया । बाद में इनकी अन्य कहानियां तिरिया जनम झनि देय – शीर्षक से छिपी जिसे एम.ए. अंतिम हिन्दी के पाठ्यक्रम में समावेशित किया गया । इसका द्वितीय संस्करण अभी हाल में बिलासा कला मंच ने प्रकाशित किया है । लोक कथात्मक आंचलिक कहानियां छत्तीसगढ के इतिहास और संस्कृति की धरोहर है । इन कहानियों की भाषा शैली अत्यंत प्रभावोत्पादक और मानक छत्तीसगढी गद्य के उदाहरण है । डॉ. शर्मा की अन्य लोकप्रिय कृति गुडी के गोठ- बात नवभारत में प्रकाशित स्तभं का चुनिंदा संकलन है । छत्तीसगढी गद्य की आदर्श संस्थापना की दृष्टि से तीनों कृतियां अत्यंत म हत्वपूर्ण है ।
डॉ. शर्मा ने सन् 1973 में छत्तीसगढ के कृषक जीवन की शब्दावली पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की । इसके मुख और पूंछ को जहां छत्तीसगढ का इतिहास एवं परम्परा के रूप में प्रस्तुत किया गया वही मुख्यांश को छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश के रूप में विलासा कला मंच ने छापा । इसके पूर्व के डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा के शब्दकोश में रायपुरी शब्द अधिक थे । डॉ. शर्मा ने उसे बिलासपुरी के साथ समन्वित कर वृहद विस्तृत किया । इस तरह प्रमाणिक शब्द शिल्पी, कोशकार,इतिहास तथा संस्कृति के पुरोधा के रूप में डॉ. शर्मा प्रतिष्ठित हुए । रतनपुर और मल्हार छत्तीसगढ के पुरातत्व के
संग्रहालय हैं । इन पर दो पुस्तकें आपने लिखी । मल्हार की डिडिनदाई पर पहली बार प्रमाणिक प्रकाश आपने डाला । इसी तरह छत्तीसगढ के व्रत, त्यौहार पर अरपा पाकेट बुक्स की प्रस्तुति भी उल्लेखनीय कही जा सकती है । छत्तीसगढी लोकसाहित्य पर तो इनके अनेक लेख प्रकाशित व वार्ताओं के रूप में प्रसारित होकर प्रशांशित हुए हैं । इस तरह डॉ. शर्मा छत्तीसगढ के जीवंत इन साइक्लोपीडिया हैं ।
समय-समय पर इन्हें प्रादेशिक व क्षेत्रीय पुरस्कारों व सम्मानों से अलंकृत किया गया है । इन्हें प्रदेश का सर्वोच्च साहित्य व संस्कृति सम्मान भी दिया गया है । डॉ. शर्मा तो कबीर की तरह अलमस्त और नागर्जुन की तरह फक्कड साहित्यकार हैं । इन्हें इन सबसे कोई खास सरोकार भी नहीं ।
डॉ. शर्मा लेखन व व्याख्यान दोनों में पटु है । हिन्दी में पहले भी प्राध्यापक, निबंधाकर व आलोचक के रूप में आपकी पहचान बना चुके थे । उनका प्रबंध पटल निबंध संग्रह (1969) प्रयास प्रकाशन से प्रकाशित व स्नातक स्तर पर विद्यार्थियों के लिए पठनीय प्रकाशन प्रमाणित हो चुका है । ऐसे शब्दों के जादुगर और छत्तीसगढ के माटी पुत्र की अनवरत सेवा-साधना का लाभ प्रदेश को मिल रहा है, यह हम सबके लिए गर्व और गौरव का विषय है ।
आलेख - डॉ. विनय कुमार पाठक
परिचय : डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
माता : श्रीमती सेवती शर्मा
पिता : पंडित श्यामलाल शर्मा
जन्मतिथि एवं ग्राम: 1 मई 1928, जांजगीर
शिक्षा: पी.एच.डी. भाषा- विज्ञान (छत्तीसगढ के कृषक जीवन की शब्दावली)
वर्तमान पता: 35 ए, विद्यानगर, बिलासपुर (छत्तीसगढ)
व्यवसाय: सी.एम.डी. कालेज में 32 वर्षो तक अध्यापन
अन्य अनुभाव: एन.सी.सी. मेजर, छात्र-संघ प्रभारी प्राध्यापक बीस वर्षो तक, वि.वि. परीक्षाऍं अधीक्षक (25 वर्षो तक) प्रमुख निरिक्षक वि.वि. परीक्षाऍं, छात्र जीवन में धावक, खेलकूद कबड्डी का खिलाडी रहा, कहानी प्रतियोगिताओं में अनेक पुरस्कार प्राप्त ।
प्रकाशन/प्रसारण: आकाशवाणी से डेढ सौ से अधिक रचनाऍं प्रसारित, समाचार पत्रों में शताधिक रचनाऍं प्रकाशित एवं छत्तीसगढ परिदर्शन एवं गुडी के गोठ – धारावाहिक नवभारत में निरंतर 125 सप्ताह तक प्रकाशित ।
शोध निर्देशन : दस छात्रों को पी.एच.डी. उपाधि के लिए सफल निर्देशन ।
प्रकाशित ग्रंथ : 1. प्रबंध पाटल (निजी निबंध संकलन)
प्रथम संकलन (1955) ,द्वितीय संस्करण (1971)
2. सुसक झन कुररी सुरता ले, छत्तसीगढी कहानियों का निजी संकलन (1972)
3. तिरिया जनम झनि देय (अपनी कहानियों का संग्रह प्रथम संस्करण) एम.ए. हिन्दी कक्षा में पाठ्य पुस्तक (1990) पाठ्य पुस्तक दो संस्करण द्वितीय संस्करण (2002)
4. छत्तीसगढ का इतिहास एवं परंपरा प्रथम संस्करण । (म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित)
5. नमस्तेअस्तु महामाये (1997)
6. गुडी के गोठ (पहला भाग)
7. डिडिनेश्वरी पार्वती महिमा (2000)
8. छत्तीसगढ के तीज-त्यौहार (2000)
9. छत्तीसगढ के लोकोक्ति मुहावरे (2001)
10. पं. रमाकांत मिश्र अभिनंदन ग्रंथ (2001)
11. छत्तीसगढ हिन्दी शब्द कोश (2001)
12. सुरूज साखी हे (ललित निबंध)
13. ज्योति धाम रतनपुर – मां महामाया (2003)
14. छत्तीसगढ की खेती किसानी (2003)
14.
संपादित ग्रंथ: : पाठ्य पुस्तकें – एम.ए. हिन्दी कक्षा के लिए –
1. छत्तीसगढी काव्य संकलन (1988)
2. हिन्दी कहानी संकलन (1977)
3. रेखाचित्र तथा संस्मरण (1978)
(बी.ए. कक्षा के लिए) -
4. रविशंकर वि.वि. घासीदास वि.वि. एम.ए. छत्तीसगढ में पाठय रचनाऍं –
अभिनंदन ग्रंथ: भारतेंदु साहित्य समिति द्वारा अभिनंदित अभिनंदन गंथ.
वर्ष का ग्रंथ : छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश का संपादन । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा विद्याकर कवि सम्मान (2003) ।
सम्मान : मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार, महंत बिसाहू दास स्मृति द्वारा छत्तीसगढ अस्मिता पुरस्कार (गुडी के गोठ) अखिल भारतीय लोक कथा पुरस्कार, विलासा कला मंच द्वारा बिलासा साहित्य सम्मान, तथा भारतेंदु साहित्य समिति बिलासपुर, छत्तीसगढ साहित्य समिति, रायपुर, भिलाई, भाटापारा, समन्वय, अमृत लाल महोत्सव समिति, गुरू घासीदास वि.वि. बिलासपुर, बालको लोक कला महोत्सव समिति द्वारा सम्मानित छत्तीसगढ लोक कला उन्नयन मंच भाटापारा द्वारा छत्तीसगढ निबंध प्रतियोगिता में विशेष सम्मान पुरस्कार आदि । बिलासा कला मंच द्वारा वयोवृद्ध सृजनशील साहित्यकार सम्मान निधि प्रदत्त ।
रोटरी क्लब, बिलासपुर वेस्ट 2002 का प्रशस्ति पत्र । बाबू रेवाराम साहित्य समिति रतनपुर छ.ग. अभिनंदन पत्र, वशिष्ठ सम्मान 1998 गुरू घासीदास विश्व विद्यालय छात्र संघर्ष समिति, बिलासपुर द्वारा सम्मान, संरक्षक छत्तीसगढ हिन्दी साहित्य परिषद (छत्तीसगढ प्रदेश)
छत्तीसगढ शासन द्वारा संस्कृत भाषा परिषद् छत्तीसगढी भाषा परिषद के मनोनीत सदस्य संस्कृति विभाग की पत्रिका बिहनिया के परामर्शक ।
रविशंकर वि.वि. बख्शी शोध-पीठ द्वारा साधना सम्मान (2005)
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनशील साहित्य साधक सम्मान 2005
संस्कृति विभाग छत्तीसगढ शासन द्वारा पं. सुंदरलाल शर्मा सम्मान 2005.
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
विद्या नगर, फोन नं. – 223024
बिलासपुर (छत्तीसगढी
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गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...