बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नुन

रवि रतलामी जी ने पिछली पोस्ट "छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर्स की ऊर्जा" पर कमेट करते हुए कहा कि " ज्ञानदत्त जी हम छत्तीसगढ़िया बटकी में बासी और चुटकी में नून खाते हैं (बटकी में बासी और चुटकी में नून - में गावत हों ददरिया तें खड़े खड़े सून)
तो, आरंभ में बासी और बटकी और चटनी (अमारी) के बारे में भी ऐसा ही विस्तृत लेख लिख दें तो मजा आ जाए..."

तो उनकी कहे को आदेश मानते हुए लीजिए पढ़िए :-
छत्‍तीसगढ के ददरिया के संबंध में बहुत बार लिखा जा चुका है जिसमें हमारे हिन्‍दी ब्‍लागर कामरान परवेज जी एवं सीजी नेट के युवराज जी नें काफी विस्‍तार से लिखा है । हम यहां आपको इसका संक्षिप्‍त परिचय देते हुए एक मशहूर बंद को आप तक पहुचाना चाहते हैं । डॉ.पालेश्‍वर शर्मा ददरिया को इस तरह से व्‍यक्‍त करते हैं ‘ददरिया छत्‍तीसगढ के उद्दाम यौवन का स्‍वच्‍छंद अभिव्‍यंजन है । जब ददरिया का मदिर स्‍वर सन्‍नाटे के आलम में, नीरव निर्जन में, विजयवन में, सुदूर कानन प्रांतर में, स्‍तब्‍धनिशा में गूंजता है, तो प्रियतम की बहुत याद आती है अथवा प्रियतम को ही प्रणयाराधिका प्रणयातुर होकर पुकारती है ।‘ । अनेकों प्रचलित व जनसुलभ ददरिया के जो दो पंक्ति कई प्रेम-गीतों में आता है वह है :-


बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नुन।

मैं गावत दरिया तय ठाड़ होके सुन।

बटकी (कांसे का पात्र A deep large plate of Bell-metal) में बासी एवं चुटकी में नमक है, प्रिय मैं ददरिया गा रहा हूं तुम खडे होकर सुनो ।



छत्‍तीसगढ धान का कटोरा है, धान इसके गीतों में भी रचा-बसा है क्‍योंकि धान से ही छत्‍तीसगढ का जीवन है । हम पके चावल को छोटे पात्र (बटकी) में पानी में डुबो कर ‘बासी’ बनाते हैं और एक हांथ के चुटकी में नमक लेकर दोनों का स्‍वाद लेके खाते हैं यही हमारा प्रिय भोजन है साथ घर के बाडी में उपलब्‍ध पटसन के छोटे छोटे पौधे अमारी के कोमल-कोमल पत्‍तों से बनी सब्‍जी को खाते हैं एवं उल्‍लास से ददरिया जो हमारा प्रेम गीत है, गाते हैं । यह पंक्ति छत्‍तीसगढ के फक्‍कडपन की झलक है अपनी सादगी को प्रदर्शित करने की एक सहज प्रस्‍तुति है ।

अपने इसी निष्‍छल सादगी में प्रेम को प्रदर्शित करने का यह लोक-गीत धान के खेतों, खलिहानों डोंगरी व वनों में अति उत्‍श्रंखल हो जाता है वहीं इसके साथ ही, मर्यादा का संतुलन भी गांवो में नजर आता है बकौल डॉ.महावीर अग्रवाल ’यहां के लोकगीतों में वाचिक परम्‍परा में आत्‍मानुशासन की मर्यादा बेहद सटीक नजर आती है -

कनिहा पोटार के बहिनी रोवय
गर पोटार के भाई
ददा बपुरा मुह छपक के
बोम फार के दाई ।
कन्‍या के विदाई के समय बहन कमर पकड कर विलाप करती है और भाई ग्रीवा को थामे रो रहा है, एक ओर पिता मुख को ढांपकर रो रहे हैं तो दूसरी ओर मॉं गाय की तरह रंभाकर अर्थात दहाडमार कर रो रही है ।‘

विविध रूप हैं लोकगीतों के और इन्‍ही लोकगीतों से समाज का अध्‍ययन व आकलन किया जा सकता है जहां छत्‍तीसगढ में 1828 से 1908 तक पडे भीषण अकालों नें बासी और नून खिलाना सिखाया है वहीं कभी स्‍वर्ण युग ने ‘सोनेन के अरदा सोनेन के परदा, सोनेन के मडवा गडे हे ‘ को भी गाया है ।

ददरिया एवं छत्‍तीसगढी लोक गीतों को पढते और सुनते हुए डॉ.हनुमंत नायडू के एक शोध ग्रंथ के उपसंहार में लिखे पंक्ति पर बरबस ध्‍यान जाता है और इस पर कुछ भी लिखना उन पंक्तियों के सामने फीका पड जाता हैं, डॉ.हनुमंत नायडू स्‍वयं स्‍वीकारते हैं कि वे छत्‍तीसगढी भाषी नहीं हैं किन्‍तु सन 1985 के लगभग पीएचडी के लिए वे इसी भाषा को चुनते हैं । धन्‍य है मेरा ये प्रदेश, तो क्‍यू न गर्व हो मुझे भारत देश पर और उसमें मेरे स्‍वयं के घर पर ।

‘इस प्रदेश के जीवन में प्रेम का स्‍थान अर्थ और धर्म से उच्‍च है । पौराणिक काल से लेकर आधुनिक युग तक छत्‍तीसगढ के द्वार हर आगंतुक के लिए सदैव खुले रहे हैं । प्राचीन काल में जहां दण्‍डकारण्‍य नें वनवास काल में श्रीराम और पाण्‍डवों को आश्रय दिया था तो वर्तमान काल में स्‍वतंत्रता के पश्‍चात बंगाल से आये शरणार्थियों को दण्‍डकारण्‍य योजना के अंतर्गत आश्रय दिया है परन्‍तु छत्‍तीसगढ के इस प्रेम को उसकी निर्बलता समझने वालों को इतना ही स्‍मरण कर लेना यथेष्‍ठ होगा कि कौरवों को पराजित करने वाली पाण्‍डवों की विजयवाहिनी को इसी प्रदेश में बब्रुवाहन एवं ताम्रध्‍वज के रूप में दो दो बार चुनौती का सामना करना पडा था ।‘



‘भारतीय आर्य जीवन में प्रेम और दया जैसे जिन शाश्‍वत जीवन मूल्‍यों को आज भारतियों नें विष्‍मृत कर दिया है वे आज भी यहां जीवित हैं । जाति, धर्म और भाषा आदि की लपटों से झुलसते हुए भारतीय जीवन को यह प्रदेश आज भी प्रेम और दया का शीतल-आलोक जल दे सकता है । आज भारत ही नहीं समस्‍त विश्‍व की सबसे बडी आवश्‍यकता प्रेम और सहिष्‍णुता की है जिसके बिना शांति मृगजल और शांति के सारे प्रयत्‍न बालू की दीवार की भांति हैं । प्रेम और सहिष्‍णुता का मुखरतम स्‍वर छत्‍तीसगढी लोक-गीतों का अपना स्‍वर है जो भारतीय जीवन से इन तत्‍वों के बुझते हुए स्‍वरों को नई शक्ति प्रदान कर सकता है ।‘


संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...