
प्रेम साइमन कारी, लोरिक चंदा, मुर्गीवाला, हम क्यों नहीं गाते, भविष्य, अस्सी के दशक में सर्वाधिक चर्चित नाटक विरोध, झडीराम सर्वहारा, अरण्यगाथा, दशमत कैना, राजा जिन्दा है, भूख के सौदागर, गौरव गाथा, प्लेटफार्म नं. 4, 20 सदी का सिद्धार्थ, माईकल की पुकार, मैं छत्तीसगढी हूं जैसे कालजयी नाटकों के पटकथा लेखक व छत्तीसगढी फीचर फिल्मों के दूसरे दौर के आरंभ के सुपर हिट फिल्म - मोर छईहां भुंईया, व मया दे दे मया ले ले, परदेशी के मया के पटकथा लेखक, दूरदर्शन में राष्ट्रीय स्तर पर बहुचर्चित टीवी फिल्म ‘हरेली’, बहादुर कलारिन सहित सौ से अधिक टेलीफिल्मों के लेखक थे। लोकगाथा भर्तहरि पर रायपुर आकाशवाणी के लिए उनके द्वारा लिखित रेडियो ड्रामा नें आल इंडिया रेडियो ड्रामा काम्पीटिशन में पहला स्थान प्राप्त किया था। इसके अतिरिक्त इन्होंनें हजारों रेडियो रूपकों एवं अन्य कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी हैं। प्रेम साइमन नाटक विधा में पारंगत थे, चाहे फिल्मी पटकथा हो या लाईट एण्ड साउंड शो का आधुनिक रूप। वे नाटक के हर रूप को उतने ही अधिकार से लिखते थे, जितने कि परंपरागत नाटकों या लोकनाट्य को लिखते थे। इनकी कार्यों की फेहरिश्त काफी लंबी है जिसे एक लेख में समाहित करना संभव भी नहीं।
साइमन के लिखे नाटक 'मुर्गीवाला' का एक हजार मंचन किया गया था। साइमन के नाटक में आम आदमी की आवाज होती थी, व्यंग्य होता था। उनके लिखे संवाद सीधे वार करते थे। उनके नाटक 'मुर्गीवाला' को देश भर में कई लोगों ने खेला। जाने-माने फिल्म अभिनेता व निर्देशक अमोल पालेकर ने भी। साइमन को लोग नाटक व फिल्म लेखक के रुप में जानते हैं। उनका एक पक्ष छुपा रहा। वे कविताएं भी लिखते थे। प्रेम साइमन मूलत: कवि थे, वरिष्ठ पीढी के रंगकर्मी स्व. मदन सिंह एवं तदुपरांत स्व. जी.पी.शर्मा की प्रेरणा से उन्होंनें पटकथा लेखन के क्षेत्र में कदम रखा। साइमन के लिखे संवाद इतने सशक्त होते थे कि नाटक में अभिनय गौण हो जाता था। संवादों के बल पर ही पूरे नाटक की नैया पार लग जाती थी। साइमन के लेखन में सुप्रसिध्द व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई जी जैसी धार थी। वे बीमार थे पर लिखना नहीं छूटा था। उन्हें न खाने का मोह था न पहनने का। बस लिखने की धून थी। वे उन लेखकों में से भी नहीं थे जो अखबारों में छपवाने के लिए जेब में फोटो रखकर घूमते हैं। वास्तविकता यह है कि साइमन को लेखन जगत में जो सम्मान मिलना था वह नहीं मिला। सन् 1984 में उन्होंने छत्तीसगढ़ी नाचा पर आकाशवाणी के लिए एक स्क्रीप्ट लिखी थी। जो राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हुई। उनका लिखा नाटक 'घर कहां है' आज भी याद किया जाता है।
इतने विशाल उपलब्धियों के कैनवास के बाद भी उन्हें कभी भी पैसे और नाम की चाहत नहीं रही। उनके इस फक्कडपन पर छत्तीसगढ के फिल्मकार प्रेम चंद्राकर बतलाते हैं कि उनकी सहजता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे मंच के सामने बैठकर अपने ही नाटक का मंचन देखते थे, लेकिन उन्हें आयोजनकर्ता, नाटक खेलने वाले कलाकार और दर्शक नहीं पहचान पाते थे। मुंबईया फिल्मों के दैदीप्यमान नक्षत्र निदेशक अनुराग बसु और उनके पिता सुब्रत बसु के बारंबार अनुरोध व हिन्दी फीचर फिल्मों के पटकथा लेखकों की उंचाईयों पर आहे भरने के बावजूद वे भिलाई छोडने को राजी नहीं हुये।
आचार्य महेशचंद्र शर्मा नें उनके विगत दिनों आयोजित ‘स्मृतियॉं प्रेम साइमन’ के आयोजन में अपने भावाद्गार प्रकट करते हुए कहा था ‘भौतिक वाद के युग में असुरक्षा से घिरा मानव, परिवार एवं समाज से लेना और सिर्फ लेना ही जानता है किन्तु बिरले लोग ऐसे होते हैं जो हर किसी को हमेशा देते रहते हैं। प्रेम सायमन भी ऐसे ही शख्शियत थे, उन्होंनें बिना किसी आकांक्षा मोह या स्वार्थ के हर पल अपना ज्ञान, अपना लेखन और अपना अनुभव चाहने वालों के बीच बांटा।‘
प्रेम साइमन के साथ विगत चार दशकों से कार्य कर रहे उनके मित्र लाल राम कुमार सिंह नें उनके निधन के दिन ही दैनिक छत्तीसगढ में उनपर लिखते हुए ‘क्यू परीशां है ना मालूम ये जीने वाले’ में कहा ‘कौन कहता है ‘प्रेम सायमन’ नहीं रहे, प्रेम सायमन तो छत्तीसगढ की आत्मा है, और आत्मा तो नित्य है, शाश्वत है, अजर है, अमर है। वो सदैव एक निश्च्छल भोला, छत्तीसगढिया की तरह हमारे बीच विद्यमान है।‘
(संदर्भ- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से साभार, मेरा र्दुभाग्य रहा कि कई बार उनके करीब होने के बावजूद मैं ब्यक्तिगत रूप से उनसे नहीं मिल सका, आज-कल करते करते मैंनें उनसे मिलने का सौभाग्य खो दिया )
संजीव तिवारी