मारकोनी : दमित यौन आंकाक्षाओं का प्रतिष्ठित नाम

'मारकोनी!!!' प्रथम राज्य स्तरीय अधिवक्ता सम्मेलन में एक वरिष्ठ अधिवक्ता नें दूसरे वरिष्ठ अधिवक्ता को आवाज दिया. मैनें विरोध किया कि सर उनका नाम तो ... है. 'नहीं! मारकोनी नाम है उसका! हा हा हा!.. यह उसका निक नेम है!' सीनियर नें कहा.

मारकोनी, उम्र है तकरीबन 55 साल, वकील के काले कोट में सामान्य सा इकहरे बदन का लम्बा युवक. कहते हैं उसकी शादी नहीं हुई है. न्यायालय परिसर के वरिष्ठ अधिवक्ताओं और बाबूओं के बीच वह अपने इसी नाम से पहचाना जाता है. पर क्यूं? ज्दाया जिद कर पूछने पर वरिष्ठ बताते हैं कि मारकोनी शहर के एक प्रतिष्ठित वकील परिवार से ताल्लुक रखता है जिसके परिवार में एक से एक नामी वकील हैं. जवानी में उसकी शादी के लिए एक से एक लड़कियों के रिश्ते आए किन्तु कभी उसके मॉं बाप तो कभी स्वयं वह, लड़कियॉं छांटते रहे और धीरे धीरे विवाह की उम्र खिसक गई. पत्नी का स्वप्न संजोये वह उन दिनों यहॉं वहॉं से बड़े बड़े घरों से आए अपने रिश्ते की बातें मित्रों को बताता और मित्र उसका मजाक उड़ाते कि तुम्हारे लायक लड़की अभी बनी नहीं है, तुम लोगों को नये माडल की गाड़ी चाहिए जो पूरे शहर में ना हो, अगोरो!

इधर मित्रों नें देखा कि अगोरते अगोरते उसकी दमित यौन आकांक्षाओं नें उबाल मारना चालू कर दिया किन्तु प्रतिष्ठित परिवार के होने के कारण वह संयम की चादर ओढ़े रहा. पहले वह भीड़ से बचकर न्यायालय कक्षों में पहुचता था अब न्यायालय की भीड़ भाड़ वाली गलियों से होकर आना जाना उसे अच्छा लगने लगा. 

खोजी मित्र लोग पीछे पड़ गए कि ये ऐसा क्यूं करता है, पता चला वकील साहब भीड़ में अपनी दोनों कोहनी (कुहनी) का बेहतर प्रयोग महिला वकीलों और न्यायालय में पेशी में आए सुन्दर लड़कियों, महिलाओं के वक्ष उभारों पर इस प्रकार करते थे कि उन्हें बहुत जल्दी है आगे जाने की. लज्जावती महिलायें सार्वजनिक स्थल पर अपने स्तन पर कोहनी का दबाब सहकर भी चुप रहती किन्तु कभी कभी गांव से आई महिलायें शुरू हो जातीं ..रोगहा जा अपन दाई के ल चपकबे! वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाता. अब तो यह उसकी आदत है.

इतना कह कर सीनियर विक्रमादित्य की तरह चुप हो गए. सीनियर के चुप्पी पर मेरा प्रश्न पुन: जीवंत हो उठता है, इस वाकये से मारकोनी का कोई लिंक समझ में नहीं आया?

सीनियर नें अपनी छाती में डायरी को दोनों हाथों से चिपका कर कोहनी (कुहनी) को उपर नीचे कर अभिनय करते हुए बताया, ये..ये.. मार कोनी.. बस में मार कोनी, ट्रेन में मार कोनी, माता के दरशन जाते हुए मार कोनी.. मारकोनी.. मारकोनी बाबा की जय!

सीनियर मारकोनी सर से क्षमा सहित.

संजीव तिवारी.

छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दकोश, भाषा और मानकीकरण की चिंता

- संजीव तिवारी
शब्द भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कड़ी है. शब्द के बिना भाषा की कल्पना करना निरर्थक है. वास्तव में शब्द हमारे मन के अमूर्त्त भाव, हमारी इच्छा और हमारी कल्पना का वीचिक व ध्वन्यात्मक प्रतीक है. सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ साथ ही मनुष्य को भान हो गया था कि मनोभाव के संप्रेषण के यथेष्ठ अभिव्यक्ति की आवश्यकता है. इस अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है. सही शब्द के चयन के लिए तदकालीन विद्वानों नें शब्दों के संकलक की आवश्यकता पर बल दिया और भाषा के विकास क्रम अनवरत बढ़ता गया. एक प्रकार की अभिव्यक्ति वाले किसी बड़े भू भाग के अलग-अलग क्षेत्रों में शब्दों के विविध रूपों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से शब्दों और भाषा का मानकीकरण का प्रयास आरम्भ हुआ. यह निर्विवाद सत्य है कि लिपियों के निर्माण से भी पहले मनुष्य ने शब्दों का संग्रहण व लेखाजोखा रखना आरम्भ कर दिया था, इस के लिए उस ने कोश निर्माण शुरू किया गया. यह गर्व करने वाली बात है कि सब से पहले शब्द संकलन भारत में ही बने. शब्दों के संग्रहण और कोश निर्माण की हमारी यह परंपरा लगभग पाँच हज़ार साल—पुरानी है. प्रजापति कश्यप का 'निघंटु' संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इसी के साथ ही संस्कृत के उपरांत हिन्दी और उसके बाद भारतीय हिंदीतर भाषा के कोशों का निर्माण प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक बराबर चल रहा है.

छत्तीसगढ़ी भाषा संकलकों पर एक दृष्टि -
क्षेत्रीय भाषाओं में तमिल भाषा में कोश निर्माण की परंपरा प्राचीन मानी जाती है. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साथ ही छत्तीसगढ़ी में भी शब्दों के संकलन की परम्परा पुरानी रही है. प्रदेश में छत्तीसगढ़ी भाषा के लिखित साक्ष्य के रूप में उपलब्ध सन् 1702 में दंतेश्री मंदिर, दंतेवाड़ा, बस्तर में लिखे शिलालेख छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित नमूना माना जाता है. इसमें हमारी भाषा का विकास स्पष्ट नजर आता है. मानकीकरण एवं अकादमिक विकास की दृष्टि से एक अहम दस्तावेज के रूप मे उक क्षेत्र में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी भाषा का व्याकरण सन 1885 में हीरालाल काव्योपाध्याय जी नें तैयार किया. तदकालीन अंग्रेज विद्वानों में जार्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषाशास्‍त्रीय सर्वेक्षण में हीरालाज जी के इसी व्याकरण को अंगीकृत करते हुए सन 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की शोध पत्रिका में इसे अनूदित और सम्‍पादित कर प्रकाशित कराया. रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में तैयार किए गए इस व्‍याकरण को, पं. लोचन प्रसाद पाण्‍डेय नें सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार शासन के निर्देश पर सन 1921 में विस्‍तृत पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराया. इस पुस्तक में छत्तीसगढ़ी भाषा के व्याकरण के साथ ही शब्द संकलक भी थे. इसी के साथ विद्वानों एवं सुधीजनों द्वारा छत्तीसगढ़ी भाषा के व्याकरण एवं कोश पर कार्य आरम्भ कर दिया. हमारी भाषा पर अंतराल के बाद लगातार पुस्तकें प्रकाशित होनें लगी जिसमें डॉ.भाल चंद्र राव तैलंग का छत्तीसगढ़ी का वैज्ञानिक अध्ययन, का छत्तीसगढ़ी बोली, डॉ. कांतिकुमार का व्याकरण और कोश, डॉ. शंकर शेष का छत्तीसगढ़ का भाषाशास्त्रीय अध्ययन, डॉ.मन्नूलाल यदु का छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का छत्तीसगढ़ी भाषा का उदविकास, भागवत प्रसाद साहू का सवरिया बोली पर शोध आदि पुस्तकें उल्लेखनीय हैं.

छत्तीसगढ़ी शब्दकोशों पर एक नजर -
छत्तीसगढ़ी भाषा पर ये पूर्व पीठिका के रूप में जो कृतियां इन विद्वानों के द्वारा लिखे गए यही भाषा के विकास में मील के पत्थर साबित हुए. इनको आधार बनाते हुए विद्वानों नें छत्तीसगढ़ी शब्दों के संकलन को लगातार बढाया और इसी के फलस्वरूप डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा का छत्तीसगढ़ी शब्दकोश व छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश प्रकाशित हुआ जो आरंभिक कोशों में पहला संवेदनशील प्रयास था. भाषाविज्ञानी मेहरोत्रा जी का यह कोश आगे के कोशकारों का आधार ग्रंथ बना. इसके बाद डॉ.पालेश्वर शर्मा नें अपने वृहद शोध छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली के मुख्यांशों को छत्तीसगढ़ी हिन्दी शब्दकोश के रूप में बिलासा कला मंच द्वारा प्रकाशित करवाया. डॉ.रमेश चंद्र मेहरोत्रा जी के शब्दकोश में रायपुरी शब्दों की अधिकता को देखते हुए, डॉ. पालेश्वर शर्मा नें बिलासपुरी और अन्य क्षेत्रों के शब्दों को भी अपने कोश में समाहित किया. यह शब्दकोश तत्कालीन प्रकाशित सभी कोशो में वृहद एवं विस्तृत था. डॉ.पालेश्वर शर्मा जी द्वारा संकलित छत्तीसगढ़ी हिन्दी शब्दकोश में लगभग 10000 शब्द समाहित हैं, इसी क्रम में डॉ.सोमनाथ यादव जी द्वारा ​संकलित शब्दकोश भी उल्लेखनीय है. अन्य कोशों में माता प्रसाद भट्ट नें 'शब्द संकलन' के नाम से जो शब्दकोश प्रकाशित कराया जिसमें लगभग 2000 शब्द हैं. मंगत रवीन्द्र की कृति छत्तीसगढ़ी व्याकरण में शब्द ढाबा लगभग 7000 शब्दों का है, इसमें बेरा सीढी और शब्दकोश के सभी अंग है. चंद्रकुमार चंद्राकर नें मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण, छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति और मुहावरा कोश व छत्तीसगढ़ी शब्दकोश प्रकाशित करके छत्तीसगढ़ी भाषा की शब्द सम्पदा को समृद्ध किया. चंद्रकुमार चंद्राकर जी के छत्तीसगढ़ी शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी के 27,261 शब्द संकलित हैं जिनके अर्थ छत्तीसगढ़ी से हिन्दी में दिए गए हैं.

इन कोशों के बीच अभी हाल ही में 'छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें' का प्रकाशन सामने आया. इसमें समाहित विषय की ज्वलंत प्रासंगिकता एवं व्यापकता इसे अन्य प्रकाशनों से इसे पृथक करती है. यही इस किताब की अपनी मौलिक विशेषता है. यह छत्तीसगढ़ी सीखने वाले गैर छत्तीसगढ़ियों को भी पर्याप्त प्रेरणा और सीख दे सकेगी. इसके लेखक महावीर अग्रवाल के प्रयत्नों से जो कृति को स्वरूप मिला है, वह कई मायनों में अद्भूत है. 'छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें' में हिन्दी, अग्रेजी के साथ छत्तीसगढ़ी के मेल से अहिन्दी भाषी भी छत्तीसगढ़ी की बारीकियां जान और समझ सकेंगें. छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें में महावीर अग्रवाल नें रैपिडैक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के तर्ज पर क्रमिक रूप से छत्तीसगढ़ी आचरण में, हिन्दी से छत्तीसगढ़ी की ओर, अनेक शब्दों के एक शब्द, मनुष्य जीवन से जुड़े व्यावहारिक शब्दों को अंग्रेजी, प्राय: प्रयोग में आने वाले वाक्य आदि हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में सरल तरीके से समझाया गया है. यह हिन्दी अंग्रेजी छत्तीसगढ़ी में है इसमें शरीर के अंग, गहने, फल फूल आदि आधुनिक शब्दकोश जैसे व्यवहारिक तत्वों का समावेश किया गया है. इसमें लगभग आधा हिस्सा छत्तीसगढ़ी शब्दकोश का है जिसमें यह भी हिन्दी, अंग्रेजी एवं छत्तीसगढ़ी में लोकोक्तियॉं और मुहावरों के साथ हिन्दी से छत्तीसगढ़ी में शब्द संकलन है.

राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा सामूहिक प्रयास से निर्मित छत्तीसगढ़ी शब्दकोश का उल्लेख करना भी आवश्यक है क्योंकि इसके लिए लगभग 35 लोगों नें छ: माह में कई बैठकों के बाद छत्तीसगढ़ी शब्दों का अंग्रेजी व हिन्दी अर्थ संकलित किया जिसे वाक्यों में प्रयोग कर दर्शाया. प्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम नें भी स्कूली बच्चों के लिए छत्तीसगढ़ी शब्दों के अंग्रेजी व हिन्दी अर्थ वाला छत्तीसगढ़ी शब्दकोश का प्रकाशन किया. इसके अतिरिक्त नन्दकिशोर शुक्ल, डॉ.गणेश खरे, डॉ.प्रेमनारायण दुबे, डॉ.चित्तरंजन कर, डॉ.विनय कुमार पाठक, डॉ. सुधीर शर्मा, हरि ठाकुर, भागवत प्रसाद साहू, रामानुज शर्मा, डॉ.राजेन्द्र सोनी, समयदास अविनाशी, नजीर कुरैशी, डॉ.व्यासनारायण दुबे आदि का नाम शब्द संकलक के रूप में वरिष्ठ जनों द्वारा लिया जाता है. इन कोशकारों, शब्द संकलनकर्ताओं, शोध करने वालों के साथ ही नंदकिशोर तिवारी द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर में मानकीकरण के लिए किए जा रहे प्रयासों में संकलित शब्द आदि हैं.

शब्दकोशों की प्रामाणिकता एवं उत्कृष्टता की कसौटी -
भाषा विज्ञान की दृष्टि से किसी शब्दकोश में क्या होना चाहिए इस पर भी संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है. बकौल भाषा विज्ञानी कि शब्दकोश में उच्चा
ण सूचक संकेतचिह्नों के माध्यम से शब्दों के स्वरों व्यंजनों का पूर्णतः शुद्ध और परिनिष्ठित उच्चारण स्वरूप बताते हुए स्वराघात बलगात का निर्देश करते हुए यथासंभव उच्चार्य अंश के अक्षरों की बद्धता और अबद्धता का परिचय होना चाहिए; साथ ही व्याकरण से संबंधित उपयोगी और आवश्यक निर्देश होना चाहिए. उत्कृष्ट शब्दकोश में शब्दों के इतिहास एवं उसके उत्पत्ति पर भी टीप होना चाहिए; परिवार-संबंद्ध अथवा परिवारमुक्त निकट या दूर के शब्दों के साथ शब्दरूप और अर्थरूप का तुलनात्मक पक्ष उपस्थित करना; शब्दों के विभिन्न और पृथक्कृत नाना अर्थों को अधिक-न्यून प्रयोग क्रमानुसार सूचित करना; प्रयुक्त-शब्दो अथवा शब्दप्रयोगों की विलोपसूचना देना; शब्दों के पर्याय बताना; और संगत अर्थों के समर्थनार्थ उदाहरण देना; चित्रों, रेखाचित्रों, मानचित्रों आदि के द्वारा अर्थ को अधिक स्पष्ट करना. भाषा में अनेक शब्द ऐसे भी मिलते हैं जिनका पहले तो प्रयोग होता था पर कालपरंपरा में उनका प्रयोग लुप्त हो गया, आज के उत्कृष्ट कोशों में यह भी दिखाया जाता है कि कब उनका प्रयोग आरंभ हुआ और कब उनका लोप हुआ आदि आदि. 

शब्दों के मानकीकरण पर समाज की चिंता -
छत्‍तीसगढ़ में छत्‍तीसगढ़ी सहित अन्‍य कई बोलियां बोली जाती है, छत्‍तीसगढ़ी भाषा में भी स्‍थान स्‍थान के अनुसार से किंचित भिन्‍नता है इस कारण छत्‍तीसगढ़ी शब्दों के संकलन और उनके मानकीकरण पर भी अब गंभीर होने की आवश्यकता है. इन शब्दकोंशों की भूमिका इस हेतु से भी अहम है. लगातार समृद्ध होकर प्रकाशित हो रहे शब्दकोशों में संकलित शब्दों एवं छत्तीसगढ़ में उनके मानकीकरण पर अब समाज विभिन्न माध्यमों से विमर्श कर रहा है. इसी विमर्श पर अन्य भाषा को छत्तीसगढ़ी द्वारा आत्मसाध कर लिये जाने व शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दों के मानक प्रयोगों पर हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठित ब्लॉगर ब्लॉ. ललित शर्मा जी जो कहते हैं वह उल्लेखनीय है, वे कहते हैं 'छत्तीसगढी बोली में हिन्दी एवं उर्दू के शब्द इस तरह से घुलमिल गए हैं कि हम उन्हे अलग नहीं मान सकते तथा वे नित्य व्यवहार में भी हैं। ..... जिस तरह हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के बाद भी राजस्व की कार्यवाही में उर्दू शब्दों का प्रयोग वर्तमान में भी प्रचलन में है जैसे तहसीलदार, नायब तहसीलदार, खसरा, रकबा, खतौनी, पटवारी, नकल, अर्जीनवीस, खजाना, नाजिर, खसरा पाँच साला, फ़ौती, मोहर्रिर, मददगार, हवालात, कोतवाली इत्यादि शब्द.'
 
पूर्व प्रकाशित संकलकों को आधार मानने के बजाए इन सुझावों पर अब गंभीर होकर सोंचना होगा तभी छत्तीसगढ़ी भाषा का मानकीकरण इमानदारी से हो पायेगा. यद्धपि प्रख्यात अधिवक्ता एवं साहित्यकार कनक तिवारी की चिंता से मुह फेरा नहीं जा सकता कि 'तथ्य है कि छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली को लेकर जितने भी शोध विगत वर्षों में हुए हैं, उनमें पहल, परिणाम या पथ प्रदर्शन का बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़वासियों के खाते में नहीं है। ...... वैसे मानक छत्तीसगढ़ी बोली का अब तक स्थिरीकरण कहाँ हुआ है। बस्तर, खैरागढ़ और सरगुजा की बोली पूरी तौर पर एक जैसी कहाँ है।' इसी चिंता के कारण कुछ डिंडोरा पीटकर तो कुछ बिना आवाज किए भाषा पर एवं उसके मानकीकरण पर काम कर रहे हैं. कुछ लोगों के अपने आप को वरिष्ठ समझने, जताने और अमर हो जाने के उदीम करने के बावजूद पुरातत्वविद व संस्कृति विभाग के वरिष्ठ अधिकारी राहुल सिंह जी का कहना उल्लेखनीय हैं 'तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता के असली झण्डाबरदार ज्यादातर ओझल से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्‍तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।' उनके इस कथन पर आस्था और विश्वास रखते हुए जय भारत! जय छत्तीसगढ़.

संजीव तिवारी

संभव है कि यहॉं उल्लेख किए गए शब्दकोश एवं कृतियों, संकलनकर्ताओं/संपादकों के अतिरिक्त भी कुछ नाम छूट गए होंगें, पाठकों से अनुरोध है कि हमें उनकी जानकारी देवें.

.

.
छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...