खाय बर खरी बताए बर बरी

छत्तीसगढ़ी के इस मुहावरे का अर्थ है रहीसी का ढ़ोंग करना. इस मुहावरे में प्रयुक्त 'खरी' और 'बरी' दोनो खाद्य पदार्थ हैं, आईये देखें :

संस्कृत शब्द क्षार व हिन्दी खारा से छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' बना, इसका सपाट अर्थ हुआ नमकीन, खारा. क्षार के तीव्र व तीक्ष्ण प्रभावकारी गुणों के कारण इस छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' का प्रयोग जलन के भाव के रूप में होने लगा, तेल खरा गे : तलने के लिए कड़ाही में डले तेल के ज्यादा गरम होने या उसमें तले जा रहे खाद्य के ज्यादा तलाने के भाव को खराना कहते हैं. संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयुक्त इस शब्द के प्रयोग के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रतिध्वनित होते हैं जिसमें नमकीन, तीव्र प्रभावकारी, तीक्ष्ण, जला हुआ या ज्यादा पकाया हुआ, हिंसक, निर्दय, सख्त, अनुदार, स्पष्टभाषी, कठोर स्वभाव वाला, कटु भाषी. इससे संबंधित कुछ मुहावरे देखें 'खर खाके नइ उठना : विरोध ना कर पाना', ' खर नइ खाना : सह नहीं सकना', 'खर होना : तेज तर्रार होना', 'खरी चबाना : कसम देना'.

'खरी' तिलहन उपत्पादों के पिराई कर तेल निकलने के बाद बचे कड़े अवशेष को खली कहते हैं, यह पशुओं को खिलाया जाता है. सार तेल को और खली को गौड़ मानने के भाव नें ही इस मुहावरे में 'खरी' के उपयोग को सहज किया होगा. गांवों में तिल के खली को गुड़ के साथ खाते भी हैं.

संस्कृत शब्द 'वटी' व हिन्दी 'बड़ी' से बने 'बरी' का अर्थ खाद्य पदार्थ 'बड़ी' से है. छत्तीसगढ़ में रात को उड़द दाल को भिगोया जाता है, सुबह उसे सील-लोढ़े से पीसा जाता है फिर कुम्हड़ा, रखिया आदि फल सब्जियों को कद्दूकस कर दाल के लुग्दी जिसे पीठी कहा जाता है, में मिलाया जाता है और उसे टिकिया बनाने लायक सुखाया जाता है. इसे सब्जी के रूप में बना कर परोसा जाता है. इसे बनाने में कुशलता व श्रम के साथ ही दाल आदि के लिए पैसे खर्च होते हैं इस लिए शायद इसे समृद्धि सूचक माना गया है.

एती के बात ला ओती करना

इस छत्तीसगढ़ी मुहावरे का अभिप्राय है चुगली करना (Backbite). इस मुहावरे में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी के दो अहम शब्दों का विश्लेषण करते हैं, 'एती' और 'ओती' यहां और वहां के लिए प्रयुक्त होता है इन दोनों शब्दों पर कुछ और प्रकाश डालते हैं.

संस्कृत शब्द 'एस:' से बना छत्तीसगढ़ी शब्द है 'ए' जिसका अर्थ है यह या इस 'ए फोटू : यह फोटो'. इस 'ए' और 'ओ' का प्रयोग संबोधन के लिए भी किया जाता है 'ए ललित'. प्रत्यय के रूप में 'ए' किसी निश्चयार्थ के भाव को प्रदर्शित करने शब्द बनाता है यथा 'एखरे, एकरे : इसीका', 'ए' विश्मयादिबोधक के रूप में भी प्रयुक्त होता है 'ए ददा रे : अरे बाप रे. 'ए' के साथ जुड़े शब्दों में 'एतेक : इतने', 'एदइसन : इस प्रकार का', 'एदरी : इस बार', 'एदे : यह', 'एलंग : यहॉं, दिशाबोधक', 'एला : इसे, इसको', 'एसो : इस साल' आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं. मुहावरे में प्रयुक्त 'एती' संस्कृत शब्द इत:, इतस् व हिन्दी इत, ऐ से अपभ्रंश से 'एती' बना है. क्रिया विशेषण के रूप में 'एती' का अर्थ इधर, इस ओर, यहॉं से है. 'एती' जुड़ा एक और मुहवरा है 'एती ओती करना' यानी तितर बितर करना, इसी समानार्थी शब्द है 'ऐती तेती'.

सर्वनाम के रूप में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'ओ' का अर्थ वह या वो है. छत्तीसगढ़ी में 'ओ' से शुरू हो रहे कई शब्द हैं जिनका अलग अलग अर्थ हैं, इस कारण हम उनका उल्लेख फिर कभी करेंगें. अब सीधे मुहावरे पर आते हैं, क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त शब्द 'ओती' छत्तीसगढ़ी के 'ओ : उस' एवं 'ती : तरफ' से बना है जिसका अर्थ उस तरफ या उस ओर है.


अभी के दौर में एक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीत है 'एती जाथंव त ओती जाथस... हाय मोला झोल्टु-राम बना देहे ओ...' इसे यू ट्यूब पर यहाँ देख सकते हैं mola jholturam bana de-chhattiasgarhi song

रमाकांत सिंह जी कहते हैं 'हम चाहे ७० ८० साल की उम्र पार कर लें बीमार पड़ने पर ए दाई, ए ददा, ही कहते हैं, साथ ही जब कभी माँ की उम्र की महिला को संबोधित करते हैं कस ओ दाई, का ही करते हैं. जो सबसे प्यारा और सम्माननीय लगता है. मेरी दादी मेरी माँ को कस गोई कहती थी और ए गोई ए सहेली के लिए प्रयुक्त किया जाता है. गाव में एक और कहावत प्रचलित है *****ए दे कर देहे न नारद कस एति के बात ल ओती****.

राहुल सिंह जी का कहना है 'एती ओती करना - तितर-बितर > तिड़ी-बिड़ी. जत-खत या जतर-खतर भी़.

अन्‍य भाषाओं में भी ऐती ओती का अभिप्राय लगभग वही है जो छत्‍तीसगढ़ी में है, भाई देवेन्‍द्र पाण्‍डेय जी बताते हैं कि यह बिहारी में..एन्ने ओन्ने काशिका में..एहर ओहर नेपाली में..एता उता के रूप में प्रयुक्‍त होता है.

अड़हा बईद परान घाती

यह कहावत हिन्दी कहावत नीम हकीम खतरे जान का समानार्थी है, जिसका अभिप्राय है : अनुभवहीन व्यक्ति के हाथों काम बिगड़ सकता है. अब आईये इस छत्तीसगढ़ी मुहावरे में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'अड़हा' व 'घाती' को समझने का प्रयास करते हैं, 'बइद' (वैद्य) और 'परान' (प्राण) का अर्थ तो आप समझ ही रहे होंगें.

'अड़' संस्कृत शब्द हठ का समानार्थी है, अड़ से'अड़हा' बना है जो विशेषण है. हिन्दी शब्द अड एवं छत्तीसगढ़ी प्रत्यय 'हा' से बने इस शब्द का सीधा अर्थ है अड़ने वाला, अकड़ दिखाने वाला, जिद करने वाला, अज्ञानी, नासमझ, मूर्ख, विवेकहीन. किसी के आने या कोई काम होने की प्रतीक्षा में अड़े रहने की क्रिया रूप में भी 'अड़हा' प्रयुक्त होता है, इसमें 'ही' जोड़कर इसे स्त्रीलिंग बनाया जाता है यथा 'अड़ही'. वर्ष का वह पक्ष जिसमें भगवान की पूजा नहीं होती अर्थात पितृपक्ष को 'अड़हा पाख कहा जाता है. अड़ने से ही 'अड़ियल' बना है.

अड़ से बने शब्द 'अड़ाना' सकर्मक क्रिया के रूप में रोकना या अटकाने के लिए प्रयुक्त होता है.गिरती हुई किसी वस्तु को रोकने के लिए प्रयुक्त वस्तु या स्तंभ को 'अड़ानी' कहते हैं. जब यह विशेषण के तौर पर उपयोग होता है तब यह 'अड़ानी' का अर्थ अज्ञानी, मूर्ख, अनजान, अनभिज्ञ होता है. अन्य मिलते जुलते शब्दों में साधु के टेंक कर बैठने की लकड़ी को 'अड़िया' कहते हैं, कपड़े सुखाने या रखने के लिए बांधे गए बांस को 'अड़गसनी' कहा जाता है. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुहावरे में प्रयुक्त 'अड़हा' अज्ञानी या अल्प ज्ञानी से है.

अब देखें 'घात' को, यह संस्कृत शब्द घात से बना है जिसका अर्थ मार, चोट, अहित, क्षति के साथ ही हत्या व वध तक विस्तृत है. इसका प्रयोग उपयुक्त अवसर की खोज या ताक के लिए भी होता है यथा 'घात लगा के बइठई'. छत्तीसगढ़ी में 'घात' व 'घातेच' को यदि विशेषण के तौर पर उपयोग करें तो इसका अर्थ होगा बहुत, खूब, अधिक 'घात सुघ्घर दिखत हे गा'. 'घातक' का प्रयोग उसके हिन्दी अर्थो में ही होता है, 'घाती' का प्रयोग नुकसान करने वाला, नाश करने वाले के लिए होता है. समूह के लिए संस्कृत शब्द घन के रूप में प्रयुक्त 'घाना' का छत्तीसगढ़ी में अनाज आदि की कुटाई या पिसाई के लिए मशीन में या चक्की में एक बार में डाली जाने वाली मात्रा एवं किसी चीज को एक बार में तलकर निकाला जाने वाला भाग को कहा जाता है. मुहावरे में प्रयुक्त शब्द 'घाती' का अर्थ नुकसान करने वाला, नाश करने वाला ही है. अज्ञानी या अल्प ज्ञानी वैद्य से इलाज करवाने से जीवन के नास होने की संभावना रहती है.


इस शब्द श्रृंखला को चलाने के पीछे मेरा उद्देश्य कोई पाण्डित्य प्रदर्शन नहीं है, इन मुहावरों, लोकोक्तियों व शब्दों के माध्यम से मैं स्वयं छत्तीसगढ़ी शब्दों से रूबरू हो रहा हूं. यद्यपि मैं ऐसे ठेठ गांव में पला बढ़ा, पढ़ा, जहॉं बिजली, सड़क, टी.वी. जैसे साधन 90 के दसक में पहुंचे. जीवन के लगभग 22 वर्ष सतत और उसके बाद के 23 वर्ष में महीने—हप्ते के अंतरालों से गांव में ही जीवंत हूं. जिसके बावजूद मैं अपने ही शब्दों से अनजान हूं उन्हीं को जानने का प्रयास है यह कलमघसीटी. यदि पाठकों को लगता है कि कुछ ज्यादा 'शेखी बघरई' हो रहा है तो मुझे जरूर बतायें. 

'कोटकोट' और 'परसाही' Chhattisgarhi Word

पिछली पोस्ट के लिंक में पाटन, छत्तीसगढ़ के मुनेन्द्र बिसेन भाई ने फेसबुक Facebook में कमेंट किया और मुहावरे को पूरा किया 'कोटकोट ले परसाही त उछरत बोकरत ले खाही'. इसमें दो छत्तीसगढ़ी शब्द और आए जिसे स्पष्ट करना आवश्यक जान पड़ा, तो लीजिए 'कोटकोट' और 'परसाही' शब्द के संबंध में चर्चा करते हैं.

शब्दकोश शास्त्री चंद्रकुमार चंद्राकर जी संस्कृत शब्द 'कोटर' (खोड़र) के साथ 'ले' को जोड़कर 'कोटकोट' का विश्लेषण करते हैं, इसके अनुसार वे 'कोटकोट' को क्रिया विशेषण मानते हुए इसका अर्थ खोड़र, गड्ढा या किसी गहरे पात्र के भरते तक, पेट भरते तक, पूरी क्षमता तक, बहुत अधिक बतलाते हैं. इसी से बना शब्द 'कोटना' है जो नांद, पशुओं को चारा देने के लिए पत्थर या सीमेंट से बने एक चौकोर एवं गहरा पात्र है. मंगत रवीन्द्र जी ताश के खेल में प्रयुक्त शब्द 'कोट होना' का भी उल्लेख करते हैं जिसका अर्थ पूरी तरह हारना है, वे करोड़ों में एक के लिए 'कोटम जोट' शब्द का प्रयोग करते हैं जो कोट को कोटिकोटि का समानार्थी बनाता है. छत्तीसगढ़ में हिरण की छोटी प्रजाति को 'कोटरी' कहा जाता है, गांव का चौकीदार, राजस्व विभाग का निम्नतम गामीण कर्मचारी जो गांव की चौकसी भी करता हो उसे 'कोटवार' कहते हैं. इस प्रकार से 'कोटकोट' मतलब पेट भरते तक, पूरी क्षमता तक से है.

शब्द 'परसाही' परसना से बना है जो संस्कृत शब्द परिवेषण व हिन्दी परोसना से आया है जिसका अर्थ है भोजन परोसना. इसी से 'परसाद' और 'परसादी' बना है जो संस्कृत के का समानार्थी बनाता है. दूसरों की खुशी या दूसरों के बदौलत, कृपा पर प्राप्त वस्तु या पद आदि को 'परसादे' कहा जाता है. 'पर' का अर्थ ही दूसरे का या अन्य से है. पर से बने अन्य शब्दों में बाजू वाले घर को 'परोस', पलाश के वृक्ष को 'परसा', बरामदा को 'परसार, 'थाली या पत्तल में एक बार दिया गया भोजन 'परोसा' (एक परोसा) कहलाता है (First round of service) कहा जाता है. बेचैन, व्यग्र परेशान के लिए अपभ्रंश 'परसान' शब्द प्रयुक्त होता है. इस प्रकार से मुहावरे में प्रयुक्त शब्द परोसना का अर्थ भोजन परोसना से ही है.


छत्तीसगढ़ी शब्दों पर आधारित यह श्रृंखला छत्तीसगढ़ी के वि​भिन्न शब्दकोशों, ज्ञानकोशों एवं व्याकरण से संबंधित ग्रंथों एवं आलेखों को संदर्भ में लेते हुए लिखा जा रहा है जिनके रचनाकार डॉ.पालेश्वर शर्मा जी, डॉ.चित्तरंजन कर जी, श्री चंद्रकुमार चंद्राकर जी, डॉ.महावीर अग्रवाल जी, डॉ.सुधीर शर्मा जी, डॉ.सत्यभामा आडिल जी, डॉ.हीरालाल शुक्ल श्री नंदकुमार तिवारी जी आदि हैं. पूर्व कोश संग्रहकर्ताओं यथा भालचंद्र राव तैलंग जी, डॉ.शंकर शेष, डॉ.लक्ष्मण प्रसाद नायक, डॉ.कांतिकुमार जी, डॉ.नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ.व्यासनारायण दुबे आदि के लिखे कोश/ग्रंथ के संदर्भ मात्र उपलब्ध हैं मूल ग्रंथों की आवश्यकता है. पाठकों से अनुरोध है कि मुझे टिप्पणियों में छत्तीसगढ़ी शब्दों के ज्ञान वृद्धि के लिए ग्रंथ सुझाएं एवं उसकी उपलब्धता के संबंध में भी बतलाएं.

उछरत बोकरत ले भकोसना

छत्‍तीसगढ़ी के इस मुहावरे का भावार्थ है सामर्थ से अधिक खाना. आईये इसमें प्रयुक्‍त छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं.

'उछरत' शब्‍द 'उछर' से बना है, छत्‍तीसगढ़ी में 'उछर-उछर के खाना' शब्‍द का प्रयोग बहुधा होता है जिसका अर्थ है खूब खाना. इस 'उछर' में निरंतरता को प्रस्‍तुत करने के रूप में 'त' प्रत्‍यय को यदि जोड़ें तो हुआ खूब खाते हुए. एक और शब्‍द है 'उछार', शब्‍दकोश शास्‍त्री इसे संज्ञा के रूप में प्रयुक्‍त एवं इसका अर्थ कै, उल्‍टी, वमन बतलाते हैं. क्रिया के रूप में यह शब्‍द 'उछरना' प्रयुक्‍त होता है. इस क्रिया को 'उछराई' (कै का आभास, उल्‍टी करने का मन होना)कहा जाता है. इस प्रकार से 'उछरत' का अर्थ है खाई हुई चीज बाहर निकालना, वमन, उल्टी करना (Vomiting).

'बोकरत'का अर्थ जानने से पहले देखें 'बोकरइया' शब्‍द को जिसका अर्थ भी वमन करने वाला ही है. 'बोकरना' का भी अर्थ इसी के नजदीक है बो-बो शब्द के साथ खाए हुए अनाज को मुह के रास्ते पेट बाहर से निकालना. यहॉं प्रयुक्‍त मुहावरे में बोकरत बो-बो की आवाज के साथ वमन के लिए है.

छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द 'भक' के साथ 'वा' जोडने पर बनने वाले शब्‍द का अर्थ है भोला, मूर्ख. इसी में 'वाना' जोड़ने पर हुआ मूर्खता करना. बहुत अधिक के लिए एक शब्‍द है 'भक्‍कम'. अब 'भकोसना' के अन्‍य अर्थ देखें काटना, टुकडे टुकडे करना, निगलना, खा जाना, हडप करना, निगलना, जल्दी खाना, डकोसना. शब्‍दकोश शास्‍त्री इसे सकर्मक क्रिया मानते हैं एवं इसे संस्कृत के भक्षण से बना हुआ मानते हैं. छत्‍तीसगढ़ में भक्षण अपभ्रशं से सामान्‍य भोजन क्रिया के बजाए बड़ा बड़ा कौर लेकर जल्दी जल्दी खाने की क्रिया हो गया होगा. उपर आपने देखा कि भक्कम का अर्थ बहुत अधिक से है. इससे मिलते जुलते शब्‍दों में 'भखइया' भक्षण करनेवाला, 'भखई' भक्षण करने की क्रिया, बोलना, 'भखना' भोजन करना, खा जाना आदि है. उपरोक्‍त मुहावरे में प्रयुक्‍त 'भकोसना' जल्‍दी जल्‍दी खाने से ही है.



भिलाई से कमलेश वर्मा जी कहते हैं कि, बोकरना याने बकरना घलोक होथे अऊ कनो बात ल बताए के मन नि रहय तब ले पेट भीतर नई रख सकय तेनो होथे न. अपराधी ल पुलिस के गोंह -गोंह ले मार परीस तहां ले जम्मो ल बोकर दिस .अईसने आय नहीं।

रमाकांत सिंह जी कहते हैं कि, उछरना, छरना के आगे उ प्रत्यय लगाकर बना... और छरत ले मारिस, छर दिस, छरना याने ऊपर का छिलका निकालना होता है. बकबकाना याने ज्यादा बोलना. इसी तरह बोकरना याने खाया पिया सब कुछ बाहर मुह के रास्ते बाहर निकालना. वास्तव में बो याने वमन होता है. भकोसना याने बिना सोचे अतिरिक्त खाना.



आन के खाँड़ा आन के फरी खेदू नांचय बोइर तरी

छत्तीसगढ़ी के इस लोकोक्ति का मतलब है मांगी गई वस्तु पर मजे करना. इस लोकोक्ति में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'आन', 'खाँड़ा', 'फरी' और 'तरी' का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं.

मर्यादा, इज्जत व मान के लिए प्रयुक्त हिन्दी शब्द 'आन' की उत्पत्ति संस्कृत शब्द आणिः से हुई है जिसका अर्थ प्रतिष्ठा है. छत्तीसगढ़ी में भी इसी अर्थ में 'आन' का प्रयोग कभी कभी होता है. संस्कृत के ही अन्य से उत्पन्न छत्तीसगढ़ी शब्द 'आन' सवर्नाम है जिसका अर्थ है अन्य, क्रिया के रूप में इसे 'आने' प्रयोग करते हैं जिसका अभिपाय भी अन्य या दूसरा ही है. अन्य मिलते जुलते शब्दों में 'आनना' जो संस्कृत के 'आनय' से बना प्रतीत होता है - लाना. संस्कृत अपभ्रंश आणक का 'आना' जिसका अर्थ है रूपये का सोलहवां भाग अर्थात छः पैसे. किसी स्थान से वक्ता की ओर आने की क्रिया एवं बुलाने को भी 'आना' कहा जाता है. वृक्ष में फल, फूल आदि का लगने को भी 'आना' कहा जाता है. भाव बढ़ने के लिए 'आना' प्रयोग में आता है. प्रस्तुत लोकोक्ति में 'आन' का अर्थ 'अन्य' है.

छत्तीसगढ़ी संज्ञा शब्द 'खाँड़ा' संस्कृत शब्द खण्ड से बना है, जिसका संस्कृत अभिप्राय है कच्ची शक्कर की डली, मिश्री. इससे परे छत्तीसगढ़ी शब्द 'खाँड़ना' का अर्थ है खण्ड करना, विभाजित करना. विशेषण के रूप में प्रयुक्त 'खाँड़ा' का अर्थ है टूटा हुआ, खंडित. इससे मिलते जुलते शब्दों में 'खाँध' जो संस्कृत के स्कंध से बना है जिसका अर्थ है कंधा, शरीर में गले और बाहुमूल के बीच का भाग. इससे संबधित शब्द युग्मक है 'खाँध आना' जिसका अभिप्राय है बैल भैंसों के कंधे पर सूजन होना, 'खाँध जोरना' यानी मित्र बनाना, 'खाँध धरना' मतलब सहयोग लेना. वृक्ष की डाली को भी 'खाँधा' कहा जाता है. अनाज की मात्रा के लिए प्रयुक्त शब्द है 'खांड़ी', इसे खंडी भी कहते हैं, एक बोरे में बीस काठा होता है. (२० खॉंडी का एक गाड़ा) साबूत व स्थिर के लिए प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द है 'खड़ा'. उपरोक्त कोई भी शब्द प्रस्तुत लोकोक्ति में उपयोग हुए 'खाँड़ा' का अर्थ नहीं कहते, शब्दकोश शास्त्री भी इसपर मौन हैं किन्तु मुखर लोक गीतों में बार बार आल्हा-उदल प्रसंगों में 'खाँड़ा' पखाड़ने की बात आती है अतः 'खाँड़ा' का अर्थ है तलवार. गीतों की बानगी के अनुसार इस शब्द से युद्ध का मैदान, युद्धाभ्यास का मैदान भी प्रितध्वनित होता है.

शब्दकोश शास्त्री 'फर' से 'फरी' बना है यह मानते हैं जो संस्कृत शब्द फलम से बना है जिसका अर्थ है वृक्ष का फल, फसल, पैदावार. छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त 'फर जाना' पशु का गर्भाना भी है. कपड़े कागज के फटने की आवाज को भी 'फर' से अभिव्यक्त किया जाता है. क्रिया विशेषण के तौर पर उपयोग होने पर तेजी से, तीव गति से को 'फर्र' कहा जाता है. सोने चांदी के सिक्के को गूंथ कर गले में पहनने वाले आभूषण के सिक्के को भी 'फर' कहते हैं. 'फर' से बने शब्दों में 'फरई' फलने की क्रिया, 'फरक' यह अरबी शब्द फर्क से बना है जो भेद, अंतर के लिए प्रयोग होता है. दो भाग में विभक्त करने वाले को 'फरकइया' कहा जाता है. इसी का अकमर्क क्रिया 'बात फरकइ' का अर्थ बात आदि का दिशा बदले जाने से है. संस्कृत शब्द स्फुरणम माने फरकना से 'फरकई' बना है जिसका अर्थ शरीर के किसी अंग का फड़कना या स्फुरित होना है. अरबी शब्द फ़रहत, संस्कृत स्फार, प्राकृत फार जिसका अर्थ प्रसन्नता, प्रसन्न, आनंदित, साफ, स्वच्छ. फरी साफ, स्पष्ट, पवित्र है से 'फरियर' बना है.

उपरोक्त कोई भी शब्द प्रस्तुत लोकोक्ति में उपयोग हुए 'फरी' का अर्थ नहीं कहते, शब्दकोश शास्त्री संस्कृत के संज्ञा शब्द फरम से छत्तीसगढ़ी शब्द 'फरी' का निमार्ण बतलाते हैं, जिसका याब्दार्थ है ढ़ाल नामक अस्त्र.

'तरी' का दो अर्थों में प्रयोग होता है एक गोश्त का रस व दूसरा नीचे, अंदर. इससे मिलते जुलते शब्दों का विश्लेषण फिर कभी.

आन (अन्य) के खाँड़ा (तलवार) आन (अन्य) के फरी (ढाल) खेदू नांचय (नाचता है) बोइर (बेर के पेड़) तरी (के नीचे) दूसरे के तलवार और दूसरे के ढाल को लेकर खेदू बेर के पेड़ के नीचे नाच रहा है. भावार्थ है मांगी गई वस्तु पर मजे करना.



अकलतरा से रमाकान्‍त सिंह जी खॉंडी शब्‍द पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि 'धान नापने का गाव का पैमाना कुरो लकड़ी का बना होता है, इससे छोटा पैली जिसमें क्रमशः डेढ़ किलो और १ किलो धान आता है. अब खंडी की करें तो वह २० कुरो को माना जाता है, और 60 कुरो बराबर एक बोरा माना जाता है ऐसी मेरी जानकारी है. नाप को शुरू करते हैं क्रमशः राम एक , दू ................. ओन्सहे १९ और सरा २०... एक ओर बात खांडा दो धारी तलवार जिसे रानी लक्ष्मी बाई ने धारण किया है को कहा जाता है.


हॉं रमाकान्‍त भईया, आपके तरफ 'कुरो' और रायपुर के तरफ 'काठा' शब्‍द प्रचलित है, लकड़ी का कूरो, काठा अब संभवत: लुप्‍त हो रहा है. नाप शुरू करने का क्रम वही है, 'सरा 20' और फिर 'बाढ़े सरा' कहा जाता है. यह बाढ़े सरा उस व्‍यक्ति को ध्‍यान दिलाने के लिए कहा जाता है जो 'रास' के पास सूपा आदि में धान को मुट्ठी में लेकर 'खण्‍डी' की गिनती के अनुसार एक एक कर अलग अलग रखता है, बीस मुट्ठी यानी एक खण्‍डी.. माने बाढे सरा.

ओरवाती के पानी बरेंडी नई चढ़य

छत्‍तीसगढ़ी के इस लोकोक्ति का अर्थ है 'असंभव कार्य संभव नहीं होता'. इस लोकोक्ति में प्रयुक्‍त दो शब्‍दों का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं- ओरवाती और बरेंडी.

'ओरवॉंती' और 'ओरवाती' दोनों एक ही शब्‍द है, यह संस्‍कृत शब्‍द अवार: से बना है जिसका अर्थ है किनारा, छोर, सीमा, सिरा. हिन्‍दी में एक शब्‍द है 'ओलती' जिसका अर्थ है छप्‍पर का वह किनारा जहां से वर्षा का पानी नीचे गिरता है, ओरी. संस्‍कृत और हिन्‍दी के इन्‍हीं शब्‍दों से छत्‍तीसगढ़ी में ओरवाती बना होगा. पालेश्‍वर शर्मा जी 'ओरवाती' का अर्थ झुका हुआ, नीचे लटका हुआ व छप्‍पर का अग्रभाग बतलाते हैं. लोकोक्ति के अनुसार छप्‍पर का अग्रभाग (Eaves, the edge of roof) शब्‍दार्थ सटीक बैठता है, ओरवाती को ओड़वाती भी कहा जाता है.

इससे मिलता एक और छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द है 'ओरिया' जिसका अर्थ है छप्‍पर के पानी को संचित कर एक जगह गिरने के लिए लगाई गई टीने की नाली. 'ओरिया' शब्‍द पितृपक्ष में पितरों को बैठने के लिए गोबर से लीपकर बनाई गई मुडेर के लिए भी प्रयुक्‍त होता है. 'ओरी-ओरी' और 'ओसरी-पारी' जैसे शब्‍द भी इसके करीब के लगते हैं किन्‍तु इन शब्‍दों में क्रमबद्धता का भाव है. क्रमबद्ध या पंक्तिबद्ध करने के लिए एक प्रचलित शब्‍द है 'ओरियाना'. सामानों को थप्‍पी लगाना, फैलाना, बिखेरना के लिए भी इसका प्रयोग होता है, बीती हुई बातों को प्रस्‍तुत करना भी 'ओरियाना' कहा जाता है.

अब देखें 'बरेंडी' का अर्थ, छत्‍तीसगढ़ में मिट्टी के पलस्‍तर वाले घरों के दीवारों को गोबर पानी से लीपने या दीवार के निचले भाग की पुताई करने की क्रिया या भाव को 'बरंडई' कहते हैं. यह फ़ारसी शब्‍द बर (उपर या पर) व संस्‍कृत अंजन (आंजना, पोतना, लीपना) से मिलता है. वह स्‍त्री जिसके पति की मृत्‍यु गौना के पूर्व हो गई हो यानी बाल विधवा को 'बरंडी' कहा जाता है. इन नजदीकी शब्‍दों से उपरोक्‍त लोकोक्ति का अर्थ स्‍पष्‍ट नहीं हो पा रहा है. शब्‍दकोंशें में ढूंढने पर शब्‍दकोश शास्‍त्री कहते हैं कि कुटिया के छाजन का भार वहन करने के लिए लम्‍बाई के बल जगाई जाने वाली मोटी लकड़ी को संस्‍कृत में 'वरंडक' कहा जाता है. कुटिया के छाजन के मध्‍य के उंचे भाग को भी 'वरंडक' कहा जाता है. छत्‍तीसगढ़ी में प्रचलित शब्‍द 'बरेंडी' का अर्थ भी इसी के एकदम नजदीक है, यहॉं कुटिया या घर के छप्‍पर का उंचा स्‍थान 'बरेंडी' है.

लोकोक्ति में प्रयुक्‍त शब्‍द ओरवाती और बरेंडी छप्‍पर से संबंधित हैं, छप्‍पर या छत में पानी का प्रवाह प्राकृतिक नियमों के अनुसार उपर से नीचे की ओर रहता है. अत: पानी का प्रवाह नीचे से उपर की ओर हो ही नहीं सकता.


'ओरिया' वाले टीने की नाली से जुड़ा एक प्रचलित मुहावरा है 'ओरी के छांव होना' जिसका मतलब है अल्‍पकालिक सुख. बरेंडी पर एक और कहावत प्रचलित है 'एड़ी के रीस बरेंडी चढ़ गे' यहॉं क्रोध को ऐड़ी से बरेंडी (सिर) में चढ़ने की बात की जा रही है.

काबर झँपावत हस

छत्तीसगढ़ी के इस कहावत का मतलब है 'खतरा मोल क्यूं लेते हो'. इस कहावत में दो छत्तीसगढ़ी शब्दों को समझना होगा, 'काबर' और 'झँपावत'.

'काबर' शब्द क्रिया विशेषण है जो क्यूं से बना है, अतः 'काबर' का अर्थ है किसिलए. 'काबर' का प्रयोग छत्तीसगढ़ी में समुच्चय बोधक शब्द क्योंकि के लिए भी प्रयुक्त होता है, 'मैं अब जाग नी सकंव काबर कि मोला नींद आवत हे'. इस कहावत में 'काबर' का अर्थ किसिलए से ही है.

'झँपावत' 'झप' का क्रिया विशेषण है जो संस्कृत शब्द 'झम्प' से बना है जिसका अर्थ है 'जल्दी से कूदना, तुरंत, झटपट, शीघ्र' छत्तीसगढ़ी शब्द 'झपकुन' से यही अर्थ प्रतिध्वनित होता है. इसी 'झप' से बना शब्द है 'झंपइया' जिसका अर्थ है टकराने, गिरने या संकट में फंसने वाला. टकराने, गिरने या संकट में फंसने वाली क्रिया के भाव को प्रकट करने वाला शब्द है 'झंपई'. इसी शब्द का क्रिया रूप है 'झंपाना' जिसका मतलब डालना, जान बूझ कर फंसना, गिरना, कूद पड़ना (to fall down, collide) से है.


उपरोक्त शब्दों से मिलते जुलते शब्दों का भी अर्थ देखें. 'झपटई' छीनने की क्रिया, 'झपक' पलक झपकने की क्रिया - समय का परिमाप . काबर के अर्थ से परे 'काबा' का अर्थ है 'दोनों हाथो के घेरे में समाने योग्य' 'काबा भर कांदी - दोनों हाथो के घेरे मे समाने लायक घास', अंग्रेजी शब्द 'हग' जैसा 'काबा में पोटारना'.

चोर ले मोटरा उतियइल (उतयइल)

छत्तीसगढ़ी के इस कहावत का अर्थ है 'वह उतावला होकर काम करता है'. राहुल सिंह जी इसे स्‍पष्‍ट करते हैं - इस तरह कहें कि मोटरा, जिसे चोर को चुरा कर अपने साथ ले जाना है, वह स्‍वयं ही चोर के साथ जाने के लिए चोर से भी अधिक उत्‍साहित है, या इसका अर्थ 'मुद्दई सुस्‍त, गवाह चुस्‍त' जैसा है? संजय जी का कहना है कि पंजाबी भाषा में यह कहावत 'चोर नालों(के मुकाबले) गंड(गांठ\गठरी) काली(उतावला होना)' के रूप में प्रचलित है यानि कि चोर से ज्यादा जल्दी उस गठरी को है, जिसे चोर ले जाना चाहता है.

अब इस शब्दांश में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्दों का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं. इस कहावत में दो शब्द हैं जिसे समझना आवश्यक है जिसके बाद इस कहावत का अर्थ स्पष्ट हो जावेगा.


रमाकांत सिंह जी कहते हैं कि चोर 'चुर' धातु से बना है , * चोरयति * इतय याने यहाँ , उतय याने वहां , रीवां में बोल जाता है . उतयाइल में कोस कोस म पानी बदले , चार कोस म बानी की स्थिति बनती है , जहाँ तक मेरी जानकारी है छत्तीसगढ़ी में वचन , लिंग, संज्ञा , सर्वनाम, विशेषण , क्रिया , आदि की स्थिति स्पष्ट है किन्तु उपसर्ग प्रत्यय आदि को अलग करके बतला पाना कठिन जान पड़ता है इसका मूल शायद बोली की नैसर्गिकता है .

अन्‍य शब्द है 'मोटरा', यह हिन्दी शब्द मोट से बना है जिसका अर्थ है गठरी, गट्ठर. मोटरा का अर्थ भी गठरी, गट्ठर से है. छत्तीसगढ़ी में इससे संबंधित एक वाक्याशं बहुलता से प्रयुक्त होता है 'मोटरा बांधना' जिसका अर्थ है जाने की तैयारी करना, इसके अतिरिक्त संग्रह करने व सामान बांधने की क्रिया को भी 'मोटरा बांधना' कहते हैं. इस प्रकार से मोटरा का अर्थ गठरी, गटठर, बंडल, बोझ से है.


छत्तीसगढ़ी में 'मोटरा' से मिलता जुलता एक शब्द और है, वह है अंग्रेजी शब्द 'मोटर'. यह बस, कार, जीप, ट्रक आदि के लिये प्रयुक्त होता है.

दूसरा शब्द है 'उतियइल' या 'उतयइल', यह विशेषण है व 'उतियइ' से बना है. 'उतियइ' संस्कृत शब्द 'उत' तीव्रता व ई से बना है जिसका विश्लेषण करते हुए शब्दशास्त्री कहते हैं कि यह क्रोध, गतिमान, फेंकना, खाना का भाव अपने आप में छिपाया हुआ है. इनके अनुसार तीव्रता से चलकर किसी वस्तु को ऐसे खाना या फेंकना कि दूसरे को उसके प्रति क्रोध आ जाए. इस प्रकार से मूल अर्थ को अंगीकार करते हुए 'उतियइल' या 'उतयइल' का अर्थ उत्पाती, उपद्रवी या उतावला स्वीकार किया गया है जो व्यवहार में भी है.

इसके अर्थ के करीब के दो शब्द भी देखें, 'उत्ताधुर्रा' जिसे संस्कृत शब्द उत्तर धुरीण का अपभ्रंश माना जाता है अर्थ है अग्रणी. व्यवहार में यह जल्दी जल्दी, अत्यिधक तीव्रता के लिए प्रयुक्त होता है. 'उतेरा' खड़ी फसल वाले गीले खेत में दूसरी फसल के लिए बीज छिड़कर बोने की विधि.


छत्तीसगढ़ी में खासकर बच्चों को प्रेम से एक गाली दी जाती है 'उजबक' जिसका मतलब है 'मूर्ख'.

अम्मट ले निकल के चुर्रूक मा परगे

छत्तीसगढ़ी में यह मुहावरा (Phrase) हिन्दी के आसमान से गिरे खजूर में अटके (Falling from the sky stuck in palm) वाले मुहावरे के स्थान पर प्रयुक्त होता है. इस शब्दांश का अर्थ समझने के लिए इसमें प्रयुक्त दो शब्दों पर चर्चा करना आवश्यक है 'अम्मट' एवं 'चुर्रूक'

अम्मट का अर्थ जानने से पहले 'अमटइन' को जाने अमटइन का अर्थ है 'अमटाना' यानी खट्टापन (Sourness), खटाई (Sour) यह संज्ञा के रूप में प्रयुक्त होता है, जिसका विशेषण है 'अम्मट' : खट्टा या खट्टे स्वाद वाला. इससे मिलते जुलते अन्‍य शब्‍दों पर भी नजर डालते हैं. 'अमटहा' के साथ 'हू' जोड़ने पर विशेषण 'अमटहू' बनता है. इसका अकर्मक क्रिया खट्टा होना व सकर्मक क्रिया खट्टा करना है(
अमटाना). बिलासपुर व खाल्हे राज में 'अमटावल' शब्द प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ है खट्टा किया हुआ या जो खट्टा हो गया है. अम्मट या अम्मठ पर चर्चा करते हुए अम्‍मटहा साग 'अमारी' शब्द पर भी ध्यान जाता है जो छत्तीसगढ़ का प्रिय खट्टा साग है, अमारी पटसन प्रजाति का पौधा है जिसके पत्‍ते व फूल को भाजी के रूप में सब्‍जी के लिए पकाया जाता है. अम्‍मट से स्त्रीलिंग संज्ञा 'अमली' है जिसका अर्थ है इमली, इमली का पेड़ व फल जिसकी अनुभूति मुह में पानी ला देता है. इस प्रकार 'अम्‍मट' या 'अम्‍मठ' का अर्थ अत्‍यधिक खट्टेपन से है.

अब आए 'चुर्रूक' पर शब्दकोशों में चुर्रूक का अर्थ खोजने पर ज्ञात होता है कि 'चुर्रूक' चरक से बना है जो चरकना क्रिया का बोध कराता है, जिसका मतलब है झल्लाने वाला या चिढ़ने वाला. मुहावरे के अनुसार इससे मिलते जुलते और शब्‍दों को देखें तो 'चर' का अर्थ है प्रथा, बड़ों के द्वारा निर्वहित प्रथा का अभ्यास कराना. 'चरकना' का अर्थ कपड़े आदि का चर की आवाज के साथ फटना, दरार पड़ना, टूटना, झल्लाना, चिढ़ना, दरकना. चरकने के लिए एक और शब्‍द प्रयुक्‍त होता है. 'चर्रा' मतलब दरार, फटन. इसी कड़ी में आगे 'चर्राना' चर-चर शब्द होना, चोट या आघात वाले स्थान पर दर्द और खुजली होना (चहचहाना), तीव्र इच्छा होना.  ब्‍लॉ.. ब्‍लॉ..  किन्‍तु मुहावरे का शब्‍दार्थ इससे स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा है.

'चर्रा' एक खेल का नाम भी है, जिसमें आठ नौ लोग विरोधियों को चकमा देकर दौंड़ दौंड़ कर आगे बढ़ते जाते हैं और वापस आते समय बीच तक पंहुचते हुए अपने साथियों को वापस लेते हैं. पेड़ के तने की कड़ी छाल, दरार, कच्चे आमों का अचार को भी 'चर्रा' कहा जाता है. दूध नापने के छोटे बर्तन, लुटिया को 'चरू' कहा जाता है. कुछ और शब्‍दों को लें, चारा रखने की बड़ी टोकरी को 'चेरिहा' कहा जाता है. चेरिहा व्‍यक्ति का नाम भी रखा जाता है. हाथ का कड़ा, पैर में पहनने का पीतल का आभूषण विशेष को 'चुरू' 'चूरा' कहा जाता है. चुल्लू, हाथों के संपुट, अंजलि को 'चुरूआ' कहते हैं. एक शब्‍द और 'चुर्रा' जिसका अर्थ स्त्रवित धार है. एक शब्‍द है 'चुरे' जिसका अर्थ है पका हुआ.
ब्‍लॉ.. ब्‍लॉ..  उपरोक्‍त सभी शब्‍दों के गूढार्थों या युग्‍मक से भी 'चुर्रूक' स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा है.

शब्‍दों के सफर व व्‍याकरण की शास्‍त्रीयता से परे छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द 'चुरूक' का अर्थ है खट्टा या थोड़ा सा. मुहावरा आसामान की विशाल उंचाइयों के बाद कम उंचाई वाले खजूर का आभास करा रहा है. अम्‍मट (अत्‍यधिक खट्टेपन) से निकल कर चुर्रूक (सामान्‍य खट्टेपन) में पड़ना.

फेसबुक कमेंट में पाटन के मुनेन्द्र बिसेन जी इसी मुहावरे के समानअर्थी एक मुहावरा और सुझा रहे हैं 'गिधवा ल बांचे कौव्वा खाए'

चलते चलते : छत्‍तीसगढ़ में दुश्चरिता का बोध कराने वाली यह एक गाली है 'चरकट' जो बना है संस्‍कृत के 'चर' (चारा चरना, संभोग करना) और 'कट' (जाना) से. किन्‍तु चारा चरने जाना या संभोग करने जाना के बजाए 'चरकट' का अलग अर्थ छत्‍तीसगढ़ में प्रचलित है. परपुरूष गमिनी, वेश्या, दुश्चरिता को 'चरकट' कहा जाता है. इस पर ब्‍लॉ. ललित शर्मा जी कहते हैं कि "चरकट" का प्रयोग दो सहेलियों के बीच अंतरंगता प्रगट करने के लिए भी होता है तथा क्रोध्र में भी। " सुन ना चरकट" …… :) ललित जी की टिप्‍पणी को पढ़ते हुए डॉ.निर्मल साहू जी का विचार है कि दो सहेलियों के बीच जो 'चरकट' प्रयोग में आता है वह प्रेम में ही होता है, क्रोध में तो तलवार चल जाए....


छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ : (II)

पिछले पोस्‍ट का शेष ..
 
नवोदित राज्‍य छत्‍तीसगढ़ में तेजी से हो रहे विकास की आड़ में मानवता विनाश की ओर अग्रसर होती जा रही है। बढ़ते औद्यौगीकरण के कारण खेती के लिए भूमि का रकबा कम से कमतर हो रहा है, नदियॉं व तालाबें बेंची जा रही है। कृषि आधारित जीवनचर्या वाले रहवासियों की पीड़ा संग्रह में कुछ इस तरह से अभिव्‍यक्ति पाती है –

का गोठियावौं 'कौसल' मैं हर भुइयॉं के दुखपीरा,
भूख मरत हे खेती खुद अउ तरिया मरे पियासा.


देश में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार और भूमण्‍डलीकरण की विकराल समस्‍या पर मुकुंद जी कहते हैं कि नाली और पुल बनाने का पैसा साहब, बाबू और नेता लोग सब मिलजुल के खा गए, भ्रष्‍टाचार ऐसा कि गायों के चारे को भी लोग खा गए -

साहेब, बाबू, नेता जुरमिल, नाली पुलिया तक ला खा डारिन,
गरूवा मन बर काहीं नइये, मनखे सब्बो चारा चरगे.


संग्रह में गज़लकार ना केवल विरोध और विद्रोह‍ को मुखर स्‍वर देता है वरन वह जन में विश्‍वास भी जगाता है। परिस्थितियों का सामना करते हुए उन्‍हें हिम्‍मत रखने का हौसला देता है। मुकुंद कौशल जी ठेठ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों में गजब का बिम्‍ब उकेरते हुए ‘अल्‍लर’ और ‘अइलावत’ जैसे मिलते जुलते शब्‍दों के बीच का अंतर स्‍पष्‍ट करते हैं वहीं ‘कड़हा’ का सटीक प्रयोग करते हैं -

नवा बछर मा मया दया के सुघ्घर दोहा पारौ जी,
अंधियारी ला टारे खातिर मन के दीया बारौ जी.
अल्लर परगे मन के बिरवा हॉंसी तक अइलावत हे,
अइसन कड़हा दिन बादर मा हिम्मत ला झन हारौ जी.


सेनापति के ऋतु वर्णन में प्रयुक्‍त बिम्‍बों अलंकारों जैसे प्रयोग करते हुए गज़लकार नें समय को सुस्‍ताने और समय के अंगड़ाई लेने का सटीक चित्र खींचा हैं। गज़ल में सुबह को सूपा पकड़कर प्रकट होने और किरणों को फैलाने का विवरण ऐसा दर्शित होता है जैसे आंखों के सामने प्रात: सुन्‍दरी क्षितिज में उजाले को धीरे धीरे फैला रही हो -

लागिस होही गजब थकासी, समे घलो सुस्तावत हावै.
मिठलबरा मन चेत के रहिहौ, बेरा हर अंटियावत हावै.
सूपा धरे बिहिनया आ के, किरनन ला छरियावत हावै.

मुकुद जी शब्‍दों के जादूगर हैं, वे गज़लों में गांवों के विलुप्‍त होते देशज शब्‍दों और कृषि संबंधी उपकरणों को जीवंत करते हुए धान कूटने के ग्रामीण यंत्र ‘ढेंकी’ को शब्‍दों में ही समझा देते हैं। इसी की आगे की पंक्तियों में वे समाज में व्‍याप्‍त स्‍वार्थपरायणता पर तीखा प्रहार करते हुए कहते हैं कि स्‍वार्थी का पात्र भर गया फिर उसे किसी और के प्‍यास की चिंता कहॉं होती है -

कॉंड़ बॅंधाये डोरी धर के, ढेंकी मा उत्त धुर्रा,
ओरम ओरम के अपन धान ला छरिन तहॉं ले जै भगवान.
काय फिकर हे, का चिन्ता हे जनता भलुन पियास मरै,
सबले आघू अपन बगौना, भरिन तहॉं ले जै भगवान.


गरीबी, भुखमरी, महगाई और बेरोजगारी से त्रस्‍त जनता को अब वर्तमान समय का भरोसा नहीं रहा चारो ओर लूटने और नोंचने वाले बैठे हैं। विडंबना ऐसी है कि उनके घर का दीपक बुझ जाता है क्‍योंकि उनके हिस्‍से के उजाले को भी लोग हड़प ले रहे हैं। सीमित संसाधनों से जीने को मजबूर गरीबों के लिए सुख सिर्फ स्‍वप्‍न है , उनका अस्तित्‍व अब स्‍वप्‍न से ज्‍यादा भारी हो गया है -

इन्कर अंधियारी कुरिया के चिमनी घलो बुता जाथै,
उन पोगराए हें अंजोर ला ये कइसन गुन्ताड़ा हे.
पंचम म चिचियावै कौंवा गदहा रेंकै ध्इवत मा,
धरे टिमटिमी बिलई बइठगे, कोलिहा धरे नंगाड़ा हे.
फटहा अंचरा मा जोरत हें जेमन हरियर सपना ला,
उन्कर सपना मन ले कतको गरू त उन्कर हाड़ा हे.


सरकारी भ्रष्‍टाचार के चलते अब परिपाटी चल पड़ी है कि कागजों में ही नाली खुदते हैं, सड़क बनते हैं और पाट दिये जाते हैं, पैसे बांट लिये जाते हैं। कष्‍ट को झेल लेने के बाद उसका सरकारी हल भेजा जाता है। जनता ये सब देख रही है कि कैसे उन्‍हीं के हथियारों से उनका दमन किया जा रहा है-

पहिली गड्ढा खोदिस अउ पाटत हे,
बितिस हे, बरसात त खुमरी बांटत हे.
अंधरा नो हन सबला देखत हन 'कौसल',
हमरे टंगिया ले वो हमला काटत हे.


छत्‍तीसगढि़या लोगों के मूल स्‍वभाव को व्‍यक्‍त करते हुए कौशल जी बहुत सधा शब्‍दबाण छोड़ते हैं, सीधा मनुष्‍य अपने सुख और दुख का वर्णन खोल कर सहज रूप से बता देता हैं जबकि मक्‍खन चुपड़ी बात करने वाले बोलते भले मीठे हैं किन्‍तु झूठे होते हैं -

सिधवा मनखे सुख अउ दुख ला, फरिया के गोठिया देथे,
लेवना चुपरे कस गोठियावै, तेहर मिठलबरा होथे.

अंधाधुंध पश्चिमी अनुकरण और फैशन के पीछे भागते समाज पर गज़लकार की चिंता देखिये कि मनुष्‍य कपड़े दर कपड़े उतार रहा है, लक्षण तो ऐसे दीख रहे हैं जैसे कल समूची मानवता पशुवत हो जायेगी -

ओन्हा हेरत लोगन मन के लच्छन ला अब का कहिबे,
काल मवेसी कस हो जाहीं, मनखे तक मैं जानत हौं.
 
मुकुन्‍द जी की अपनी गज़ल के मूल भाव प्रेम में कहर बरपाते हैं। प्रेमी के हृदय से उठते भावों का वे सुन्‍दर चित्रण इस संग्रह में करते हैं। प्रेम के अंकुरण और आरंभिक चरण की आकुलता के बिम्‍ब के रूप में ‘मडि़याने’ (छोटे बच्‍चे के के घुटने के बल चलने) का प्रयोग गज़लकार के शब्‍दों के सटीक चयन को दर्शाता है। बच्‍चा जब पहली पहल घुटनों के बल चलना सीखता है तब उसकी चपलता की कल्‍पना कीजिये, ऐसा ही प्रेम –

आवत जावत देख देख के, जबले वो हांसिस तबले,
मन मा ओकर रूप अमागै दया मया मड़ियावत हे.
पल पल छिन छिन ओखरे चेहरा, आंखी म तंएरत रहिथे,
कउनो वोला कहिदौ वोहर हमला गजब सुहावत हे.


देशज शब्‍दों से सौंदर्य वर्णन करने का ढ़ग मुकुंद जी का निराला है, प्रेयसी के कमर को अरहर के झाड़ जैसे सुलभ बिम्‍ब से स्‍पष्‍ट करते हैं। लाजवंती प्रेयसी के बार बार आंचल से अपने शरीर को ढकने पर कहते हैं कि क्‍या तुमने आंचल में कोई धन छिपाया है। नारी का सौंदर्य और उसका देह धन ही तो है जिसे वह हमेश ‘लुकाए’ रखती है, यही मर्यादा है और यही मर्यादित सौंदर्य –

राहेर कस लचकत हे कनिहा, रेंगत हावस हिरनी कस,
देंह भला अइसन अलकरहा, लचक कहां ले पाए हवै.
देंह ला वोहर घेरी बेरी अंचरा ले तोपत रहिथे,
अंचरा भीतर जानो मानो चंदा सूरूज लुकाए हवै.


छत्‍तीसगढ़ में गहरे से पैठ गए नक्‍सलवाद पर भी गज़लकार की चिंता संग्रह में नजर आती है। चिंता यह कि कितने प्रयास कर लिये गए किन्‍तु नक्‍सलवाद से मुक्ति हेतु किसी का प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा है-

बइठे बइठे सोंचे भर ले माटी भुरभर नइ होवै,
खेत म जब तक घेरी बेरी नॉंगर बक्खर चलै नहीं.
नक्सलवादी भूत नरी ला चपके हे छत्तीसगढ़ के,
कतको बइगा गुनियॉं फूंकिन, कखरो मन्तर चलै नहीं.


सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते हुए गज़लकार विधवा की दुख पर भी प्रकाश डालते हैं -

आज ले महकत हे जेकर देंह म हरदी,
वो नवा बेवा, के घर संसार खातिर सोंच.


जुच्छा चूरी होगे जब ले एक गरीबिन मोटियारी,
कतको जिन के मन वो दिन ले, ओकर बर मइलाए हवै.


दुखियों की सेवा और जनता के लिए काम करने को प्रेरित करती गज़लें कहती हैं कि किसी दूसरों के खातिर दुख झेलो तो कोई बात बने। मुकुन्‍द जी यहां भी ठेठ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द ‘करो’ का उल्‍लेख करते हैं। करोना ऐसे सुख को देना है जिसके लिए देने वाले को पीड़ा हो-

डबकत आंसू ले कब्भू तो, तैहर हाथ अचो के देख,
दुनिया खातिर होम करत तैं, अपन हाथ जरो के देख.
तैं का समझस, तैं का जानस, मन के पीरा का होथे,
मोर साहीं एक्को दिन तैं अपनो जीव चुरो के देख.
जीना मरना काला कहिथे, का समझावौं तोला मैं,
कखरो खातिर तैंहर 'कौसल' जिउ ला अपन करो के देख.


दुख एवं परिस्थितियों के साथ सामजस्‍य रखते हुए भाग्‍य से परे जब मनुष्‍य अपनी ही करनी पर पछताता है तो अंतस से क्रोध उमड़ता है। क्‍योंकि उसे औरों के साथ अपने जीवन की गाड़ी भी को तो खीचनी है-

मनखेमन संग वोहर अपनो जिनगी तक ला तीरत हे,
दुब्बर पातर रिक्सावाले के हंफराई का कहिबे.
चलनी मा जब दूध दुहे त, दोस करम ला का देना,
'कौसल' ला गोहरावत तोरे अस कउवाई का कहिबे.


प्रदेश के मौसम अनुसार यहां बिना वर्षा अकाल की संभावना सदैव बनी रहती है ऐसे में किसानों के लिए बादल का गुस्‍साना बहुत बड़ा दुख है, यद्धपि दुख अंदर अंदर सालता है किन्‍तु आंखें सूखी है-

भीतर भीतर पझरै पीरा, आंखी सुक्खा नदिया हे,
जरगे जम्मो नरई खेत के, बादर हर कठुवाए हवै.


शहरों के चकाचौंध के बीच हम सदैव गांवों के दुख को भूल जाते हैं या फिर अनदेखी करते हैं। असल भारत जब गांवों में बसता है फिर गज़लकार को गांव की चिंता क्‍यूं न हो। ठेठ छत्‍तीसगढ़ी बिम्‍बों में गांव का दुख हरने का प्रयास और उनके दुख और शोषण का अंतहीन पिटारा वो खोलते हैं। ‘टोनही’ स्‍वार्थ और शोषण का ऐसा शब्‍द है जो मनुष्‍य को धीरे धीरे चूसता है-

बॉंध के बइठे हस बम्हरी मा सेंदुर चूरीपाट लिमउ,
दुख पीरा के टोनही मानो गॉंव गॅंवइ ला छोड़ दिही.
धरे कॉंसड़ा उप्पर बइठे तेखर गम ला का पाबे,
जिनगी के गाड़ा ला वोहर कोन दिसा म मोड़ दिही.


जीवन के हर पहलुओं और रंगों को छूते हुए मुकुद जी नें इस संग्रह में एक से एक गज़ल कहे हैं। उनकी गज़लों में वैदिक मंत्रों सी धार एवं प्रभाव है। वो स्‍वयं इन गज़लों को कहने के पीछे के श्रम को इन पंक्तियों में स्‍पष्‍ट करते हैं –

गजब पछीना गार गज़ल के खेत पलोए हे 'कौसल',
आवौ अब तो चेत लगा के नॉंगर जोती बाबू रे.


छत्‍तीसगढ़ी में गज़ल कहने वालों में मुकुंद कौशल जी का नाम अहम है, उन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ी में दो गज़ल संग्रह दिये हैं। उनकी लिखी छत्‍तीसगढ़ी गज़ल विश्‍वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल है, उनकी लेखनी का सौंदर्य और महक सर्वत्र है, चाहे कोई माने या ना माने -

बर पीपर अउ करगा कांदी, मानै चाहे झन मानै,
दुरिहा दुरिहा तक बगरे हे मोर महक मैं जानत हौं.


मुकुन्‍द जी की प्रसिद्धि कोई अचानक उबजी क्रिया नहीं है, उन्‍होंनें काव्‍य की सुदीर्ध सेवा की है। छत्‍तीसगढ़ी गीतों के वो जन गीतकार है, उनके गीत प्रदेश के हर एक व्‍यक्ति के होठों पर गुनगुनाये जाते हैं। उन्‍होंनें अपनी लेखनी को बरसों के अपनी तपस्‍या से तपाया है-

सूरूज ला परघाए खातिर ठाढ़े हे उन,
मैं सूरूज बर रात रात भर जागे हावौं.


कालजयी लोक नाट्य कारी और अन्‍य प्रसिद्ध लोक मंचों के गीतकार के रूप में समादृत मुकुंद कौशल जी का स्‍वाभाव सरल है वे छोटे बड़े सबके प्रिय हैं। गीतों और गज़लों में जितनी उनकी प्रतिष्‍ठा एवं उंचाई साहित्‍य में है उसे सामान्‍य लेखन धर्मी के लिए पाना मुश्किल है फिर भी उनकी सरलता ही तो है कि वे सबको इतना प्रेम करते हैं कि उनकी आदों को अपने जीवन से झटकने के बावजूद नहीं झटकाता बल्कि वे निरंतर वैचारिक फसल उगाते हुए प्रेम बरसाते हैं-

रेंगत रेंगत कहां अमरबे, दंउड़त मा पहंचाबे मोला.
मैं तो तोरे भीतर हावौं, कतका तैं झर्राबे मोला.
'कौशल' बिजहा हौं बिचार के, चल संगी छरियाबे मोला.


उपरोक्‍त उदाहरणों के अतिरिक्‍त बहुत सारे विषयों को छूते हुए मुकुद कौशल जी नें इस संग्रह को पढनीय एवं संग्रहणीय बनाया है। संग्रहित गज़लें शब्‍द के अनुशासन से बंधी हुई मूल अदबी अंदाज से कही गई हैं। पारंपरिक नियमानुशासन की जड़ता के साथ ही इन गज़लों में गेयता, लयबद्धता व स्‍वाभाविक गतिमयता नें इसे दमदार बनाया है। इन गज़लों में मुकुन्‍द कौशल जी नें लोक-जीवन की अनुभूति, सौंदर्य-बोध, प्रकृत्ति, और मानवीय मूल्‍यों को अभिव्‍यक्ति देते हुए लोक-जीवन के प्रतीकों और बिंबों को उकेरते हुए अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बना दिया है। कुल मिलाकर मुकुंद जी नें इस संग्रह में अपने अनुभवों को गज़ल का रूप दिया है बकौल दुष्यन्त कुमार - ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वो गज़ल आप को सुनाता हूं।‘

संजीव तिवारी

आंचलिक भाषा का सर्वश्रेष्‍ठ गज़ल संग्रह ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ (I)

प्रादेशिक भाषाओं में गज़ल कहने के समक्ष चुनौतियों को स्‍वीकार करते हुए मनोज भावुक ने जब भोजपुरी में गज़ल संग्रह प्रकाशित करवाया और यह संग्रह  मित्र शैलेष भारतवासी के हिन्‍द युग्‍म से प्रकाशित हुआ तब तक मैं इस पर गंभीर नहीं था। सन् 2006 के लिए जब मनोज भावुक के इस संग्रह को भारतीय भाषा परिषद के पुरस्‍कारों के लिए चुना गया तब खुशी हुई। इस बीच में मनीष कुमार जी नें उस संग्रह के गज़लों पर दो तीन समीक्षात्‍मक आलेख लिखे और फिर बहुत सारे भोजपुरिया मित्रों नें समवेत स्‍वर में उस संग्रह के ठेठ शब्‍दों और माधुर्य पर इंटरनेट में बीसियों पोस्‍ट लिखे। इससे मेरा छत्‍तीसगढि़या मन उत्‍साह से भर गया और मैंनें भी छत्‍तीसगढ़ी भाषा में लिखे गए गज़लों को अपने वेब मैग्‍जीन गुरतुर गोठ डॉट काम में क्रमश: डालना आरंभ किया जिसमें जनकवि मुकुन्‍द कौशल जी के पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी गज़लों को भी सामिल किया गया । इसी क्रम में डॉ.सुधीर शर्मा जी से सलाह प्राप्‍त करने पर ज्ञात हुआ कि मुकुन्‍द कौशल जी की गज़ल विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में है और इनकी एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुकी है। सहृदय मुकुंद जी से कुछ दिन बाद मुलाकात हुई, गज़लों पर लम्‍बी बातचीत हुई और गुरतुर गोठ डॉट कॉम के लिए गज़लों का खजाना मिल गया। मैं सदैव छत्‍तीसगढ़ और छत्‍तीसगढ़ी के प्रति आत्‍ममुग्‍ध रहा हूं, मुझे लगा हिन्‍दी के अन्‍य बोली भाषा में लिखे गज़लों में छत्‍तीसगढ़ी गज़ले सर्वश्रेष्‍ठ हैं। और यह सर्वविदित सत्‍य है कि हिन्‍दी से इतर अन्‍य बोली भाषाओं की गज़लों में में मुकुंद कौशल जी नें जो छत्‍तीसगढ़ी में गज़ल कहे हैं उसका स्‍थान सर्वोच्‍च है।

छत्‍तीसगढ़ी में गज़ल का आगाज और मुकुंद कौशल जी की दमदार उपस्थिति उनके पहले संग्रह ‘छत्‍तीसगढ़ी गज़ल’ से ही सिद्ध हो चुकी थी। हिन्‍दी के बाद प्रादेशिक भाषाओं में भी हृदय के तार को झंकृत कर देने वाले एवं शांत लहरों में भी तूफान उठाने की क्षमता रखने वाले शेर कहे गए और गज़लों का क्रम आरम्‍भ हुआ। लाला जगदलपुरी के अदबी अनुशासन में कसे गज़लों की श्रृंखला को मुकुन्‍द कौशल जी नें विस्‍तृत किया। छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य में गज़ल को एक अलग विधा के रूप में आपने पल्‍लवित किया। ‘छत्‍तीसगढ़ी गज़ल’ संग्रह के प्रकाशन एवं तदनंतर उसके समीक्षा ग्रंथ के प्रकाशन नें यह सिद्ध कर दिया कि छत्‍तीसगढ़ी में गज़ल को साधने वालों में मुकुंद कौशल जी शीर्ष पर हैं। जन गीतकार मुकुद कौशल जी नें छत्‍तीसगढ़ी गज़लों को यह मकाम कैसे दिया, यह उनके सुदीर्घ अनुभव, सतत रचनाशीलता और छत्‍तीसगढ़ की सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं में गहरा जुड़ाव का फल है। मुकुंद कौशल जी नें छत्‍तीसगढ़ को एक से एक लोकप्रिय गीत दिए जो अब जन गीत के रूप में स्‍थापित हैं। उन्‍होंनें हिन्‍दी में पहले गज़ल को साधा, हिन्‍दी में भी उनके गज़ल संग्रह आये, और उनके हिन्‍दी गज़ल संग्रहों को साहित्‍य में विशेष स्‍थान मिला। उन्‍होंनें गज़ल को साधा और उर्दू अदब के सांचे में छत्‍तीसगढ़ी भाव व बिम्‍ब को शब्‍द दिया। यही कारण है कि समकालीन अन्‍य छत्‍तीसगढ़ी गज़लकारों में मुकुंद कौशल जी का एक अलग और शीर्ष स्‍थान है।

छत्‍तीसगढ़ी गज़लों की श्रृंखला में मुकंद कौशल जी का दूसरा गज़ल संग्रह ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ जब मिला तो आनंदित होते हुए आरंभ से अंत तक बुदबुदाते हुए एक बैठकी में ही पढ़ गया। कौशल जी नें इस संग्रह में छोटी और बड़ी बहर की गज़लों का बेजोड़ गुलशन रचाया है। छत्‍तीसगढ़ की आत्‍मा और वर्तमान परिवेश को इसमें शब्‍द मिले हैं। गज़लों में भावनाओं की गहराई, सौंदर्य और प्रेम की भाषा देशज ठेठ शब्‍दों के माधुर्य के साथ प्रस्‍तुत हुआ है। गीत लिखने वाले कौशल जी जन के स्‍पंदन के कवि हैं, उनकी संवेदना इस संग्रह के गज़लों में मुखरित हुई है। संग्रहित गज़लों में छत्‍तीसगढ़ का कस्‍बाई और ग्रामीण समाज बार बार आंखों के सामने आता है, उनके दुख दर्द, उनकी परम्‍पराओं पर होते प्रहार आदि इत्‍यादि बहरों में डूबते उतराते हैं।

इस संग्रह के प्रत्‍येक गज़ल और शेर अपने भावार्थों में विशालता लिए हुए प्रस्‍तुत हुए हैं। शब्‍दों में अंर्तनिहित गूढार्थ व्‍यवस्‍था की कलई उधेड़ता है और होट स्‍वयं उन शेरों को बुदबुदाने लगते हैं। इस संग्रह के जो अंश मुझे बेहद प्रभावित कर रहे हैं उनमें से कुछ का उल्‍लेख मैं करना चाहूंगा, जिन्‍हें मैंनें जिस अर्थों में समझा और मेरे हृदय नें अंगीकार किया - क्रमश: ...

संजीव तिवारी

चेरिहा के पेट म पानी नइ पचय


छत्तीसगढ़ी के इस मुहावरे का अर्थ है चुगलखोर के पेट में बात नहीं पचती. इस मुहावरे में जिन छत्तीसगढ़ी शब्दों का प्रयोग हुआ हैं उनमें से 'चेरिहा' को छोड़कर अन्य शब्दों का अर्थ हिन्दी भाषी समझ ही गए होंगें.

छत्तीसगढ़ी शब्द 'चेरिहा' बना है 'चेरि' और 'हा' से. शब्दकोश शास्त्री 'चेर' को संस्कृत शब्द 'चोलक:' से अपभ्रंश मानते हैं जिसका अर्थ है छाल. छत्तीसगढ़ी में आम की गुठली को 'चेर' कहा जाता है, जिसके अनुसार से 'चेर' का अर्थ कवच, तह, पर्त से है. इस संबंध में एक और मुहावरा छत्तीसगढ़ी में बोला जाता है 'चेर के चेर' (पर्त दर पर्त). इस प्रकार 'चेरिहा' मतलब कड़ा पन लिए. जिस आम में गूदा कम हो एवं उसकी गुठली बड़ी हो या उसका पर्त कड़ा हो तो उसे 'चेरिहा आमा' कहा जाता है. फल सब्जियों के उपरी पर्त जब कड़ा हो जाए तो उसे इसी कारण 'चेर्राना' कहते हैं.

रामचरित मानस में मंथरा प्रसंग में तुलसीदास जी नें कई बार 'चेरि' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ वहॉं परिचारिका या सहायिका से है. मानव सभ्यता के विकास का अध्ययन करने वाले 'चेरि' नाम के द्रविड़ समूह का उल्लेख करते हैं और उन्हें नाग वंशियों से संबंधित बतलाते हैं.

उपर हुए बकबक में 'चेरि' और 'चेरिहा' का अर्थ उपरोक्त मुहावरे में खोजें तो फिट नहीं बैठता. तो क्या छत्तीसगढ़ी शब्द 'चेरिहा' का दो अलग अलग अर्थ है, हॉं. छत्तीसगढ़ी शब्द 'चेरि' का अर्थ है 'चारी', निंदा, अपयश. 'चेरिहा' मतलब 'चारी करइया', निंदा करने वाला, अपयश फैलाने वाला, खोद खोद कर पूछने वाला, चुगलखोर.

अलकरहा के घाव अउ ससुर के बैदी

छत्तीसगढ़ी में कई ऐसे मजेदार शब्द हैं जिसका प्रयोग छत्तीसगढ़ के हिन्दी भाषी लोग भी कभी कभी करते हैं और उस शब्द का आनंद लेते हैं. इनमें से कुछ को इनका अर्थ पता होता है तो कुछ लोग बिना अर्थ जाने उस शब्द के उच्चारण मात्र से अपने आप को छत्तीसगढ़िया मान मजे लेते हैं. सोशल नेटवर्किंग साईटों में भी ऐसे शब्दों का बहुधा प्रयोग होते आप देख सकते हैं. ऐसे शब्दों में एक छत्तीसगढ़ी शब्द है 'अलकरहा'

'अलकरहा गोठियायेस जी!' (बेढंगा बात किया आपने) 'अलकरहा मारिस गा!' (अनपेक्षित मारा यार) 'अलकरहा हस जी तैं ह!' (बेढंगे हो जी तुम) का प्रयोग छत्तीसगढ़ी में होता है. शब्दकोश शास्त्री बतलाते हैं कि यह शब्द विशेषण हैं जो अलकर के साथ 'हा' प्रत्यय लगकर बना है. शब्दार्थ है अनपेक्षित, बेढंगा,बेतुका (Awkward, Absurd).

अब आते हैं अलकर शब्द पर क्योंकि अलकरहा इसी से बना है. शब्दकोश शास्त्री इसे संज्ञा मानते हैं और इसका प्रयोग स्त्रीलिंग की भांति करते हैं. 'अल' को अलगाव से जोड़ते हुए 'रोकना या दूर रखना' के साथ 'कर' मतलब 'पास' को मिलाकर 'अपने पास का ऐसा अंग जिसे छिपाया गया हो' से बताते हैं जिसका सीधा मतलब है शरीर का वह अंग जिसे छिपा कर रखा जाता है, गुप्तांग. सकरी जगह, नाजुक स्थान. अटपटा, दुस्सह, कष्टसाध्य, कष्टदायक, कष्ट, मुश्किल, असुविधापूर्ण. (Uncomfortable, Inconvenient, Narrow space) 'अलकर होथे जी' ( जगह सकरा हो रहा है, बैठने की जगह कम होने पर बोला जाता है) 'अलकर लागत हावय' (अटपटा लग रहा है, खासकर ज्यादा खाना खा लेने के बाद यह बोला जाता है) 'अलकर म घाव होगे' (नाजुक स्थान या गुप्तांग में घाव हुआ है). 

इन दोनों शब्दों के प्रयोग के साथ एक लोकोक्ति /हाना भी है जो बहुत मजेदार है 'अलकरहा के घाव अउ ससुर के बैदी' (बहू के गुप्तांग में घाव और ससुर के वैद्य होने का कष्ट). बहु के दुख की चिंता करते हुए आप कमेंटिया दीजिए और हम अगले किसी लोकप्रिय शब्द के लिए पोस्ट ठेलने की तैयारी करते हैं.

फसलों, पशुओं और दीपों के साथ उत्साह का पर्व दीपावली

भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार कार्तिक महीने में दीपों के उत्सव का त्यौहार दीपावली संपूर्ण भारत में मनाई जाती है. पत्र—पत्रिकायें, शुभकामना संदेश दीप और लक्ष्मी के तत्सम तद्भव शब्दों के लच्छेदार वाक्यांशों से भर जाते है. आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, क्योंकि यह हमारा महत्वपूर्ण त्यौहार जो है. अलग अलग स्थानों और आख्यानों में इसे मनाने के पीछे कारण जो भी रहे हों किन्तु सभी का केन्द्र धन, आनन्द और दीप से है. परम्पराओं में जन के लिए धन का मूल अर्थ धान्य से है जो हमारे देश का मूल है. लम्बे इंतजार और कठिन श्रम के उपरांत धान्य जब हमारे घर में आये तो उत्साह तो निश्चित है, उसके स्वागत में दीप जलाना हमारी परम्परा है. इस त्यौहार की परिकल्पना इसी से आगे बढ़ती है, कल्पना कीजिये ऐसे समय की जब रौशनी का माध्यम सिर्फ दीप रहा होगा. अमावस की रात को अनगिनत दीप जब जल उठे होंगें, जन स्वाभाविक रूप से नाच उठा होगा.

श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी. चाहे उनका जन शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के विरूद्ध. जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है.

कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण पशुओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है. यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है. इसी धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं. दीप और धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह जब इकट्ठा किया जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके उपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद धान की नपाई होती है. यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप प्रतीक है, राह दिखाता है.

प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन की आवश्यकता पड़ती है. बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है. पशुओं के कोठे लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है. कोठा सहित पूरे डीह डोंगर यानी गांव के हर जगह दीपक जलाया जाता है.

छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह ‘दियारी’ खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है. परंपरानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहां जाकर गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता हैं, पशुपालकों के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है. दूसरे दिन बैलों को लाल टीका लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है. बाद में घर की महिलायें चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है. फलस, अन्न और पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त एश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी है. इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में लाला जगदलपुरी की एक हल्‍बी गीत ‘उडी गला चेडे’ प्रासंगिक है – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्‍ता धान के पायते रला/केडे सुन्‍दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘

लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्‍दर गौरैया आई, और उसने दोस्‍ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्‍दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्‍ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्‍मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्‍या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्‍ट भाग से गौरैया को क्‍या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्‍ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में।

उत्सव के उत्साह को निरंतर रखने की जन सोंच भी गजब की है वह देवारी के बाद होरी के इंतजार में आनंदित होता है. दूसरे सेला के लिए उड चलता है. यादवों के बीच प्रचलित एक लोक दोहा देखें आवत देवारी लहुर लईया, जावत देवारी बड़ दूर/ जा जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावे धूर. यानी दिवाली के त्यौहार का महत्व बहुत है, उसके लिए हम उतावले रहते हैं और यह कब आके चली जाती है पता ही नहीं चलता, हम साल भर इसका इंतजार करते हैं. दीपावली अब तुम विदा लो क्योंकि अब हमारी स्मृत्तियों में फागुन को धूल उडाने दो. फिर अगले साल आयेगी दीपावली और हम अपनी प्राणदायी फसलों, पशुओं और दीपों की कल्पना कागजों में करेंगें.

संजीव तिवारी

चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा

आज सुबह समाचार पत्र पढ़ते हुए कानों में बरसों पहले सुनी स्वर लहरियॉं पड़ी.ध्यान स्वर की ओर केन्द्रित किया, बचपन में गांव के दिन याद आ गए. धान कटने के बाद गांवों में खुशनुमा ठंड पसर जाती है और सुबह ‘गोरसी’ की गरमी के सहारे बच्‍चे ठंड का सामना करते हैं. ऐसे ही मौसमों में सूर्य की पहली किरण के साथ गली से आती कभी एकल तो कभी दो तीन व्यक्तियों के कर्णप्रिय कोरस गान की ओर कान खड़े हो जाते. ‘गोरसी’ से उठकर दरवाजे तक जाने पर घुंघरू लगे करताल या खंझरी के मिश्रित सुर से साक्षात्‍कार होता. घर के द्वार पर सर्वांग धवल श्वेत वस्त्र में शोभित एक बुजुर्ग व्‍यक्ति उसके साथ दो युवा नजर आते. बुजुर्ग के सिर पर पीतल का मुकुट भगवान जगन्नाथ मंदिर की छोटी प्रतिकृति के रूप में हिलता रहता. वे कृष्‍ण जन्‍म से लेकर कंस वध तक के विभिन्‍न प्रसंगों को गीतों में बड़े रोचक ढ़ंग से गाते और खंझरी पर ताल देते, एक के अंतिम छूटी पंक्तियों को दूसरा तत्‍काल उठा लेता फिर कोरस में गान चलता. कथा के पूर्ण होते तक हम दरवाजे पर उन्‍हें देखते व सुनते खड़े रहते. इस बीच घर से नये फसल का धान सूपे में डाल कर उन्‍हें दान में दिया जाता और वे आशीष देते हुए दूसरे घर की ओर प्रस्‍थान करते. स्‍मृतियों को विराम देते हुए बाहर निकल कर देखा, बाजू वाले घर मे एक युवा वही जय गंगान गा रहा था, बुलंद आवाज पूरे कालोनी के सड़कों में गूंज रही थी. उसके वस्त्र ‘रिंगी चिंगी’ थे, किन्तु स्वर और आलाप बचपन में सुने उसी जय गंगान के थे. मन प्रफुल्लित होने लगा, और वह भिक्षा प्राप्त कर मेरे दरवाजे पर आ गया.

श्री कृष्ण मुरारी के जयकारे के साथ उसने अपना गान आरंभ कर दिया. वही कृष्ण जन्म, देवकी, वासुदेव, मथुरा, कंस किन्तु छत्तीसगढ़ी में सुने इस गाथा में जो लय बद्धता रहती है ऐसी अनुभूति नहीं हो रही थी. फिर भी खुशी हुई कि इस परम्परा को कोई तो है जिसने जीवित रखा है क्योंकि अब गांवों में भी जय गंगान गाने वाले नहीं आते.

किताबों के अनुसार एवं इनकी परम्‍पराओं को देखते हुए ये चारण व भाट हैं. छत्‍तीसगढ़ में इन्‍हें बसदेवा या भटरी या राव भाट कहा जाता है, इनमें से कुछ लोग अपने आप को ब्रम्‍ह भट्ट कहते हैं एवं कविवर चंदबरदाई को अपना पूर्वज मानते हैं. चारण परम्‍परा के संबंध में ब्रह्मपुराण का प्रसंग तो स्पष्ट करता है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंश की स्तुति करने लगे (ब्रह्म पु. भूमिखंड, 28.88)। यहीं से चारण सब जगह फैले। महाभारत के बाद भारत में कई स्थानों पर चारण वंश नष्ट हो गया। केवल राजस्थान, गुजरात, कच्छ तथा मालवे में बच रहे। इस प्रकार महाराज पृथु ने देवता चारणों को "मानुष चारण" बना दिया। इसी प्रकार भाटों के संबंध में जनश्रुतियों में भाटों के संबंध में कई प्रचलित बातें कही जाती हैं। इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और विधवा ब्राह्मणी माता से हुई बताई जाती है। ..... वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था। ..... कहते हैं, चारण तो कच्छ में ही हैं पर भाट सर्वत्र पाए जाते हैं .... चारण तो केवल राजपूतों के ही दानपात्र होते हैं, पर भाट सब जातियों से दान लेते हैं। ..... कविराज राव रघुबरप्रसाद द्वारा लिखित और प्रकाशित भट्टाख्यानम् नामक छोटी सी पुस्तक में कवि ने खींचतानी से प्रमाण जुटाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भाट शब्द ब्रह्मभट्ट से बना है, उसे ब्रह्मराव भी कहा गया है। भट्ट जाति की उत्पत्ति का प्रतीक पुरुष ब्रह्मराव था जिसे ब्रह्मा ने यज्ञकुंड से उत्पन्न किया था। भाट स्वयं को कभी सूत, मागध और वंदीजन कहकर अपने को सरस्वतीपुत्र कहने लगते हैं और कभी अग्निकुंड से उद्भूत बताते हैं। (विकिपीडिया)

छत्‍तीसगढ़ के राव भाटों के संबंध में उपरोक्‍त पंक्तियों का जोड़ तोड़ फिट ही नहीं खाता. छत्‍तीसगढ़ से इतर राव भाट वंशावली संकलक व वंशावली गायक के रूप में स्‍थापित हैं और वे इसके एवज में दान प्राप्‍त करते रहे हैं. छत्‍तीसगढ़ के बसदेवा या राव भाट वंशावली गायन नहीं करते थे वरण श्री कृष्‍ण का ही जयगान करते थे. इनके सिर में भगवान जगन्‍नाथ मंदिर पुरी की प्रतिकृति लगी होती है जो इन्‍हें कृष्‍ण भक्‍त सिद्ध करता है. वैसे छत्‍तीसगढ़ की सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं में पुरी के जगन्‍नाथ मंदिर का अहम स्‍थान रहा है इस कारण हो सकता है कि इन्‍होंनें भी इसे अहम आराध्‍य के रूप में सिर में धारण कर लिया हो. छत्‍तीसगढ़ में इन्‍हें बसदेवा कहा जाता है जो मेरी मति के अनुसार 'वासुदेव' का अपभ्रंश हो सकता है. गांवों में इसी समाज के कुछ व्‍यक्ति ज्‍योतिषी के रूप में दान प्राप्‍त करते देखे जाते हैं जिन्‍हें भड्डरी कहा जाता है. छत्‍तीसगढ़ में इनका सम्‍मान महराज के उद्बोधन से ही होता है, यानी स्‍थान ब्राह्मण के बराबर है. छत्‍तीसगढ़ के राव भाटों का मुख्‍य रोजगार चूंकि कृषि है इसलिये उनके द्वारा वेद शास्‍त्रों के अध्‍ययन पर विशेष ध्‍यान नहीं दिया गया होगा और वे सिर्फ पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक रूप से भजन गायन व भिक्षा वृत्ति को अपनी उपजीविका बना लिए होंगें. छत्‍तीसगढ़ी की एक लोक कथा ‘देही तो कपाल का करही गोपाल’ में राव का उल्‍लेख आता है. जिसमें राव के द्वारा दान आश्रित होने एवं ब्राह्मण के भाग्‍यवादी होने का उल्‍लेख आता है.

गांवों में जय गंगान गाने वालों के संबंध में जो जानकारी मिलती हैं वह यह है कि यह परम्परा अब छत्तीसगढ़ में लगभग विलुप्ति के कगार पर है, अब पारंपरिक जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने वाले बसदेवा इसे छोड़ चुके हैं. समाज के उत्तरोत्तर विकास के साथ भिक्षा को वृत्ति या उपवृत्ति बनाना कतई सही नहीं है किन्तु सांस्कृतिक परम्पराओं में जय गंगान की विलुप्ति चिंता का कारण है. अब यह समुदाय जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने का कार्य छोड़ चुका है. पहले इस समुदाय के लोग धान की फसल काट मींज कर घर में लाने के बाद इनका पूरा परिवार छकड़ा गाड़ी में निकल पड़ते थे गांव गांव और अपना डेरा शाम को किसी गांव में जमा लेते थे. मिट्टी को खोदकर चूल्हा बनाया जाता था और भोजन व रात्रि विश्राम के बाद अल सुबह परिवार के पुरूष निकल पड़ते थे जय गंगान गाते हुए गांव के द्वार द्वार. मेरे गांव के आस पास के राव भाटों की बस्ती के संबंध में जो जानकारी मुझे है उसमें चौरेंगा बछेरा (तह. सिमगा, जिला रायपुर) में इनकी बहुतायत है.

पारंपरिक भाटों के गीतों में कृष्‍ण कथा, मोरध्‍वज कथा आदि भक्तिगाथा के साथ ही ‘एक ठन छेरी के दू ठन कान बड़े बिहनिया मांगें दान’ जैसे हास्य पैदा करने वाले पदों का भी प्रयोग होता था. समयानुसार अन्‍य पात्रों नें इसमें प्रवेश किया, प्रदेश के ख्‍यातिनाम कथाकार व उपन्‍यासकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के चर्चित उपन्‍यास ‘आवा’ में भी एक जय गंगान गीत का उल्‍लेख आया है -
जय हो गांधी जय हो तोर,
जग म होवय तोरे सोर । जय गंगान ....
धन्न धन्न भारत के भाग,
अवतारे गांधी भगवान । जय गंगान .....

मेरे शहर के दरवाजे पर जय गंगान गाने वाले व्‍यक्ति का जब मैं परिचय लिया तो मुझे आश्‍चर्य हुआ. उसका और उसके परिवार का दूर दूर तक छत्‍तीसगढ़ से कोई संबंध नहीं था. उसकी पीढ़ी जय गंगान गाने वाले भी नहीं है वे मूलत: कृषक हैं. वह भिक्षा मांगते हुए ऐसे मराठी भाईयों के संपर्क में आया जो छत्‍तीसगढ़ में भिक्षा मांगने आते थे और कृष्‍ण भक्ति के गीत गाते थे. उनमें से किसी एक नें जय गंगान सुना फिर धीरे धीरे अपने साथियों को इसमें प्रवीण बनाया. अब वे साल में दो तीन बार छत्‍तीसगढ़ के शहरों में आते हैं और कुछ दिन रहकर वापस अपने गांव चले जाते हैं. मेरे घर आया व्‍यक्ति का नाम राजू है उसका गांव खापरी तहसील कारंजा, जिला वर्धा महाराष्‍ट्र है. इनके पांच सदस्यों की टोली समयांतर में दुर्ग आती हैं और उरला मंदिर में डेरा डालती हैं.

राजू के गाए जय गंगान सुने ......


संजीव तिवारी

मारकोनी : दमित यौन आंकाक्षाओं का प्रतिष्ठित नाम

'मारकोनी!!!' प्रथम राज्य स्तरीय अधिवक्ता सम्मेलन में एक वरिष्ठ अधिवक्ता नें दूसरे वरिष्ठ अधिवक्ता को आवाज दिया. मैनें विरोध किया कि सर उनका नाम तो ... है. 'नहीं! मारकोनी नाम है उसका! हा हा हा!.. यह उसका निक नेम है!' सीनियर नें कहा.

मारकोनी, उम्र है तकरीबन 55 साल, वकील के काले कोट में सामान्य सा इकहरे बदन का लम्बा युवक. कहते हैं उसकी शादी नहीं हुई है. न्यायालय परिसर के वरिष्ठ अधिवक्ताओं और बाबूओं के बीच वह अपने इसी नाम से पहचाना जाता है. पर क्यूं? ज्दाया जिद कर पूछने पर वरिष्ठ बताते हैं कि मारकोनी शहर के एक प्रतिष्ठित वकील परिवार से ताल्लुक रखता है जिसके परिवार में एक से एक नामी वकील हैं. जवानी में उसकी शादी के लिए एक से एक लड़कियों के रिश्ते आए किन्तु कभी उसके मॉं बाप तो कभी स्वयं वह, लड़कियॉं छांटते रहे और धीरे धीरे विवाह की उम्र खिसक गई. पत्नी का स्वप्न संजोये वह उन दिनों यहॉं वहॉं से बड़े बड़े घरों से आए अपने रिश्ते की बातें मित्रों को बताता और मित्र उसका मजाक उड़ाते कि तुम्हारे लायक लड़की अभी बनी नहीं है, तुम लोगों को नये माडल की गाड़ी चाहिए जो पूरे शहर में ना हो, अगोरो!

इधर मित्रों नें देखा कि अगोरते अगोरते उसकी दमित यौन आकांक्षाओं नें उबाल मारना चालू कर दिया किन्तु प्रतिष्ठित परिवार के होने के कारण वह संयम की चादर ओढ़े रहा. पहले वह भीड़ से बचकर न्यायालय कक्षों में पहुचता था अब न्यायालय की भीड़ भाड़ वाली गलियों से होकर आना जाना उसे अच्छा लगने लगा. 

खोजी मित्र लोग पीछे पड़ गए कि ये ऐसा क्यूं करता है, पता चला वकील साहब भीड़ में अपनी दोनों कोहनी (कुहनी) का बेहतर प्रयोग महिला वकीलों और न्यायालय में पेशी में आए सुन्दर लड़कियों, महिलाओं के वक्ष उभारों पर इस प्रकार करते थे कि उन्हें बहुत जल्दी है आगे जाने की. लज्जावती महिलायें सार्वजनिक स्थल पर अपने स्तन पर कोहनी का दबाब सहकर भी चुप रहती किन्तु कभी कभी गांव से आई महिलायें शुरू हो जातीं ..रोगहा जा अपन दाई के ल चपकबे! वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाता. अब तो यह उसकी आदत है.

इतना कह कर सीनियर विक्रमादित्य की तरह चुप हो गए. सीनियर के चुप्पी पर मेरा प्रश्न पुन: जीवंत हो उठता है, इस वाकये से मारकोनी का कोई लिंक समझ में नहीं आया?

सीनियर नें अपनी छाती में डायरी को दोनों हाथों से चिपका कर कोहनी (कुहनी) को उपर नीचे कर अभिनय करते हुए बताया, ये..ये.. मार कोनी.. बस में मार कोनी, ट्रेन में मार कोनी, माता के दरशन जाते हुए मार कोनी.. मारकोनी.. मारकोनी बाबा की जय!

सीनियर मारकोनी सर से क्षमा सहित.

संजीव तिवारी.

छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दकोश, भाषा और मानकीकरण की चिंता

- संजीव तिवारी
शब्द भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कड़ी है. शब्द के बिना भाषा की कल्पना करना निरर्थक है. वास्तव में शब्द हमारे मन के अमूर्त्त भाव, हमारी इच्छा और हमारी कल्पना का वीचिक व ध्वन्यात्मक प्रतीक है. सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ साथ ही मनुष्य को भान हो गया था कि मनोभाव के संप्रेषण के यथेष्ठ अभिव्यक्ति की आवश्यकता है. इस अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है. सही शब्द के चयन के लिए तदकालीन विद्वानों नें शब्दों के संकलक की आवश्यकता पर बल दिया और भाषा के विकास क्रम अनवरत बढ़ता गया. एक प्रकार की अभिव्यक्ति वाले किसी बड़े भू भाग के अलग-अलग क्षेत्रों में शब्दों के विविध रूपों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से शब्दों और भाषा का मानकीकरण का प्रयास आरम्भ हुआ. यह निर्विवाद सत्य है कि लिपियों के निर्माण से भी पहले मनुष्य ने शब्दों का संग्रहण व लेखाजोखा रखना आरम्भ कर दिया था, इस के लिए उस ने कोश निर्माण शुरू किया गया. यह गर्व करने वाली बात है कि सब से पहले शब्द संकलन भारत में ही बने. शब्दों के संग्रहण और कोश निर्माण की हमारी यह परंपरा लगभग पाँच हज़ार साल—पुरानी है. प्रजापति कश्यप का 'निघंटु' संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इसी के साथ ही संस्कृत के उपरांत हिन्दी और उसके बाद भारतीय हिंदीतर भाषा के कोशों का निर्माण प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक बराबर चल रहा है.

छत्तीसगढ़ी भाषा संकलकों पर एक दृष्टि -
क्षेत्रीय भाषाओं में तमिल भाषा में कोश निर्माण की परंपरा प्राचीन मानी जाती है. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साथ ही छत्तीसगढ़ी में भी शब्दों के संकलन की परम्परा पुरानी रही है. प्रदेश में छत्तीसगढ़ी भाषा के लिखित साक्ष्य के रूप में उपलब्ध सन् 1702 में दंतेश्री मंदिर, दंतेवाड़ा, बस्तर में लिखे शिलालेख छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित नमूना माना जाता है. इसमें हमारी भाषा का विकास स्पष्ट नजर आता है. मानकीकरण एवं अकादमिक विकास की दृष्टि से एक अहम दस्तावेज के रूप मे उक क्षेत्र में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी भाषा का व्याकरण सन 1885 में हीरालाल काव्योपाध्याय जी नें तैयार किया. तदकालीन अंग्रेज विद्वानों में जार्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषाशास्‍त्रीय सर्वेक्षण में हीरालाज जी के इसी व्याकरण को अंगीकृत करते हुए सन 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की शोध पत्रिका में इसे अनूदित और सम्‍पादित कर प्रकाशित कराया. रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में तैयार किए गए इस व्‍याकरण को, पं. लोचन प्रसाद पाण्‍डेय नें सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार शासन के निर्देश पर सन 1921 में विस्‍तृत पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराया. इस पुस्तक में छत्तीसगढ़ी भाषा के व्याकरण के साथ ही शब्द संकलक भी थे. इसी के साथ विद्वानों एवं सुधीजनों द्वारा छत्तीसगढ़ी भाषा के व्याकरण एवं कोश पर कार्य आरम्भ कर दिया. हमारी भाषा पर अंतराल के बाद लगातार पुस्तकें प्रकाशित होनें लगी जिसमें डॉ.भाल चंद्र राव तैलंग का छत्तीसगढ़ी का वैज्ञानिक अध्ययन, का छत्तीसगढ़ी बोली, डॉ. कांतिकुमार का व्याकरण और कोश, डॉ. शंकर शेष का छत्तीसगढ़ का भाषाशास्त्रीय अध्ययन, डॉ.मन्नूलाल यदु का छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का छत्तीसगढ़ी भाषा का उदविकास, भागवत प्रसाद साहू का सवरिया बोली पर शोध आदि पुस्तकें उल्लेखनीय हैं.

छत्तीसगढ़ी शब्दकोशों पर एक नजर -
छत्तीसगढ़ी भाषा पर ये पूर्व पीठिका के रूप में जो कृतियां इन विद्वानों के द्वारा लिखे गए यही भाषा के विकास में मील के पत्थर साबित हुए. इनको आधार बनाते हुए विद्वानों नें छत्तीसगढ़ी शब्दों के संकलन को लगातार बढाया और इसी के फलस्वरूप डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा का छत्तीसगढ़ी शब्दकोश व छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश प्रकाशित हुआ जो आरंभिक कोशों में पहला संवेदनशील प्रयास था. भाषाविज्ञानी मेहरोत्रा जी का यह कोश आगे के कोशकारों का आधार ग्रंथ बना. इसके बाद डॉ.पालेश्वर शर्मा नें अपने वृहद शोध छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली के मुख्यांशों को छत्तीसगढ़ी हिन्दी शब्दकोश के रूप में बिलासा कला मंच द्वारा प्रकाशित करवाया. डॉ.रमेश चंद्र मेहरोत्रा जी के शब्दकोश में रायपुरी शब्दों की अधिकता को देखते हुए, डॉ. पालेश्वर शर्मा नें बिलासपुरी और अन्य क्षेत्रों के शब्दों को भी अपने कोश में समाहित किया. यह शब्दकोश तत्कालीन प्रकाशित सभी कोशो में वृहद एवं विस्तृत था. डॉ.पालेश्वर शर्मा जी द्वारा संकलित छत्तीसगढ़ी हिन्दी शब्दकोश में लगभग 10000 शब्द समाहित हैं, इसी क्रम में डॉ.सोमनाथ यादव जी द्वारा ​संकलित शब्दकोश भी उल्लेखनीय है. अन्य कोशों में माता प्रसाद भट्ट नें 'शब्द संकलन' के नाम से जो शब्दकोश प्रकाशित कराया जिसमें लगभग 2000 शब्द हैं. मंगत रवीन्द्र की कृति छत्तीसगढ़ी व्याकरण में शब्द ढाबा लगभग 7000 शब्दों का है, इसमें बेरा सीढी और शब्दकोश के सभी अंग है. चंद्रकुमार चंद्राकर नें मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण, छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति और मुहावरा कोश व छत्तीसगढ़ी शब्दकोश प्रकाशित करके छत्तीसगढ़ी भाषा की शब्द सम्पदा को समृद्ध किया. चंद्रकुमार चंद्राकर जी के छत्तीसगढ़ी शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी के 27,261 शब्द संकलित हैं जिनके अर्थ छत्तीसगढ़ी से हिन्दी में दिए गए हैं.

इन कोशों के बीच अभी हाल ही में 'छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें' का प्रकाशन सामने आया. इसमें समाहित विषय की ज्वलंत प्रासंगिकता एवं व्यापकता इसे अन्य प्रकाशनों से इसे पृथक करती है. यही इस किताब की अपनी मौलिक विशेषता है. यह छत्तीसगढ़ी सीखने वाले गैर छत्तीसगढ़ियों को भी पर्याप्त प्रेरणा और सीख दे सकेगी. इसके लेखक महावीर अग्रवाल के प्रयत्नों से जो कृति को स्वरूप मिला है, वह कई मायनों में अद्भूत है. 'छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें' में हिन्दी, अग्रेजी के साथ छत्तीसगढ़ी के मेल से अहिन्दी भाषी भी छत्तीसगढ़ी की बारीकियां जान और समझ सकेंगें. छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें में महावीर अग्रवाल नें रैपिडैक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के तर्ज पर क्रमिक रूप से छत्तीसगढ़ी आचरण में, हिन्दी से छत्तीसगढ़ी की ओर, अनेक शब्दों के एक शब्द, मनुष्य जीवन से जुड़े व्यावहारिक शब्दों को अंग्रेजी, प्राय: प्रयोग में आने वाले वाक्य आदि हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में सरल तरीके से समझाया गया है. यह हिन्दी अंग्रेजी छत्तीसगढ़ी में है इसमें शरीर के अंग, गहने, फल फूल आदि आधुनिक शब्दकोश जैसे व्यवहारिक तत्वों का समावेश किया गया है. इसमें लगभग आधा हिस्सा छत्तीसगढ़ी शब्दकोश का है जिसमें यह भी हिन्दी, अंग्रेजी एवं छत्तीसगढ़ी में लोकोक्तियॉं और मुहावरों के साथ हिन्दी से छत्तीसगढ़ी में शब्द संकलन है.

राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा सामूहिक प्रयास से निर्मित छत्तीसगढ़ी शब्दकोश का उल्लेख करना भी आवश्यक है क्योंकि इसके लिए लगभग 35 लोगों नें छ: माह में कई बैठकों के बाद छत्तीसगढ़ी शब्दों का अंग्रेजी व हिन्दी अर्थ संकलित किया जिसे वाक्यों में प्रयोग कर दर्शाया. प्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम नें भी स्कूली बच्चों के लिए छत्तीसगढ़ी शब्दों के अंग्रेजी व हिन्दी अर्थ वाला छत्तीसगढ़ी शब्दकोश का प्रकाशन किया. इसके अतिरिक्त नन्दकिशोर शुक्ल, डॉ.गणेश खरे, डॉ.प्रेमनारायण दुबे, डॉ.चित्तरंजन कर, डॉ.विनय कुमार पाठक, डॉ. सुधीर शर्मा, हरि ठाकुर, भागवत प्रसाद साहू, रामानुज शर्मा, डॉ.राजेन्द्र सोनी, समयदास अविनाशी, नजीर कुरैशी, डॉ.व्यासनारायण दुबे आदि का नाम शब्द संकलक के रूप में वरिष्ठ जनों द्वारा लिया जाता है. इन कोशकारों, शब्द संकलनकर्ताओं, शोध करने वालों के साथ ही नंदकिशोर तिवारी द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर में मानकीकरण के लिए किए जा रहे प्रयासों में संकलित शब्द आदि हैं.

शब्दकोशों की प्रामाणिकता एवं उत्कृष्टता की कसौटी -
भाषा विज्ञान की दृष्टि से किसी शब्दकोश में क्या होना चाहिए इस पर भी संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है. बकौल भाषा विज्ञानी कि शब्दकोश में उच्चा
ण सूचक संकेतचिह्नों के माध्यम से शब्दों के स्वरों व्यंजनों का पूर्णतः शुद्ध और परिनिष्ठित उच्चारण स्वरूप बताते हुए स्वराघात बलगात का निर्देश करते हुए यथासंभव उच्चार्य अंश के अक्षरों की बद्धता और अबद्धता का परिचय होना चाहिए; साथ ही व्याकरण से संबंधित उपयोगी और आवश्यक निर्देश होना चाहिए. उत्कृष्ट शब्दकोश में शब्दों के इतिहास एवं उसके उत्पत्ति पर भी टीप होना चाहिए; परिवार-संबंद्ध अथवा परिवारमुक्त निकट या दूर के शब्दों के साथ शब्दरूप और अर्थरूप का तुलनात्मक पक्ष उपस्थित करना; शब्दों के विभिन्न और पृथक्कृत नाना अर्थों को अधिक-न्यून प्रयोग क्रमानुसार सूचित करना; प्रयुक्त-शब्दो अथवा शब्दप्रयोगों की विलोपसूचना देना; शब्दों के पर्याय बताना; और संगत अर्थों के समर्थनार्थ उदाहरण देना; चित्रों, रेखाचित्रों, मानचित्रों आदि के द्वारा अर्थ को अधिक स्पष्ट करना. भाषा में अनेक शब्द ऐसे भी मिलते हैं जिनका पहले तो प्रयोग होता था पर कालपरंपरा में उनका प्रयोग लुप्त हो गया, आज के उत्कृष्ट कोशों में यह भी दिखाया जाता है कि कब उनका प्रयोग आरंभ हुआ और कब उनका लोप हुआ आदि आदि. 

शब्दों के मानकीकरण पर समाज की चिंता -
छत्‍तीसगढ़ में छत्‍तीसगढ़ी सहित अन्‍य कई बोलियां बोली जाती है, छत्‍तीसगढ़ी भाषा में भी स्‍थान स्‍थान के अनुसार से किंचित भिन्‍नता है इस कारण छत्‍तीसगढ़ी शब्दों के संकलन और उनके मानकीकरण पर भी अब गंभीर होने की आवश्यकता है. इन शब्दकोंशों की भूमिका इस हेतु से भी अहम है. लगातार समृद्ध होकर प्रकाशित हो रहे शब्दकोशों में संकलित शब्दों एवं छत्तीसगढ़ में उनके मानकीकरण पर अब समाज विभिन्न माध्यमों से विमर्श कर रहा है. इसी विमर्श पर अन्य भाषा को छत्तीसगढ़ी द्वारा आत्मसाध कर लिये जाने व शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दों के मानक प्रयोगों पर हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठित ब्लॉगर ब्लॉ. ललित शर्मा जी जो कहते हैं वह उल्लेखनीय है, वे कहते हैं 'छत्तीसगढी बोली में हिन्दी एवं उर्दू के शब्द इस तरह से घुलमिल गए हैं कि हम उन्हे अलग नहीं मान सकते तथा वे नित्य व्यवहार में भी हैं। ..... जिस तरह हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के बाद भी राजस्व की कार्यवाही में उर्दू शब्दों का प्रयोग वर्तमान में भी प्रचलन में है जैसे तहसीलदार, नायब तहसीलदार, खसरा, रकबा, खतौनी, पटवारी, नकल, अर्जीनवीस, खजाना, नाजिर, खसरा पाँच साला, फ़ौती, मोहर्रिर, मददगार, हवालात, कोतवाली इत्यादि शब्द.'
 
पूर्व प्रकाशित संकलकों को आधार मानने के बजाए इन सुझावों पर अब गंभीर होकर सोंचना होगा तभी छत्तीसगढ़ी भाषा का मानकीकरण इमानदारी से हो पायेगा. यद्धपि प्रख्यात अधिवक्ता एवं साहित्यकार कनक तिवारी की चिंता से मुह फेरा नहीं जा सकता कि 'तथ्य है कि छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली को लेकर जितने भी शोध विगत वर्षों में हुए हैं, उनमें पहल, परिणाम या पथ प्रदर्शन का बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़वासियों के खाते में नहीं है। ...... वैसे मानक छत्तीसगढ़ी बोली का अब तक स्थिरीकरण कहाँ हुआ है। बस्तर, खैरागढ़ और सरगुजा की बोली पूरी तौर पर एक जैसी कहाँ है।' इसी चिंता के कारण कुछ डिंडोरा पीटकर तो कुछ बिना आवाज किए भाषा पर एवं उसके मानकीकरण पर काम कर रहे हैं. कुछ लोगों के अपने आप को वरिष्ठ समझने, जताने और अमर हो जाने के उदीम करने के बावजूद पुरातत्वविद व संस्कृति विभाग के वरिष्ठ अधिकारी राहुल सिंह जी का कहना उल्लेखनीय हैं 'तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता के असली झण्डाबरदार ज्यादातर ओझल से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्‍तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।' उनके इस कथन पर आस्था और विश्वास रखते हुए जय भारत! जय छत्तीसगढ़.

संजीव तिवारी

संभव है कि यहॉं उल्लेख किए गए शब्दकोश एवं कृतियों, संकलनकर्ताओं/संपादकों के अतिरिक्त भी कुछ नाम छूट गए होंगें, पाठकों से अनुरोध है कि हमें उनकी जानकारी देवें.

छत्‍तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्‍दकोश : खुली चर्चा होनी चाहिए

विधान सभा द्वारा तैयार एवं राजभाषा आयोग द्वारा प्रकाशित छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश पर उठते सवाल नें प्रत्येक छत्तीसगढिया के कान खडे कर दिये हैं. मीडिया में उडती खबरें यह बता रही है कि इसमें संकलित कई शब्दों के अर्थ ग्राह्य नहीं हैं. किसी भी ग्रंथ पर कुछ लिखने के पहले उसका अवलोकन व अध्ययन आवश्यक है इस लिहाज से यह प्रशासनिक शब्दकोश हमारे पास अभी नहीं है किन्तु माध्यमों से जो शब्दार्थ सामने आ रहे हैं उससे प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि शब्दकोश जल्दबाजी में छाप दी गई है.

ऐसे समय में जब छत्तीसगढ़ी राजभाषा के मानकीकरण एवं शब्दों के दस्तावेजीकरण की आवश्यकता पर सभी विद्वान बल दे रहे है उसी समय में राजभाषा विभाग द्वारा यह प्रशासनिक शव्दावली प्रकाशित की गई है और आगे की कड़ियों के प्रकाशन की योजना भी है. आरम्भिक कड़ी में ही गलतियां सामने आ रही है इसलिए पहले यह आवश्यक है कि इस पर प्रदेश स्तरीय विमर्श हो. समाचार पत्रों में इसमें संकलित शब्दों के संबंध में जो समाचार आ रहे है उसको देखते हुए और इस शब्दकोश के निर्माण की प्रक्रिया के संबंध में पढते हुए, यह तो स्पष्ट है कि इन दोनों में सुधार की आवश्यकता है.

यह निर्विवाद सत्य है कि कोई भी शब्दकोश पूर्ण नहीं माना जा सकता, सुधार की संभावना सदैव बनी रहती है किन्तु राजभाषा आयोग के द्वारा प्रकाशित किए जाने के कारण जन की अपेक्षा इस शब्दकोश से बहुत थी. इसके पूर्व भी वरिष्ठ विद्वानों के द्वारा कुछ मानक छत्तीसगढी शब्दकोश प्रकाशित किए जा चुके हैं जिस पर अलग अलग राय लोगों का रहा है किन्तु वे शब्दकोश व्यक्ति विशेष द्वारा लिखे गए थे और प्रकाशक भाषा आयोग नहीं था ना ही उन्हें प्रशासकीय दस्तावेज बनाने की घोषणा हुई थी इसलिये उन पर चर्चा उतनी आवश्यक नहीं थी.

शैक्षणिक अनुसंधान परिषद के द्वारा प्रकाशित शब्दकोश पर तदकालीन मीडिया नें लगातार समचार छापे थे एवं उस पर विमर्श भी हुआ था. शैक्षणिक अनुसंधान परिषद के शब्दकोश बनाने में सहभागिता करने वाले विद्वानों नें विनम्रता से इसे स्वीकारा भी था कि यद्धपि सुधार की संभावना नाममात्र है किन्तु इस पर प्रयास किया जा सकता है. सुधार की संभावनाओं को कम करने एवं उस पर विश्वास करने के पीछे शैक्षणिक अनुसंधान परिषद के द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया भी थी. शैक्षणिक अनुसंधान परिषद नें ये शब्दकोश छ: महीनों के लगातार अलग अलग भौगोलिक क्षेत्र में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी के जानकार लोगों के बीच प्रत्येक शब्द पर बहस कर के अंगीकार किया गया था.

छत्तीसगढी के राजभाषा बनने के बाद प्रशासनिक शब्दावली की आवश्यकता तो बढ गई थी किन्तु इसके लिए क्रमबद्ध तैयारी की आवश्यकता थी. विधानसभा के द्वारा शब्दावली तैयार करने उसे अनुमोदित करने के लिए जिन जिन विद्वानों नें कार्य किया उनकी भाषा संबंधी ज्ञान पर कोई भी प्रश्न चिन्ह नहीं है किन्तु विधानसभा या आयोग को इसे तैयार करने के लिए छत्तीसगढ़ी के साथ साथ गोडी, भथरी, सरगुजिहा, लरिया आदि के अधिकाधिक जानकारों का सहयोग लेना था. दोनों संस्थानों की विश्वसनीयता इस शब्दकोश का आधार है, यदि वर्तमान में प्रकाशित कोश में सुधार नहीं किया जाता तो यह माना जायेगा कि इसमें संकलित, कुछ विरोध किए जा रहे शब्दों को मानक बनाने के लिए थोपा जा रहा है.

भाषा विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार शब्द संकलन प्रक्रिया निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, इसी का परिपक्व सोपान मानकीकरण होता है. प्रकाशित प्रशासनिक शब्दावली को मानक कदापि ना माना जावे, अभी मानकीकरण का सफर लम्बा है.

यदि सरकार की इच्छा इमानदारी से छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश प्रकाशित करने की है तो आयोग के दिशानिर्देशन में प्रत्येक छत्तीसगढ़ी शब्द के अर्थ और प्रयोग पर अलग—अलग विद्वानों से ओपन डिबेट होना चाहिए और इसका दस्तावेजीकरण होना चाहिए, इस कार्य के लिए यद्धपि लम्बा समय लगेगा किन्तु इसी से शब्दों के मानक अर्थ र्निविवाद स्थापित होंगें. इससे 'नंदाते' शब्दों का दस्तावेजीकरण भी हो पायेगा, हमारे बहुत सारे शब्दों का प्रयोग अब नहीं हो रहा है, फिर भी यदा कदा वे शब्द प्रयोग होते हैं उनका अर्थ भी ऐसे शब्दकोश में आ पायेगा. आक्शफोर्ड डिक्शनरी के द्वारा कोश निर्माण के लिए जिस तरह से भाषा विशेषज्ञों के सहयोग के साथ ही समय समय पर समाज से वार्ता की जाती है उसी तरह से हमारे प्रशासनिक शब्दकोश के लिए भी समाज से खुली चर्चा होनी चाहिए.

गैर छत्तीसगढ़ी भाषी के लिए शब्दों का आधा अधूरा ज्ञान किस तरह संवेदनशील हो जाता हैं इसका एक उदाहरण देखिये. एक गैर छत्तीसगढ़ी भाषी व्यापारी को किसी नें बतलाया था कि पुरूष को 'डउका' और स्त्री को 'डउकी' कहा जाता है. उस व्यापारी के मृदुल स्वर में 'ए वो डउकी! ले जा ना वो दस रूपया म!' कहते ही उसके पीठ में जोरदार डंडा उस स्त्री के पति द्वारा जड़े गए और फिर उसकी जमकर धुनाई हुई. शब्दों के अर्थ एवं उसके प्रयोगों के प्रति यदि हम संवेदनशील होकर गैर छत्तीसगढ़ी भाषी को नहीं समझायेंगें तो यही होगा.

संजीव तिवारी
संपादक : आनलाईन छत्तीसगढ़ी वेब मैग्जीन गुरतुर गोठ डॉट कॉम

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...