
ओंकार का घर मेरे सुपेला कार्यालय से बमुश्कल एक किलोमीटर दूर होगा, पर मुझे पांच मिनट के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है। ओंकार स्वयं एवं उसके दोस्त यार भी व्यस्त हैं मेल-मुलाकात चालू है इस कारण उसका मोबाईल नम्बर भी नहीं मिल पा रहा है। बात दरअसल यह है कि पीपली लाईव के पहले खस्ताहाल ओंकार का मोबाईल नम्बर रखने की हमने कभी आवश्यकता ही नहीं समझी, बल्कि उसे हमारा नम्बर अपने गंदे से फटे डायरी में सम्हालनी पड़ती थी और हम उसके नचइया गवईया किसी दोस्त को हांका देकर बुलवा लेते थे। .... खैर वक्त वक्त की बात है। हबीब साहब के दिनों में नया थियेटर की प्रस्तुतियों में भी ओंकार का ऐसा कोई धांसू रोल नहीं होता था कि प्रदर्शन देखने के बाद ग्रीन रूम में जाकर ओंकार को उठाकर गले से लगा लें ... हाथ तक मिलाने का खयाल नहीं आता था क्योंकि हबीब साहब के सभी हीरे नायाब होते थे। वह 'महराज पाय लगी ....' कहते हुए स्वयं हमसे मिलता था।
कल रविवार डाट काम में रामकुमार तिवारी का पीपली पर एक आलेख पढ़ा तो लगा यहां ओंकार के लिए वही लिखा गया है जो मैं महसूस करता हूं। नत्था के इस ग्लैमर को ओंकार को बरकरार रखना होगा, उसे और मेहनत करनी होगी। नत्था आमीर के प्रोडक्ट को बाजार में हिट कराने का एक साधान मात्र था, अब ओंकार को अपने जन्मजात नत्थेपन को सिद्ध करना होगा। यदि ओंकार पर नत्था हावी हुआ तो उसके जीवन के अन्य पीपली लाईवों में वह लाईव नहीं रह पायेगा क्योंकि उसकी मांग उसके सामान्य होने में ही है। जैसा कि कुछ पत्रकार मित्रों नें कहा कि नत्था के तेवर कुछ बदले हुए से हैं, खुदा करे ऐसा ना हो। पिछले दिनों ओंकार के भिलाई वापस आने के पहले मैनें अपने सहयोगी जो ओंकार के पुत्र का मित्र है को ओंकार के घर भेजा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं वे मुझसे मिलने को समय देंगें क्या, पर ओंकार की पत्नी नें झुझलाते हुए कहा कि 'हलाकान होगेन दाई ..................'
अब ओंकार से अपने संबंधों को कुरेदने लगा हूं, कड़ी पे कड़ी जोडने लगा हूं यह बताने जताने के लिए कि नत्था से मेरा परिचय किस कदर लगोंटिया रहा है। पर पीपली लाईव को देखते हुए दूर मानस में राजू दुबे का नाम भी उभर रहा है, अभी पिछले दिनों ही तो मैं उसके भयंकर रूप से बीमार होने की खबर पर उसे देखने गया था और खबर यह है कि अभी कुछ दिन पहले ही उसकी भी मौत हो गई। कोई मीडिया नहीं, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं, कोई नेता नहीं। एक खामोश मौत जैसे पीपली लाईव में उस मिट्टी खोदने वाले की हुई थी। ऐसी मौत तो हजारों हो रही है पर ये खिटिर-पिटिर क्यूं, मन कहता है, ... तो नत्था के मौत से इतना बवाल क्यूं ... मन फिर कहता है, वो आमीर के फिल्म में नत्था की मौत है ..... हॉं .... बेमेतरा से कवर्धा जाने वाली रोड के किनारे स्थित एक गांव उमरिया में राजू दुबे की एड्स से मौत हुई है जो मेरा रिश्तेदार था। हॉं ठीक है ... एड्स से मरा है तो चुप रहो ना, किसी से क्यू कहना कि मेरा रिश्तेदार एड्स से मर गया, नाहक अपनी इज्जत की वाट लगा रहे हो। नत्था से रिश्तेदारी की बात करो राजू दुबे को भल जाओ।
राजू दुबे को भूलना संभव नहीं क्योंकि राजू दुबे सचमुच मेरा रिश्तेदार था, उसके मां बाप बेहद गरीब हैं वह एक ट्रक ड्राईवर था, लाईन में उसे ये बीमारी लगी और उसने अपने उस बीमारी को अपनी पत्नी ... और संभत: अगली पीढ़ी में रोप गया और यही भूल पाना मुश्किल हो रहा है जिन्दा लाशों को देखकर। उसकी मौत तो हो गई अब पीढि़यों को उसके पाप को बोझा ढोना है, एक कम उम्र की पतिव्रता पत्नी को छिनाल पति के विश्वास के मुर्दे को गाढ़ कर ....... जब तक सांसे हैं ..... जिन्दा रखना है। पिछली मुलाकात में राजू दुबे की मॉं ने बहुत खोदने पर अपना विश्वास प्रस्तुत किया था कि गांव के डाक्टर नें सुई नहीं बदला और फलाना का रोग इसे हो गया। मैं इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हूं, राजू दुबे की प्रवृत्ति उत्श्रंखल थी, चाहे एक बार भी हो उसको वह रोग असुरक्षित शारिरिक संपर्कों से ही हुआ होगा, किन्तु मॉं को उसने जो विश्वास दिलाया है उसे वो कायम रखे हुए है, उसके मरने बाद भी और संभवत: अपने मृत्यु पर्यंत, क्योंकि वह मॉं है।
साथियों राजू दुबे की पत्नी एचआईवी पाजेटिव पाई गई है, उसका बच्चा सुरक्षित है किन्तु उसकी पत्नी को वर्तमान में टीबी है और गांव में इलाज चल रहा है, बच्चे का भविष्य असुरक्षित है। एड्स के क्षेत्र में कोई एनजीओ यदि छत्तीसगढ़ में कार्य कर रही हो तो मुझे बतलांए कि उस पीडित परिवार तक कैसे और किस हद तक सहायता पहुचाई जा सकती है।
राजू दुबे की मृत्यु के बाद मैं उस गांव में गया जहां के डाक्टर के सूई पर आरोप थे, लोगों से चर्चा भी किया तो लोगों नें कहा कि सरकारी आकड़ों की बात ना करें तो यहां इस गांव में दस बीस एड्स के मरीज होगें और लगभग इतने ही इस गांव के मूल निवासी भी एड्स मरीज होगें जो वर्तमान में अन्यत्र रहते हैं। इतनी बड़ी संख्या में एक गांव में एड्स के मरीज पर शासन प्रशासन चुप है, उसे पता ही नहीं है राजू दुबे जैसे कई एड्स संक्रमित उस गांव में हैं, जानकारी लेने पर यह भी ज्ञात हुआ कि वहां ड्राईवरों की संख्या भी बहुत है। अब ऐसे में एड्स पर काम करने वाले एनजीओ और स्वास्थ्य विभाग कान में रूई डाले क्यू बैठी है समझ में नहीं आता। क्षेत्रीय मीडिया को भी इसकी जानकारी नहीं है क्योंकि यह बाईट नत्था के मौत की नहीं है राजू दुबे की मौत की है।