मुझे माफ कर मेरे हम सफर ....


दीपक, तुमने मेरे लोगों के विरूद्ध हो रहे निरंतर अत्याचार के विरूद्ध लिखने के लिए बोला और मैं अपनी समस्याओं और मजबूरियों का पिटारा खोल बैठा .. तो क्या करू मेरे भाई मेरे देश का प्रधान मंत्री जब इस कदर निरीह और लाचार होकर राष्ट्रीय प्रसारणों में बोलता है तो मैं तो एक साधारण सा कलमकार हूं, मुझे तो समस्‍याओं से मुह मोड़ने का अधिकार है। हॉं जिस दिन मैं अपने आपको इन सब प्रमेयों से दूर इंसान समझने लगूंगा उस दिन इस मसले पर अवश्य लिखूंगा क्योंकि कलमकारी में भी अब राजनीति हावी है इसलिए इसके अर्थ पर संवेदना की आस मत कर।

संजीव तिवारी

दीपक तुमने आज केवल छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री को पत्र नहीं लिखा है, इसके मजमूनों में तुमने हमस सब को लपेटा है जो किसी ना किसी रूप में इस सिस्टम के मोहरें हैं ... पर क्या करें मेरे भाई, हमारे सामने हमारी बेटियॉं लुट रही हैं और हमारे मुह पर ‘पैरा बोजाया’ हुआ है। हम मजे से मुह में दबे पैरे को कोल्हू के बैल की तरह ‘पगुराए’ जा रहे हैं क्योंकि हममें सिर उठाकर ‘हुबेलने’ की हिम्मत नहीं है, क्योंकि हमारे पेट में दिनों से भूख ने सरकारी जमीन समझ कर एनक्रोचमेंट कर झोपड़ी बना लिया है। हमें शासन व पुलिस के कोडे और कूल्हेू में चुभने वाले ‘तुतारी’ का भी भय है। हम चाहकर भी ‘मरकनहा बईला’ नहीं बन पा रहे हैं और सिर नवाए जुते जा रहे हैं। तुममे माद्दा है, तुममे जोश और उत्साह है तुमने जनता की संवेदना उकेरी है अपने पत्र में। इसके बावजूद मेरे रगो में अपनो के प्रति हो रहे अन्याय के विरूद्ध खून नहीं खौल रहा है। सिस्टम नें हमारे खूंन को फ्रिज करके रखा है, सिर्फ अपने और अपने परिवार वालों के भरण पोषण और विलासिता की चीजें बटोरने के अतिरिक्त कुछ और सोंचने का समय ही नहीं दिया है।

तुमने मेरे अंतरमन में छुपे बैठे कवि और लेखक को भी ललकारा कि, मैं कुछ लिखूं किन्तु क्या करूं मुझे अभी अपनी नई किताब के प्रकाशन के लिए सरकार से मोटी रकम उगाहना है। यदि मैंनें इस पर कुछ लिखा तो मेरी किताब लफड़े मे पड़ जाएगी। सरकार और पुलिस की वक्र दृष्टि से मुझे अगले वर्ष मिलने वाला राज्य पुरस्कार भी नहीं मिल पायेगा। मेरे प्रोपोगंडा के गोष्ठियों में संस्कृति विभाग किसी भी प्रकार की सहायता नहीं देगा, मंत्रीगण मुख्य अतिथि नहीं बनेगें और मुझे अपने महान लेखक और कवि होने का चोला सम्हालना मुश्किल हो जावेगा। .. इसलिये दीपक मेरे भाई मुझे कुछ लिखने को मत बोल।


तुमने मेरे ब्लॉगिंग को ललकार कर मेरी रही सही अस्तित्व पर भी कुल्हाड़ी चला दिया, भाई मैं ब्लॉगिंग अंग्रेजी ब्लॉगों की तरह किसी सार्वजनिक मुहिम के लिए नहीं करता किन्तु निजी मुहिम के लिए करता हूं, मुझे उन्हीं विषयों पर पोस्टे लिखना है जिनसे भेंड बकरियां मेमियाये और टिप्पणियों की बौछार लग जाए। मेरी ब्लॉगिंग भी एक प्रकार की राजनीति है जिसमें मैं जुगाड़ और चापलूसी तकनीकि का प्रयोग करता हूं। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण असहाय बालिका के बलत्कार पर लिखने से मेरी पोस्टों को सत्ता के नुमाइंदे पढ़ना बंद कर देंगें, एसी पोस्टें चिट्ठा चर्चों में स्थान भी नहीं पायेंगी ... और मेरे ब्लॉग का रेंक भी बढ़ नहीं पायेगा और प्रदेश में मिलने वाले सम्मान या पुरस्कार जिसमें आजकल पुलिस प्रमुख ही मुख्य अतिथि होते हैं वे पुरस्कार व सम्मान भी मुझे नहीं मिल पायेंगें। सच मान मेरे भाई मुझे इस ब्लॉगिंग के सहारे नोबल पुरस्कार प्राप्त करने की लालसा है इसलिए तू मुझे उस असहाय निरीह बालिका के संबंध में लिखने को मत बोल।


भाषा पर आक्रमण

छत्‍तीसगढि़या सबले बढि़या

क्षेत्रीय भाषा छत्‍तीसगढ़ी पर हो रहे बेढ़ंगे प्रयोग से मेरा मन बार बार उद्वेलित हो जाता है, लोग दलीलें देते हैं कि क्‍या हुआ कम से कम भाषा का प्रयोग बढ़ रहा है धीरे धीरे लोगों की भाषा सुधर जाएगी किन्‍तु क्‍यूं मन मानता ही नहीं, हिन्‍दी में अंग्रेजी शब्‍दों नें अतिक्रमण कर लिया है किन्‍तु उन शब्‍दों के प्रयोग से भाषा यद्धपि खिचड़ी हुई है पर उसके अभिव्‍यक्ति पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा है। किन्‍तु छत्‍तीसगढ़ी के शब्‍दों को बिना जाने समझे कहीं का कहीं घुसेड़ने से प्रथमत: पठनीयता प्रभावित होती है तदनंतर उसका अर्थ भी विचित्र हो जाता है। वाणिज्यिक आवश्‍यकताओं नें धनपतियों व बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों को क्षेत्रीय भाषा के प्रति आकर्षित किया है वहीं गैर छत्‍तीसगढ़ी भाषा-भाषी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग से प्रदेश के प्रति अपना थोथा प्रेम प्रदर्शित करने की कोशिस कर रहे हैं। मेरा आरंभ से मानना रहा है कि यदि आपको छत्‍तीसगढ़ी नहीं आती है तो इसे सीखने का प्रयास करें किन्‍तु बिना छत्‍तीसगढ़ी सीखे छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का गलत प्रयोग ना करें। पिछले दिनों प्रदेश के प्रसिद्ध कथाकार सतीश जायसवाल जी नें अमृता प्रीतम की कहानियों में छत्‍तीसगढ़ व ढत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों के प्रयोग के संबंध में लिखा है जिसे पुरातत्‍ववेत्‍ता व संस्‍कृति कर्मी राहुल सिंह जी नें भी प्रवाह दिया है। जिसमें उन्‍होंनें लिखा है कि अमृता प्रीतम जी नें छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का सटीक प्रयोग किया है किन्‍तु वर्तमान में देखने में आ रहा है कि लोग कुछ भी कहीं भी छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं एवं हमारी भाषा का न केवल अपमान कर रहे हैं बल्कि हमारा भी अपमान कर हे हैं इसके लिये सभी छत्‍तीसगढिया भाषा-भाषी लोगों को विरोध में स्‍वर उठाना चाहिए। मैंनें इसके पूर्व छत्‍तीसगढ़ की विदूषी कथाकारा जया जादवानी की एक कहानी में छत्‍तीसगढ़ी भाषा के गलत प्रयोग के संबंध में 'भाषा के लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व हर भाषा-भाषी के ऊपर है' लिखा था जो क्षेत्रीय समाचार पत्रों के संपादकीय पृष्‍टों में प्रकाशित भी हुआ था।

कुछ दिन पहले आइडिया मोबाईल नें अभिषेक बच्‍चन के चित्रों के साथ बड़े बड़े होर्डिंग में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में विज्ञापन प्रदर्शित किया था उसी की देखा देखी वोडाफोन नें अब छोटी छोटी तख्‍ती अपने फुटकर रिचार्ज वाले पीसीओ, दुकानों व पान ठेलों में लगाया है जिसमें अंग्रेजी के वोडाफोन मोनों के साथ छत्‍तीसगढ़ी में लिखा है ‘एती मिलत हावे.’ छत्‍तीसगढ़ी भाषी एक नजर में इसे नकार देगा। इधर मिलता है, किधर मिलता है भाई, ये कहो जहां तख्‍ती लगा है वहां मिलता है यद्धपि कम्‍पनी इसका मतलब ‘यहां मिलता है’ से लगा रही है। सही भाषा में इसे ‘इहॉं मिलथे’ ‘इहॉं मिलत हावय’ होना चाहिए। ‘एती’ शब्‍द का शाब्दिक अर्थ ‘इधर’ होता है, प्रयोग में यहॉं के लिए ‘एती’ शब्‍द की जगह ‘इंहॉं’ ज्‍यादा प्रचलित है एवं ग्राह्य है। छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश में डॉ.पालेश्‍वर शर्मा जी ‘एती (विशेषण)’ का ‘एतेक’ के संदर्भ में अर्थ बतलाते हैं  ‘इतना’ व ‘एती (क्रिया विशेषण)’ का मतलब बतलाते है ‘इस ओर’ यानी ‘एती’ किसी निश्चित स्‍थान को इंगित नहीं करता। इसी प्रकार छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दकोश में चंद्रकुमार चंद्राकर जी ‘एती (विशेषण)’ का मतलब ‘इधर’ लिखते हैं जो निश्चिचताबोधक नहीं है। अभी बुधवार 16 फरवरी के भास्‍कर के मधुरिमा परिशिष्‍ठ में छत्‍तीसगढ़ी की सुप्रसिद्ध भरथरी (लोकगाथा) गायिका एवं भास्‍कर वूमन ऑफ द ईयर सुरूज बाई खाण्‍डे के संबंध में आशीष भावनानी ने बहुत सुन्‍दर जानकारी प्रकाशित की है किन्‍तु लेखक नें यहां भी वही गलती की है, उन्‍होनें अति उत्‍साह में ‘यही है’ के स्‍थान पर छत्‍तीसगढ़ी भाषा में लिखा ‘ए ही हवै’ सुरूजबाई. जो अटपटा सा लग रहा है। मेरे अनुसार से यहां ‘इही आय’ ही सटीक बैठता है,  ‘हवय’ का मतलब यद्धपि ‘है’ से है किन्‍तु हवय का प्रयोग किसी के पास रखी वस्‍तु के लिए किया जाता है किसी के परिचय के लिए नहीं। अगली पीढ़ी इसे पढेगी और इसे ही सहीं छत्‍तीसगढ़ी मानेगी क्‍योंकि मानकीकरण की बातें अकादमिक रहेंगी व्‍यवहार में जो भाषा आयेगी उसे ये माध्‍यम इसी प्रकार बिगाड़ देंगें, क्‍या हमारी भाषा का ऐसा ही विकास होगा।
संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...