लोक गाथा : दशमत कैना

भोज राज्य का राजा भोज एक दिन अपनी सात सुन्दर राजकन्याओं को राजसभा में बुलाकर प्रश्न करता है कि तुम सभी बहने किसके भाग्य का खाती हो । छ: बहने कहती हैं कि वे सब अपने पिता अर्थात राजा भोज के भाग्य का खाती हैं और सब पाती हैं । जब सबसे छोटी बेटी से राजा यही प्रश्न दुहराता है तब, अपनी सभी बहनों से अतिसुन्दरी दशमत कहती है कि, वह अपने कर्म का खाती है, अपने भाग्य का पाती है । इस उत्तर से राजा का स्वाभिमान ठोकर खाता है और स्वाभाविक राजसी दंभ उभर आता है ।
राजा अपने मंत्री से उस छोटी कन्या के लिए ऐसे वर की तलाश करने को कहता है जो एकदम गरीब हो, यदि वह दिन में श्रम करे तभी उसे रोटी मिले, यदि काम न करे तो भूखा रहना पडे । राजा की आज्ञा के अनुरूप भुजंग रूप रंग हीन उडिया मजदूर बिहइया को खोजा गया । वह अपने भाई के साथ जंगल में पत्थर तोडकर ‘पथरा पिला-जुगनू’ निकालते थे जिसे उनकी मॉं, साहूकार को बेंचती थी जिससे उन्हें पेट भरने लायक अनाज मिल पाता था । बिहइया से दसमत कैना का विवाह कर दिया गया । दशमत अपने पति के साथ पत्थर तोडने का कार्य करने लगी जिसे उन्होंने अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया । पत्थर से निकलने वाले ‘पथरा पिला’ को दशमत कैना परख लेती है कि वे हीरे हैं जिसका साहूकार अत्यंत कम कीमत देता है और खुद लाखों में बेंचता है । तब वह उससे लड झगडकर हीरे का उचित प्रतिफल प्राप्त करती है और अपने जाति के लोगों को भी दिलवाती है । राजकुमारी होने के कारण नेतृत्व के स्वा्भाविक गुण उसमें रहते हैं । वह अपने सभी मेहनतकश रोज कमाओ रोज खाओ वाले उडिया समूह की नेत्री बन जाती है और दशमत ओडनिन के नाम से पहचानी जाती है । दशमत के भाग्य में मेहनत से ही खाना लिखा होता है, अत: वह अपने पति एवं ओडिया मजदूरों के समूह के साथ साथ क्षेत्र भर में घूम घूम कर बांध, तालाब व बावली खोदने का काम करने लगती है । इसी क्रम में दशमत ओडनिन धौंरा नगर के राजा महानदेव के पास जोहारने के बहाने 120 स्त्री और 120 पुरूषों के साथ काम पूछने जाती है । राजकुल में उत्पहन दशमत अपने पारंपरिक छत्तीसगढिया श्रृंगार में जब राजा महानदेव के सामने प्रस्तुत होती है तब राजा उसके सौंदर्य से मोहित हो जाता है । महल में फुदकने वाली गौरइया राजा को चेतावनी देती है कि इस पर आशक्त मत होवें पर राजा दशमत को स्वर्ण आसन देता है और उसका परिचय पूछता है । दशमत बतलाती है कि भोजनगर उसका मायका है और ओडार बांध उसका श्वसुराल, वह बाबली खोदने का काम करती है ।
दशमत के रूप यौवन पर मोहित राजा उसे अपने गरीब मजदूर पति को छोड पटरानी बनने का प्रस्ताव देता है और उससे विनय करने लगता है । दशमत विचलित हुए बिना राजा का अनुरोध ठुकरा देती है और ओडार बांध आकर अपने कार्य में लग जाती है ।
नव लाख ओडिया मिट्टी खोद रहे हैं और नव लाख ओडनिन ‘झउहा’ में मिट्टी ढो रही हैं जिसमें से अपने सौंदर्य के कारण दशमत कैना अलग से पहचानी जा रही है वह मिट्टी ढोनें में पूरी तन्मीयता से लगी है । राजा महानदेव दशमत के प्रेम में ओडार बांध आ जाता है और बांध के किनारे तंबू तान कर बैठ जाता है और दशमत के रूप यौवन का आंखों से रस लेने लगता है ! उसे कंकड मार मार कर छेडता है । दशमत से विवाह करने की गुहार करता है उसके इस हरकत से परेशान दशमत शर्त रखती है कि तुम भी हमारी तरह काम करो तब सोंचेंगें । प्रेम में आशक्त राजा सिर में ‘झउहा’ लिए ‘लुदरूस-लुदरूस’ मिट्टी ढोता है । पसीने से लथपथ उसका राजसी वैभव प्राप्त शरीर थककर चूर हो जाता है । दशमत की सहेलियां उससे मजाक करती है, दशमत भी कहती है, देखो रे तुम्हारे जीजा कैसे मिट्टी ढो रहे हैं, हंसी ढिठोली के बावजूद राजा वह कार्य नहीं कर पाता । वह दशमत से कोई दूसरा निम्न स्तरीय कार्य कराने को कहता है पर श्रम वाला काम करने से मना करता है । ऐश्वेर्यशाली राजा की दीनता पर मजा लेते निम्नस्तर का जीवन यापन करने वाले ओडिया लोग कहते हैं कि हमारे जाति के स्त्री को पाना है तो हमारी तरह मांस खाना होगा और दारू पीना होगा । राजा ब्राह्मण है, फिर भी वह दशमत के लिए तैयार हो जाता है । ओडिया डेरे में सुअर का मांस पकाया जाता है और राजा गरमा गरम मांस भात के साथ शराब का पान करता है एवं नशे में चूर हो जाता है । नशे में बाबरों सा हरकत करते हुए नाचने लगता है और थककर बेहोश हो जाता है । उसके बेहोश हो जाने पर सभी ओडिया उसे खाट में बांध देते हैं एवं उसकी चूटिया को ‘चबरी गदही’ के पूंछ से बांध कर गधी को डंडा मार, बिदका देते हैं । राजा का शरीर छलनी होता हुआ घिसटते जाता है और गधी ‘खार खार जंगल जंगल’ भागती है । राजा मदद के लिए पुकारता है, राजा के बेटे मदद के लिए महल से निकलने लगते हैं पर सातों रानियां अपने बेटों को रोक देती हैं कि जिस पिता ने एक विवाहित श्रमिक स्त्री के कारण तुम्हारी मां को त्याग दिया ऐसे पिता की सहायता मत करो । बेटों के पांव ठिठक गये । राजा का आर्तनाद सुन ओडिया मजे ले रहे हैं, राजा का मुहलगा नाई से यह सब देखा नहीं जाता वह उस्तरे से गदही का पूंछ काटकर राजा को बचाता है ।
राजा अपने महल में आता है क्रोध एवं प्रेम से पागल कुछ दिन बाद अपनी चतुरंगिनी सेना लेकर ओडार बांध की ओर कूच कर जाता है । राजा के सैनिक चुन चुनकर ओडियों को मारने लगते हैं नव लाख ओडिया और राजा के सैनिकों के बीच युद्ध होता है, सभी ओडिया मारे जाते हैं । राजा दशमत को खोजता है पर वह अपने पति के मृत्यु के दुख में ओडार बांध में कूदकर प्राण त्याग देती है । राजा दशमत के मृत देह को देखकर अत्यत दुखी हो जाता है । आत्मग्ला नी और संवेदना के कारण राजा बांध किनारे के पत्थर में अपना सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे देता है ।
(वाचिक परम्परा में सदियों से इस गाथा को छत्तीसगढ के घुमंतु देवार जाति के लोग पीढी दर पीढी गाते आ रहे हैं । वर्तमान में इस गाथा को अपनी मोहक प्रस्तुति के साथ जीवंत बनाए रखने का एकमात्र दायित्व का निर्वहन श्रीमति रेखा देवार कर रही हैं । इस गाथा को रेखा से सुनने का आनंद अद्वितीय है । यह गाथा छत्तीसगढी संस्कृति के पहलुओं को विभिन्‍न आयामों में व्‍यक्‍त करती है ।  पारंपरिक धरोहर इस गाथा को हम भविष्य में मूल छत्तीसगढी भाषा में अपने ‘गुरतुर गोठ’ में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगें )

कहानी रूपांकन -
संजीव तिवारी

सलवा जूडूम पार्टी : चुनाव हेतु तैयार

राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा पिछले दिनों सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत जांच रिपोर्ट के अनुसार न्‍यायालयीन सत्‍य के रूप में प्रस्‍तुत नौ अध्‍यायों की कथा व्‍यथा के अनुसार छत्‍तीसगढ में ‘स्‍वस्‍फूर्त’ जागृत जन आंदोलन ‘सलवा जूडूम’ का बीज तब अंकुरित हुआ जब बीजापुर के भैरमगढ विकासखण्‍ड के गांम कुटरू के आदिवासियों नें नक्‍सली जुल्‍म व तानाशाही से मुक्ति पाने हेतु गांव में बैठक कर अपने आप को संगठित किया एवं नक्‍सलियों का प्रतिकार करने का निश्‍चय किया । इस जन आन्‍दोलन को पूर्व में भी सहयोग कर चुके नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा नें इसे नेतृत्‍व प्रदान किया । धीरे धीरे यह आंन्‍दोलन गांव गांव में बढता गया जो लगभग 644 गांवों तक बढता चला गया ।

वर्तमान में इस आंन्‍दोलन का स्‍वरूप शरणार्थी शिविर के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं रह गया है किन्‍तु जब सन् 2005 में महेन्‍द्र कर्मा नें इसे जन आन्‍दोलन का स्‍वरूप दिया एवं आदिवासियों के भाषा के अनुरूप ‘सलवा जुडूम’ का नाम दिया। तब आदिवासियों में जागरूकता फैलाने का कार्य वहां के कुछ व्‍यक्तियों नें आगे बढकर मृत्‍यु फरमान का परवाह किये बिना लम्‍बी भागदौड व जन संपर्क करते हुए किया । इनमें से एक स्‍थानीय सहायक शिक्षक सोयम मुक्‍का भी था जिसके संबंध में कहा जाता है कि वह सलवा जुडूम के परचम को फहराने में आरंभ से अहम भूमिका निभाते रहा । आदिवासी होने एवं गजब की नेतृत्‍व क्षमता के कारण आदिवासी उसकी बातों को मानते रहे हैं एवं उसका अनुयायी बनने सलवा जुडूम का साथ देते रहे हैं । नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा के अतिरिक्‍त किसी और कद्दावर जुडूम नेतृत्‍व की बातें जब होती है तब सोयम का नाम उभर कर सामने आता रहा है ।

कहते हैं सोयम मुक्‍का अपने शिक्षकीय कर्तव्‍य के निर्वहन में तदसमय असमर्थ रहा क्‍योंकि नक्‍सली स्‍कूलों में बच्‍चों को पढने से मना करते थे और स्‍कूल जला देते थे, किन्‍तु इसने अपने मानवीय कर्तव्‍यों का बेहतर निर्वहन करते हुए नक्‍सलियों के जुल्‍म के प्रतिकार के लिए आदिवासियों के दिलों में साहस का जो भाव एवं ओज पैदा किया वह अतुलनीय रहा ।

पिछले दिनों समाचार पत्रों से जानकारी मिली कि सोयम मुक्‍का के विरूद्ध विभागीय जांच कराए जाने का आदेश सरकार के द्वारा हुआ है जिसमें उस पर अपनी ड्यूटी से लम्‍बे समय से अनुपस्थित रहने व दायित्‍वों के पालन में कोताही बरतने का आरोप लगाया गया था । यह आदेश मानवाधिकार आयोग के सलवा जुडूम पर सरकार को तथाकथित ‘क्‍लीन चिट’ के तुरंत बाद जारी हुआ था । इस समाचार के पीछे की राजनीति स्‍पष्‍ट हो चुकी थी क्‍योंकि सलवा जुडूम शिविरों में सोयम की लोकप्रियता राजनैतिक चश्‍में से देखी जाने लगी थी । लगभग 60000 की संख्‍या वाले जुडूम अनुयायियों को बतौर मतदाता तौला जाने लगा था । सुगबुगाहट एवं खुशफहमी में सोयम के पर भी फडफडाने लगे थे जिसका वह अधिकारी भी था किन्‍तु उसका पर कुतरने के लिए जांच की तलवार उस पर लटका दी गई थी ।

कल समाचार आया कि सोयम मुक्‍का कोटा (अजजा) विधान सभा सीट से निर्दलीय प्रत्‍यासी के रूप में नामांकन दाखिल करने वाले हैं एवं उसने सहायक शिक्षक के पद से स्‍तीफा दे दिया है । समाचार दिलचस्‍प है एवं कोंटा से भाजपा के घोषित उम्‍मीदवार पदाम नंदा एवं कांग्रेस व कम्‍यूनिस्‍ट के उम्‍मीदवारों को चक्‍कर में डालने वाला है , क्‍योंकि सोयम को पडने वाले वोट यदि अन्‍यथा प्रभावित हुए बिना पडते हैं तो वह जुडूम के अनुयाइयों के वोट होंगें क्‍योंकि वह उनका हमसफर रहा है । इसके साथ ही वोटों की संख्‍या यह भी बतलायेगी कि सलवा जुडूम सचमुच आदिवासियों के हित के लिए समर्थित था या राजनैतिक स्‍वार्थवश ।


(मुझे चुनाव समाचार विश्‍लेषणों की समझ नहीं है किन्‍तु विमर्श के लायक समाचार पर चर्चा करने का प्रयास किया है शायद आप इससे सहमत हों ................  )


संजीव तिवारी

उदंती डाट काम डॉ. रत्‍ना वर्मा की पत्रिका www.udanti.com पर उपलब्‍ध

'पत्रकारिता की दुनिया में 25 वर्ष से अधिक समय गुजार लेने के बाद मेरे सामने भी एक सवाल उठा कि जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर ऐसा क्या रचनात्मक किया जाय जो जिंदा रहने के लिए आवश्यक तो हो ही, साथ ही कुछ मन माफिक काम भी हो जाए। कई वर्षों से एक सपना मन के किसी कोने में दफन था, उसे पूरा करने की हिम्मत अब जाकर आ पाई है। यह हिम्मत दी है मेरे उन शुभचिंतकों ने जो मेरे इस सपने में भागीदार रहे हैं और यह कहते हुए बढ़ावा देते रहे हैं कि दृढ़ निश्चय और सच्ची लगन हो तो सफलता अवश्य मिलती है।' 

यह उदंती डाट काम के संपादक, प्रकाशक व मुद्रक डॉ. रत्‍ना वर्मा के अंतरमन से निकले शव्‍द हैं जिन्‍हें रूपांतरित करने के लिए उन्‍होंनें उदंती डाट काम के आनलाईन और प्रिंट प्रकाशन का निर्णय लिया और  अपने स्‍वप्‍नों को साकार करते हुए विगत दिनों प्रदेश के मुख्‍य मंत्री डॉ. रमन सिंह के करकमलों इस पत्रिका के प्रिंट वर्जन  का  विमोचन करवाया ।
डॉ. रत्‍ना वर्मा जी के इस कार्य को आनलाईन ब्‍लाग प्‍लेटफार्म देनें हेतु हमने सहयोग किया और आरंभिक तौर पर इसे www.udanti.com पर होस्‍ट कर पब्लिश कर दिया । प्रदेश की राजधानी में इस संबंध में आज समाचार प्रकाशित भी हुए हैं, हम ब्‍लागर्स साथियों के लिए इस पत्रिका की लिंक व विषयक्रम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं :-

अंक 1, अगस्‍त 2008

अनकही :
संपादक की कलम से
पत्रिकायें नियमित अंतराल के बाद हर बार एक नया अंक प्रस्‍तुत करती हुई प्रवाहमान रहती है अत: पत्रिकाओं को रचनात्‍मक विचारों की नदी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी आगे पढे


कृषि /छत्‍तीसगढ :
खुशहाली के इंतजार में धान का कटोरा - चंद्रशेखर साहू

पर्यटन / नीति :
देश के पर्यटन नक्‍शे पर छत्‍तीसगढ कहां है ? - विनोद साव


उदंती :
खूबसूरत गोडेना फॉल - संतोष साव


इंटरनेट / सर्फिंग :
आभासी दुनियां के दीवाने ब्‍लागर्स - संजीव तिवारी

सेवा /स्‍वर्ण जयंती वर्ष :
सृजन का पर्याय भिलाई महिला समाज - ललित कुमार

इतिहास से / खजाना :
ओ मेरे सोना रे, सोना रे . . . - प्रताप सिंह राठौर

बस्‍तर / जीवन शैली :
गोंड जनजाति का विश्‍वविद्यालय घोटुल - हरिहर वैष्‍णव
छोटे परदे की टीआरपी बढाते बडे सितारे - डॉ. महेश परिमल

संस्‍मरण / बचपन के दिन :
सॉंस सॉंस में बसा देहरादून - सूरज प्रकाश


मन की गांठ / आदत :
कृपया क्षमा कीजिए - लोकेन्‍द्र सिंह कोट

लोकगीतों में छत्तीसगढ की पारंपरिक नारी

छत्तीसगढ आरंभ से ही धान का कटोरा रहा है यहां महिलायें पुरूषों के साथ कंधे में कंधा मिलाते हुए कृषि कार्य करती रही हैं । कृषि कार्य महिला और पुरूष दोनों के सामूहिक श्रम से सफल होता है जिसके कारण हमेशा दोनों की स्थिति समान ही रही है, खेतों में दोनों के लिए अलग अलग कार्य नियत हैं । नारी और पुरूष के श्रम से ही छत्तीसगढ में धान के फसल लहलहाये हैं । इसकी इसी आर्थिक समृद्धि के कारण वैदिक काल से लेकर बौद्ध कालीन समयों तक छत्तीससगढ सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से भी उन्नति के शिखर में रहा है । छत्तीसगढ के बहुचर्चित राउत नाच में एक दोहा प्राय: संपूर्ण छत्तीसगढ में बार बार गाया (पारा) जाता है जो छत्तीसगढ में नारियों की स्थिति को स्पष्ट‍ करती है और इस दोहे को नारी सम्मान व समानता के सबसे पुराने लोक साक्ष्य के रूप में स्वीकारा जा सकता है ।‘नारी निंदा झन कर दाउ, नारी नर के खान रे । नारी नर उपजावय भईया, धुरू पहलाद समान रे ।।‘यह दोहा नारी के सम्मान को उसी तरह से परिभाषित करती है जिस तरह से संस्कृत के यत्र नारी पूज्यंतें तत्र .... वाक्यांशों का महत्व है ।

छत्तींसगढ की पारिवारिक परंपरा के इतिहास पर नजर डालने से यह ज्ञात होता है कि यहां संयुक्त परिवार की परम्पंरा रही है जो आज तक गावों में देखने को मिलती है । संयुक्त परिवार में आंसू भी हैं तो मुस्कान भी हैं, यहां परिवार के सभी सदस्य हिल मिल कर रहते हैं और कृषि कार्य करते हैं । बडे परिवार में मुखिया के कई बेटे बहू एक साथ रहते हैं । जहां वय में कुछ बडी कन्या बालिकायें परिवार के छोटे बच्चों का देखरेख उस अवसर पर बेहतर करती हैं जब उनके अभिभावक खेतों में काम से चले जाते हैं । इस अवसर पर छोटे बच्चों को सम्हालने के लिए नारीसुलभ वात्सल्य प्रवृत्ति के कारण बालिकायें छोटे भाई बहनों का देखरेख बेहतर करती हैं एवं पेज पसिया पकाती है और मिलजुल कर खाती है । यहीं से परिवार में नारी के प्रति विशेष श्रद्धा एवं सम्मान का बीजोरोपण आरंभ होता है । अपने से बडी बहन से प्राप्तम स्नेह व प्रेम के कारण भावी पीढी के मन में नारी के प्रति स्वाभाविक सम्मान स्वमेव जागृत हो जाता है ।

पुराने समय में बालिका अवस्था में ही छत्तीसगढ में बालविवाह की प्रथा के कारण उनका विवाह भी कर दिया जाता था । इससे परिवार में दुलार करने वाली एवं दुलार पाने वाली बेटी को दूसरे के घर में भेजे जाने का दुख पूरे परिवार को होता था । मॉं अपनी छोटे उम्र की बेटी के बिदा के अवसर पर गाती है ‘कोरवन पाई पाई भांवर गिंजारेव, पर्रा म लगिन सधाये हो, नान्हें म करेंव तोर अंगनी मंगनी, नान्हें म करेंव बिहाव वो ।‘बेटी इतनी छोटी है कि उसे एक दिन के लिये भी उसके पति के घर में भेजने पर सभी को दुख होता है । यद्धपि विवाह बाद कन्या को मॉं बाप अपने घर वापस ले आते हैं फिर वय: संधि किशोरावस्था में उसका पति उसे कृषि कार्य में हाथ बटाने या घर में चूल्हा चौका करने के उद्देश्य: से गवना करा कर लाता है जहां वह सारी उम्र के लिए आ जाती है । कन्या को यह नया परिवेश तत्काल रास नहीं आता, इसीलिये गीत फूटते हैं ‘काखर संग मैं खेलहूं दाई काखर संग मैं खाहूं ओ’ । खेलने खाने की उम्र में बहू शव्द और दायित्व का भार उसे रास नहीं आता । ससुराल में उसका अपना कहने के लिए एकमात्र पति ही रहता है जिसे वह अपना मित्र मानती है और उसके साथ बालिका वधु की भांति खेलती है धीरे धीरे वह पारिवारिक दायित्वों को सम्हालते हुए सांसारिक व्यवहार को सीखती है ।

शिक्षण प्रशिक्षण के इस खेल में संयुक्त परिवार के कारण कई पारिवारिक रिश्तेरदारों से सामना होता है, रेगिंग भी होती है जिसमें प्राचार्य के रूप में उसकी सास हर कदम पर उसे रोक टोंक कर सामाजिक बनाती है वहीं नंनद, जेठानियॉं व देवरानियों से स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा के कारण उसकी खट पट चलती है पर उन सब के प्रति स्नेग व सम्मान की घूंटी भी वह इसी पाठशाला से पाती है । पुत्रवत देवर को अपनी व्यथा सुनाती बहु कहती है ‘सास गारी देवय, नंनद मुह लेवय देवर बाबू मोर ...’ । श्वसुराल में छोटे ननद देवरों के प्रति भाई बहन की भांति प्यार उडेलने का जजबा छत्तीसगढ की नारियों की परम्परा रही है । ‘छोटका देवर मोर बेटवा बरोबर’ कहने का तात्पर्य विशद है यह गीत यहां की नारियों के वात्सल्य को चित्रित करती है । नंनदों से खटपट के बावजूद भाभी पुत्र जन्म पर उन्हें मनपसंद साडी और सोने का ‘कोपरा’ देने की निष्छरल कामना रखती है वहीं क्षणिक क्रोधवश सास, नंनद व देवरानी, जेठानी के प्रसूता अवस्था में साथ नहीं दिये जाने पर अपने मायके से मॉं, बहन व भाभियों से अपनी प्रसूता कराने ‘कांकें पानी’ बनाने का गीत भी गाती है ।

इस संयुक्त परिवार की परिस्थितियों में परिवार के नारियों के बीच स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा एवं जलन की भावना भी अंदर अंदर पनपते रहती है । ननद और भावज के बीच छुटपुट झडपें व असंतोष गीतों में प्रकट होती हैं । ननद अपने विवाह के बाद घर छूट जाने के दुख पर गाती है । ‘दाई ददा के इंदरी जरत हे, भउजी के जियरा जुडाय हो’ । मां पिता अपनी कमवय पुत्री को पराया घर भेज कर दुखी हैं पर भाभी रंगरेली नंनद को अपने घर से दूर भेजकर अपनी स्वतंत्रता के लिए खुश है क्योंकि उसे पता है कि छोटी ननद बहुत रंगरेली है सास को बात बात में चुगली लगाती है । ‘छोटकी नंनदिया बड रंगरेली हो, सास मेर लिगरी लगाय ।‘ इसी संयुक्त परिवार में नारी को नारी के द्वारा प्रतारण का भी उल्लेख मिलता है जो वर्चस्व की अंदरूणी लडाई है । नई आई वधु पर सब अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं कभी कभी तो यह दबाव इतना अधिक बढ जाता है कि उसे कहना पडता है कि ‘ठेंवत रहिथे ननंद जेठानी, लागथे करेजवा म ठेस, महुरा खा के मैं सुत जातेंव, मिट जाय मोर कलेश ।‘ इस पारिवारिक राजनीति व दमन के कष्ट को सहते हुए भी वधु अपने परिवार के हित की बात ही सोंचती है और कामना करती है कि अपनों से बडों को सम्मान और छोटों को स्नेह देती रहे । छोटी ननदों व देवरानियों पर तो उसका स्नेक अपार रहता है क्योंकि जो कष्ट उसने इस संयुक्त परिवार में शुरूआती दिनों में भोगें हैं वह उसके बाद आई बहुओं को न हो इसलिये वह देवरानियों का हर वक्त ध्यान रखती है उन्हें उचित आसन सम्मान देती है । ‘गोबर दे बछरू गोबर दे, चारो खूंट ला लीपन दे, चारो देरनियां ला बईठन दे ।‘

छत्तीसगढ में संयुक्त परिवार के साथ साथ रख्खी, बिहई जैसे बहुपत्नी‍ प्रथा का भी चलन रहा है जिसके कारण यहां के कुछ गीतों में नारी रूदन नजर आता है । सौतिया डाह में जो गीत मुखरित हुए है वह हृदय को तार तार कर देते हैं । सौतिया डाह का दर्द पत्नी के संपूर्ण जीवन में कांटे की तरह चुभता है तभी तो वह ‘मोंगरा’ में कहती है ‘पीपर के झार पहर भर, मधु के दुई पहर हो, सउती के झार जनम भर, सेजरी बटौतिन हो ।‘ एक लोकोक्ति में कहा गया कि ‘पीपर के पाना हलर हईया, दूई डौकी के डउका कलर कईया’ । लोकोक्तियों नें अपना प्रभाव समाज में छोडा है और अब यह प्रथा कही कहीं अपवाद स्वरूप ही समाज में है और धीरे धीरे बहु पत्नी प्रथा समाप्ति की ओर है । इस दुख के अतिरिक्त नारी जीवन में अन्यान्य विषम परिस्थितियां होती है जिससे वह लडते हुए आगे बढती है इसीलिये एक लोक गीतों में छत्तीसगढ की नारी ‘मोला तिरिया जनम झनि देय‘ का आर्तनाद करती है तो मन संशय से घिर जाता है कि यहां नारी की स्थिति ऐसी भी थी जिससे नारियों को अपने नारी होने की पीडा का अनुभव हुआ और उसने नारी के रूप में पुन: जन्म न देने के लिये इश्वर से पार्थना करना पडा । नारी के इस रूदन को आधुनिक युग में कहानियों व उपन्यासों में भी व्यक्त करने की कोशिसें की गई है । हमने नारी के इस दुख के पहलुओं को यहां के पारंपरिक गीतों और गाथाओं में कई बार तलाशने का प्रयत्न किया तो दुख के इस पडले से ज्यादा सुख एवं सम्मान का पडला हमें भारी नजर आया ।

संजीव तिवारी

कवि गोष्ठियों को ‘’भजन मंडलियॉं’’ मत बनाइये

तुलसीदास : ’’कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई (वही कीर्ति, रचना तथा सम्‍पत्ति अच्‍छी है, जिससे गंगा नदी के समान सबका हित हो)’’
सम सामयिक चेतना की छंद धर्मी, स्व . रामेश्वर गुरू तथा स्व. विश्वंभर दयाल अग्रवाल पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त मासिक पत्रिका ‘’संकल्प रथ’’ के जुलाई 2008 के संपादकीय में आदरणीय राम अधीर जी वर्तमान परिवेश में देश के गली कूचों पर धडा धड आयोजित होते कवि सम्मेलनों के संबंध में देश के ख्यात कवियों व साहित्य कारों के विचार कि आज के कवि सम्मेलन तो ‘’लाफ्टर शो’’ हो गए हैं, पर कहते हैं - ’’मुझे उनकी बातों से सहमत होना पडता है, किन्तु ऐसी खरी-खोटी टिप्पणी करने वाले ये गीतकार दो कौडी के हास्य कवियों के साथ मंचों पर क्यों बैठते हैं ? इसके पीछे उनकी धन-लोलुपता है । जबकि चुटकुलेबाजी में माहिर और विदेशों तक में जाने वाले कवियों नें हिन्दी कविता को द्रौपदी बनाकर रख दिया है । ऐसी दशा में नामवर गीतकारों को ऐसे मंचों का बहिष्कार करना चाहिये । जिन पर बहुत ही घटिया दर्जे के हास्य कवियों का जमवाडा हो । परन्तु , नहीं उन्हें तो पैसा चाहिये । मैं जहां तक समझता हूं हास्य-व्यंग के कवियों को हम नहीं सुधार सकते परन्तु नितांत ही चौथे दर्जे के श्रोताओं को सुधारना जरूरी है जो सबसे आगे बैठते हैं और कविता को मूंगफली खाते-खाते सुनते हैं । सवाल है कि कूसूरवार कौन है- आप या वे घटिया दर्जे के हास्य कवि ?’’
आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल : ‘’कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्‍यत्‍व की उच्‍च भूमि पर ले आती है ।’’


श्री राम अधीर जी के सवाल का जवाब देना हमारे लिये लाजमी भले ही न हो पर, उनके इस सवाल पर चिंतन आवश्यक है । आज कविता के स्तर कवि सम्मेलनों में परोसे जाने वाली फूहडता व नाटकीय भव्यता एवं इनकी बारंबारता को देखते हुए ही संपादक नें इसे ‘’भजन मंडली’’ मत बनाओ कहा है, और इन आयोजनों के कर्णधारों पर बरसते हुए वे कहते हैं - ’’मतलब यह कि जिन्हें कुछ लिखने-पढने से मतलब नहीं उनको आप कवि बनाने की ठेकेदारी कर रहे हैं, तो फिर यही उचित रहेगा कि गीत, गजल को मरने दीजिये । किसी की रचना को आपने कमजोर कह दिया तो वह नाराज हो जायेगा, यही डर आपको खाये जा रहा है तो गीत-गजल को बर्बाद करने वालों का आपकी ओर से अभिनन्दन होना चाहिये ।‘’

अजीत कुमार सिन्‍हा : ‘’वह उस तरह का साहित्‍य भी रचने लगता है, जो बहुत बार, शायद निकलता तो उसी के भीतर से है, पर खुद उसके भी अंतर में पहुँच नहीं पाता । औरों की बात उठाना यहॉं इसलिये मौजूं नहीं जान पडता, क्‍योंकि ऐसा कवि ‘उपजहि अनत, अनत छबि लहहीं (रचना उत्‍पन्‍न हो कवि के मन में, पर शोभा पाए अन्‍य लोगों के मन में) को बेमानी समझकर, रचना को एक ऐसा इंद्रजाल मानने लगा है, जो न कहीं उत्‍पन्‍न हो, न कहीं फैले, लेकिन ‘वाह’वाह’ चारो तरफ से सुनाई दे ।‘

आजकल इन भजन मंडलियों में शिरकत करने के लिये लालायित अनेकों कवि भी कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो गए हैं, दो शब्दों की तुकबंदी की या आडे तिरछे भावों को एक साथ मिलाकर काकटेल तैयार किया कागज में उकेरा और हो गए कवि, अब झेलो इन्हें । वर्तमान कविता पर हाल ही में प्रकाशित कृति ‘’इधर की हिन्दीं कविता’’ के लेखक अजीत कुमार सिन्हा जी जो अग्रज पीढी की महिला गीत-कवयित्री स्व.सुमित्रा कुमारी सिन्हा के प्रतिभासंपन्न सुपुत्र हैं, नें अपने लेख ‘गांव के लोगों तक कैसे पहुँची कविता’ पर समीक्षकों के दायित्व पक्ष पर जो विचार व्यक्त, करते हैं उसकी आज अहम आवश्यकता है - ’’बहरहाल, कवि क्या लिखे और कैसे लिखे  – तुलसीदास और शेखर की तरह अथवा केशवदास और पुंडरीक की तरह । इसके बारे में, न मैं कुछ कह सकने की स्थिति में हूँ, न यह अधिकार लेना चाहता हूं । लेकिन सोंचता जरूर हूं कि कविता के समीक्षक पर इसकी जिम्मेदारी है कि आज की कविता की विशेषता का विवेचन ऐसी भाषा में और इस ढंग से करें कि कविता का सौंदर्य अधिक से अधिक लोगों के लिए उजागर हो सके ।‘’

इस विषय पर चर्चा करते हुए हमारे एक ब्लाग पाठक मित्र कहते हैं कि यह बात तो तुम्हारे हिन्दी ब्‍लाग जगत में भी हो सकता है । तब वहां भी ऐसे समीक्षकों के टिपियाने की आवश्य‍कता पडेगी नहीं तो वहां भी कविता के नाम पर आरती संग्रह प्रकाशित होने लगेंगें । हमने कहा अभी हिन्‍दी ब्लाग में ऐसी स्थिति नहीं आई है और जब आयेगी तब तक समीक्षक लोग भी ब्‍लाग जगत में आ जायेंगें । क्‍या सोंचते हैं आप ????.

अहिमन कैना : छत्तीसगढी लोक गाथा

रानी अहिमन राजा बीरसिंग की पत्‍नी है । एक दिन उसे तालाब में स्‍नान करने की इच्‍छा होती है इसके लिये वह अपनी सास से अनुमति मांगती है । उसकी सास कहती है कि घर में कुंआ बावली दोनो है तुम उसमें नहा लो तालाब मत जाओ तुम्‍हारा पति जानेगा तो तुम्‍हारी खाल निकलवा लेगा । अहिमन बात नहीं मानती और अपनी चौदह सेविकाओं के साथ तालाब स्‍नान के लिये मिट्टी के घडे लेकर निकल पडती है । तालाब में नहाने के बाद वह अपनी मटकी को खोजती है । उसकी मटकी को तालाब में आये एक व्‍यापारी अपने कब्‍जे में ले लेता है अहिमन के मटकी मांगने पर व्‍यापारी उसे पासा खेलने पर देने की बात कहता है ।


अहिमन कैना पासा के खेल में अपने सभी गहने हार जाती है और दुखी मन से कहती है कि अब जा रही हूं गहने नही देखने पर मेरे सास ससुर मुझे गाली देंगें । तब व्‍यापारी उसे उसका मायका व ससुराल के संबंध में पूछता है । अहिमन बताती है कि दुर्ग के राजा उसके भाई है और दुर्ग उसका ससुराल है । व्‍यापारी का दुर्ग राजा (महापरसाद) मित्र रहता है अत: वह उसे बहन मान सभी हारे गहनो के स्‍थान पर नये गहने, सोने का मटका व नई साडी देता है । अहिमन अपने सेविकाओं के साथ अपने घर पहुचती है । राजा बीरसिंग नई साडी को देखकर शंका में अति क्रोधित हो जाता है और तत्‍काल अहिमन को लेकर उसके मायके छोडने जाता है । गांव से बाहर होते ही राजा बीरसिंह क्रोध में उसका बाल पकड कर घोडे के पूंछ में बांध देता है और घोडा दौडा देता है । अहिमन कैना का शरीर निर्जीव सा हो जाता है पर क्रोधित राजा बीरसिंह उस निढाल शरीर को तलवार से दो तुकडे कर देता है और अपने घर आ जाता है ।


इधर व्‍यापारी के बैलों का खेप इस स्‍थान पर आकर रूक जाता है आगे नहीं बढता तब ब्‍यापारी को इस बात की जानकारी होती है तो वह अहिमन कैना के लाश के पास जाता है और भगवान से अपनी बहन की प्राणों की भीख मांगता है उसकी आर्तनाद एवं अहिमन कैना की पतिव्रत के जोर से भगवान शंकर का आसन डोलने लगता है । भगवान शंकर व पार्वती आते हैं और अहिमन कैना को जीवित कर देते हैं ।


अहिमन कैना अपने व्‍यापारी भाई के साथ अपने ससुराल में आती है और तम्‍बू लगाती है । व्‍यापारी के पास व्‍यापार हेतु धन धान्‍य का भंडार है, अहिमन कैना गेहूं पिसने के लिये गांव में हाथ चक्‍की खोजते अपने पति के घर में ही आती है उसके पति उसे नहीं पहचानते और उस पर आशक्‍त हो जाते हैं । राजा बीरसिंह व्‍यापारी से उसकी बहन का हाथ मागता है । व्‍यापारी राजा को अहिमन को सौंप कर आर्शिवाद देता है कि तुम अपनी ही पत्‍नी को नहीं पहचान पाये अब खावो पीओ और सुख से रहो ।


मूल छत्‍तीसगढी में वाचिक परम्‍परा में गाई जाने वाली इस गाथा में नारी के निष्‍छल पति प्रेम के साथ ही परदेशी के द्वारा सगे भाई जैसे व्‍यवहार का चित्रण मिलता है जो यह दर्शाता है कि छत्‍तीसगढ की परम्‍परागत नारियों में पति के प्रति प्रेम, निष्‍ठा व श्रद्धा का भाव पति द्धारा मृत्‍यु तुल्‍य कष्‍ट देने के बावजूद बरकरार रहता है ।

मूल छत्‍तीसगढी में इस गाथा को मेरे छत्‍तीसगढी ब्‍लाग 'गुरतुर गोठ' में आप पढ सकते हैं ।


भूमकाल : बस्तर का मुक्ति संग्राम

भारत स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन की 150 वीं वर्षगांठ मना रहा है । भारत के कोने कोने से 18 वीं सदी में अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में उठी चिंगारियों से देश रूबरू हो रहा है । नृत्‍य, नाटिका, कविता, लेख व कहानियों के द्वारा इस महान व पवित्र संग्राम की गाथाओं को प्रस्‍तुत किया जा रहा है और हम पूर्ण श्रद्धा से उन अमर सेनानियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्‍यक्‍त कर रहे हैं । छत्‍तीसगढ की धरती भी इस स्‍वतंत्रता आंदोलन के महायज्ञ में अपनी आहुति देती रही जिसके संबंध में इन दिनों लगातार लिखा गया और राज्‍य के श्रेष्‍ठ मंच निर्देशकों के द्वारा इसे मंचस्‍थ भी किया गया ।

17 वीं एवं 18 वीं सदी के छत्‍तीसगढ की हम बात करें तो यह बहुसंख्‍यक आदिवासी जनजातियों का गढ रहा है और धान, खनिज व वन संपदा से भरपूर होने के कारण अंग्रेज सन् 1774 से लगातार इस सोन चिरैया पर आधिपत्‍य जमाने का प्रयास करते रहे हैं जिसमें आदिवासी, वन व खनिज बाहुल्‍य बस्‍तर अंचल का भूगोल भी रहा है जहां की भौतिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों नें ‘परदेशियों’ को आरंभ से ललचाया है । बस्‍तर वनांचल क्षेत्र रहा है जहां सदियों से पारंपरिक जनजातियां मंजरों, टोलों व गांवों में शांति के साथ निवास करती रही है । काकतीय नरेशों व पारंपरिक देवी दंतेश्‍वरी की उपस्थिति इस सुरम्‍य वनांचल की अस्मिता रही है एवं ये आदिवासी दैवीय सत्‍ता के प्रतिरूप के रूप में राजा को अपना सबकुछ मानते रहे हैं । परम्‍पराओं के अनुसार उनके लिये राजा के अतिरिक्‍त किसी और की सत्‍ता स्‍वीकार्य नहीं रही है ऐसे में वे हर घुसपैठ का जमकर मुकाबला करने को सदैव उद्धत रहे हैं । आदिवासी अस्मिता में चोट के कारण उस सदी में लगभग दस विद्रोह हुए थे जिनमें भूमकाल का विद्रोह जनजातीय इतिहास में एक अविस्‍मरणीय विद्रोह था ।


आईये हम उस समय में बस्‍तर अंचल की स्थितियों पर एक नजर डालें । 17 वीं सदी के मध्‍य तक काकतीय नरेश बस्‍तर क्षेत्र में अपनी राजधानी दो तीन जगह बदलते हुए जगदलपुर में अपनी स्‍थाई राजधानी बना कर राजकाज करने लगे थे प्रजापालक राजाओं से जनता प्रसन्‍न थी । सन् 1755 में नागपुर के मराठों नें छत्‍तीसगढ के सभी क्षेत्रों में मराठा सत्‍ता कायम कर लिया तब अन्‍य गढो सहित बस्‍तर के राजाओं से अधिकार छीन लिये थे । इस प्रकार से बस्‍तर के भी राजा नाममात्र के सील ठप्‍पा ही रह गये थे । इधर संपूर्ण भारत में धीरे धीरे पैर जमाती ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी नें सन् 1800 में रायगढ राज में अपना घुसपैठ कायम कर छत्‍तीसगढ में अंग्रेजी सत्‍ता का ध्‍वज फहरा दिया था । इसके बाद के वर्षों में अंग्रेजों की कुत्सित मनोवृत्ति नें विरोध व विद्रोहों का निर्ममतापूर्वक दमन करते हुए सन् 1891 तक छत्‍तीसगढ के अन्‍य गढों में भी अपना कब्‍जा कर लूट खसोट के धंधे को मराठों से छीन लिया था ।


पहले ही बतलाया जा चुका है कि बस्‍तर में अंग्रेजी हुकूमत एवं आताताईयों के विरूद्ध लगभग नव विद्रोह हो चुके थे । बारंबार विद्रोहों के कुचले जाने के कारण स्‍वाभिमान धन्‍य शांत आदिवासी अपनी अस्मिता के लिये उग्र हो चुके थे उनके हृदय में ज्‍वाला भडक रही थी । ऐसे समय में 1891 में अंग्रेज शासन के द्वारा बस्‍तर का प्रशासन पूर्ण रूप से अपने हाथ में लेते हुए तत्‍कालीन राजा रूद्र प्रताप देव के चाचा लाल कालेन्‍द्र सिंह को दीवान के पद से हटाकर पंडा बैजनाथ को बस्‍तर का प्रशासक नियुक्‍त कर दिया गया । पंडा बैजनाथ के संबंध में यह कहा जाता है कि वह एक बुद्धिमान व दूरदर्शी प्रशासक था उसने तत्‍कालीन राजधानी जगदलपुर का मास्‍टर प्‍लान बनाया था एवं बस्‍तर में विकास के लिये विभिन्‍न जनोन्‍मुखी योजना बनाकर उसे प्रशासनिक तौर पर कार्यान्वित करवाने लगा था ।


इन योजनाओं के कार्यान्‍वयन में अंग्रेजी हुकूमत के कारिंदों के द्वारा आदिवासियों पर जम कर जुल्‍म ढाये गये । अनिवार्य शिक्षा के नाम पर आदिवासियों के बच्‍चों को जबरन स्‍कूल में लाया जाने लगा एवं विरोध करने पर दंड दिया जाने लगा । सुरक्षित वन के नियम के तहत् जंगल पर आश्रित आदिवासियों को अपने ही जल जंगल व जमीन से हाथ धोना पड रहा था या भारी भरकम जंगल कर देना पड रहा था । लेवी एवं अन्‍य करों का भार बढ गया था विरोध करने पर अंग्रेजी हुक्‍मरानों के द्वारा बेदम मारा जाता था एवं कारागारों में डाल दिया जाता था । पंडा बैजनाथ के द्वारा तदसमय में शराब बंदी हेतु बनाये नियमों के तहत् शराब विक्रय को केन्‍द्रीकृत करने ठेका देने व घर घर शराब निर्माण को बंद कराने का आदेश पारित किया गया था, आदिवासियों की मान्‍यता के अनुसार उनके बूढा देव को शराब का चढावा चढता था एवं वे उसे प्रसाद स्‍वरूप ग्रहण करते थे ऐसे में उन्‍हें लगने लगा कि उनके देव के साथ, उनकी धर्मिक मान्‍यताओं के साथ खिलवाड किया जा रहा है । पंडा बैजनाथ के द्वारा प्रशासनिक ढांचा तैयार करने के उद्देश्‍य से बस्‍तर के बडे गांव एवं छोटे नगरों में पुलिस व राजस्‍व अधिकारियों की नियुक्तियां की गई एवं वे कर्मचारी आदिवासियों की सेवा करने के स्‍थन पर उनका शोषण ही करते गये । कुल मिला कर बस्‍तर की रियाया पंडा बैजनाथ के प्रशासन से त्रस्‍त हो गई थी । उपलब्‍ध जानकारियों के अनुसार बस्‍तर का यह मुक्ति संग्राम पूर्णत: पंडा बैजनाथ के विरूद्ध ही केन्द्रित रहा है ।


इसके साथ ही अन्‍य परिस्थितियों में बस्‍तर को लूटने के उद्देश्‍य से ‘हरेया’ बाहरी लोगों का बेरोकटोक बस्‍तर आना जाना रहा है, अंग्रेजों के द्वारा मद्रास रेसीडेंसी से बस्‍तर प्रशासन को सहयोग करने के कारण मद्रास रेसीडेंसी के ‘तलेगा’ के लोग क्रमश: बस्‍तर आकर बसने लगे थे एवं प्रशासन से साठ गांठ कर के आदिवासियों की जमीन हडपकर खेती और वनोपज पर अपना कब्‍जा जमाने लगे थे और गरीब भोले आदिवासियों से बेगारी कराने लगे थे । एक तो आदिवासियों से उनकी जमीन वन नियम के तहत् छीनी जा रही थी दूसरे तरफ मद्रास के लोग वन भूमि पर कब्‍जा करते जा रहे थे और आदिवासी अपने ही खेतों व जंगलों में बेगारी करने को मजबूर थे । बस्‍तर में खनिज, वनोपज का लूट खसोट आरंभ हो चुका था । ‘बाहरी’ ‘परदेशी’ बस्‍तर के अंदर भाग तक पहुच कर संपदा का दोहन करने लगे थे । आदिवासियों के मन में इस दमन व शोषण के विरूद्ध क्रोध पनपने लगा था ।


उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों के संबंध में जो अटकलें लगाई जाती हैं उसके अनुसार राजा भैरम देव के उत्‍तराधिकारी नहीं रहने व जीवन के अंतिम काल में पुत्र रूद्र देव प्रताप सिंह देव के पैदा होने के कारण जगदलपुर के राजनैतिक परिस्थितियों में उबाल आने लगा था या कृत्तिम तौर पर इसे हवा दिया जा रहा था । राजा भैरमदेव के भाई लाल कालेन्‍द्र सिेह का बस्‍तर में भरपूर सम्‍मान रहा । वह विद्वान एवं आदिवासियों पर प्रेम करने वाला सफल दीवान रहा । संपूर्ण बस्‍तर राजा भैरमदेव से ज्‍यादा लाल कालेन्‍द्र सिंह का सम्‍मान करती थी । तत्‍कालीन राजा भैरमदेव के दो दो रानियों के बावजूद कोई संतान हो नहीं रहे थे ऐसे में लाल कालेन्‍द्र सिंह के मन में यह बात रही हो कि भावी सत्‍ता उसके हाथ में ही होगी यह उनका पारंपरिक अधिकार भी था किन्‍तु रानी के गर्भवती हो जाने पर अपने स्‍वप्‍न को साकार होते न देखकर लाल कालेन्‍द्र सिंह के कुछ आदिवासी अनुयायियों नें यह फैलाना चालू कर दिया कि रानी का गर्भ अवैध है एवं कुंअर रूद्र देव प्रताप सिंह में राजा के अंश न होने के कारण वह भावी राजा बनने योग्‍य नही है उसके इन बातों का समर्थन एक और रानी सुबरन कुंअर नें किया और दबे जबानों से आदिवासियों की भावनाओं को वैध अवैध का पाठ पढाया जाने लगा । परिस्थितियों नें राजा रूद्र प्रताप देव के विरूद्ध असंतोष को हवा दिया और आदिवासियों का साथ दिया । लाल कालेन्‍द्र सिंह एवं रानी सुबरन कुंअर नें आदिवासी जनता पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि किशोर कुंअर रूद्र प्रताप सिंह राजा घोषित होने के बाद भी इन दोनों से डरता था । और वह समय भी आ गया जब लाल कालेन्‍द्र सिंह को दीवान के पद से हटा दिया गया और अंग्रेजों के द्वारा नियुक्‍त प्रशासक पंडा बैजनाथ बस्‍तर का दीवान घोषित हो गया । पूर्व दीवान लाल कालेन्‍द्र सिंह व रानी सुबरन कुंअर की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को विराम लगा दिया गया, आदिवासियों को य‍ह अनकी अस्मिता पर कुठाराघात प्रतीत हुआ ।


उपरोक्‍त सभी परिस्थितियां एक साथ मिलकर भूमकाल विद्रोह की भूमिका रच रहे थे । बारूद तैयार था और उसमें आग लगाने की देरी थी और यह काम किया लाल कालेन्‍द्र सिंह, कुंअर बहादुर सिंह, मूरत सिंह बख्‍शी, बाला प्रसाद नाजीर के साथ में थी रानी सुबरन कुंअर । इन सभी नें मुरिया एवं मारिया व घुरवा आदिवासियों के हृदय में अंग्रेजी हुकूमत प्रत्‍यक्षत: पंडा बैजनाथ के विरूद्ध नफरत को और बढाया एवं इस नफरत नें माडिया नेता बीरसिंह बेदार और घुरवा नेंता गुंडाधूर को विप्‍लव की नेतृत्‍व सौंप दी ।


बेहद प्रभावशाली व्‍यक्तित्‍व के गुंडाधूर नें भूमकाल विद्रोह के लिये आदिवासियों को संगठित करना आरंभ किया । सभी वर्तमान शासन से त्रस्‍त थे फलत: संगठन स्‍वस्‍फूर्त बढता चला गया । इस संबंध में अपने पुस्‍तक ‘बस्‍तर इतिहास व संस्‍कृति’ में लाला जगदल पुरी बतलाते हैं कि गुंडाधूर नें इस क्राति का प्रतीक आम के डंगाल पर लाल मिर्च को बांध कर तैयार किया ‘डारा मिरी’ । यह ‘डारा मिरी’ आदिवासियों के मंजरा, टोला, गांवों में भरपूर स्‍वागत होता एवं आदिवासी इस क्राति की स्‍वीकृति स्‍वरूप इस ‘डारा मिरी’ को आगे के गांव में लेजाते थे । इस पर बस्‍तर के एक और विद्वान जो इन दिनों भोपाल में रहते हैं एवं बस्‍तर विषय पर ढेरों किताबें लिखी हैं, डॉ. हीरालाल शुक्‍ल अपनी किताब ‘छत्‍तीसगढ के जनजातीय इतिहास’ में लिखते हैं कि क्रांति के प्रतीक के रूप में गुंडाधूर के कटार को पूरे बस्‍तर में घुमाया गया, जहां वो कटार जाता था जन समूह गूंडाधूर के समर्थन में साथ देते थे । यह कटार सुकमा के जमीदार के दीवान जनकैया के पास से आगे नहीं बढ पाया क्‍योंकि वह अंग्रेजों का चापलूस था । उसने इस विद्रोह के बढते चरणों की सूचना अंग्रेजी हुकूमत को भेज दी तब तक लगभग 13 फरवरी 1910 तक राजधानी जगदलपुर सहित दक्षिण पश्चिम बस्तर का संपूर्ण भू भाग गुंडाधुर के समर्थकों के कब्जे में हो चुका था । मुरिया राज की स्‍थापना के इस शंखनाद के क्रमिक घटनाक्रम का उल्‍लेख लाला जगदलपुरी अपनी कृति ‘बस्‍तर इतिहास एवं संस्‍कृति’ में करते हुए कहते हैं कि 2 फरवरी से यह विद्रोह अपनी उग्रता में आता गया इस दिन पूसापाल बाजार भरा था, क्रांतिकारियों की भीड नें मुनाफाखोर व्‍यापारियों को भरे बाजार मारा पीटा और उनका सारा सामान लूट लिये उसके बाद 4 फरवरी को कूकानार में दो आदिवासियों नें एक व्‍यापारी की हत्‍या कर दी, 5 फरवरी करंजी बाजार लूट लिया गया । अब तक बस्‍तर में आदिवासियों के द्वारा अंग्रेजी हुक्‍मरानों, व्‍यापारियों जो आदिवासी शोषक थे की जमकर धुनाई होने लगी थी । संचार साधनों व सरकारी इमारतें विरोध स्‍वरूप ध्‍वस्‍त किया जाने लगा था । राजा रूद्र देव प्रताप सिंह स्थिति का सामना करने में असमर्थ थे । बडी मुश्किल से 7 फरवरी को राजा का तार रायपुर पहुंचा तब अंग्रेजों को इस विद्रोह के संबंध में पता चला ।


भीड हर जगह पंडा बैजनाथ को ढूढ रही थी, पंडा अपनी जान बचाते लुकते छिपते रहा । 9 फरवरी को उग्र भीड नें तीन पुलिस वालों को मार डाला । 10 फरवरी को पंडा के अनिवार्य शिक्षा के दबाव एवं पालकों पर जुर्म के विरोध में मारेंगा, तोकापाल और करंजी स्‍कूल जला दिये गये । यह क्रम 16 फरवरी तक चलता रहा, फिर रायपुर व मद्रास रेसीडेंसी से सैन्‍य सहायता पहुचनी आरंभ हो गई थी । अंग्रेज पुलिस अधीक्षक गेयर का मुठभेड खडकाघाट में उग्र क्रांतिकारियों की भीड से हो गया, गेयर के द्वारा भीड पर गोली चलाने का आदेश दे दिया गया जिसमें सरकारी आकडों के अनुसार पांच व गैरसरकारी आंकडों के अनुसार सैकडों आदिवासी मारे गये । गेयर के अंग्रेजी सेना के दबाव में क्रांति कुछ दब सा गया एवं 22 फरवरी तक सभी मुख्‍य 15 क्रांतिकारी नेता गिरफ्तार कर लिये गये । नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन फिर उग्र हो गया 26 फरवरी को 511 छोटे बडे आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिये गये और सभी को सरेआम बेदम होते तक मारा गया और छोड दिया गया ताकि अंग्रेजों का दबदबा बना रहे किन्‍तु विद्रोह न दब सका । सरकारी गोदाम लूटे जाने लगे, छोटे नगरों और कस्‍बों के कैदखानों में बंद कैदियों को छुडा लिया गया । जंगल कानून से त्रस्‍त व परदेशियों के नाम आदिवासियों की जमीन चढा देनें एवं राजस्‍व अभिलेखों में गडबडी करने वाले पटवारियों को चौंक चौराहों में लाकर पीटा गया और उनके पीठ को नंगा कर छूरी के नोक से उसमें नक्‍शे बनाये गये ।


अंग्रेजी हुकूमत नें आदिवासियों के इस विद्रोह को दबाने में अपनी रायपुर व मद्रास रेसीडेंसी की सेना के साथ ही घुडसवार पुलिस व पंजाब बटालियन को भी लगा दिया पर स्‍वस्‍फूर्त संगठित आदिवासियों का समूह अलग – अलग स्‍थानों पर छापामार गुरिल्‍ला युद्ध के तरीकों को अपनाते हुए भारी संख्‍या में अपने पारंपरिक पोशाकों व तीरों से लैस होकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ प्रदर्शन व तोडफोड - आगजनी आदि करने लगते थे और अंग्रेजी सेना के आने तक जंगल में गुम हो जाते थे । अंग्रेज इस लम्‍बी लडाई से त्रस्‍त हो चुके थे ।


25 मार्च 1910 तक यह क्रम चलता रहा । गूंडाधूर शोषित व अत्‍याचार से दमित मूल आदिवासियों के क्रांतिकारी समूह का नेतृत्‍व करता रहा । क्रांतिकारी अपने विजय यात्रा में बढते हुए नेतानार नामक गांव में इकट्ठे हुए यहां अश्‍त्र शस्‍त्र भी इकट्ठे किये गये । कुटिल अंग्रेजों नें आदिवासियों के बीच के ही एक आदिवासी सोनू मांझी को तोड लिया । सोनू मांझी नें अपने ही भाईयों के साथ गद्दारी की, क्रांतिकारियों की सभी सूचनायें अंग्रेजों को देने लगा । उसने 25 मार्च को नेतानार में भारी संख्‍या में क्रांतिकारियों के इकट्ठे होने की सूचना भी अंग्रेजों को दी । अंग्रेजों नें चाल चली वहां प्रशासन के द्वारा सोनू मांझी के सहयोग से भारी मात्रा में शराब व मांस पहुंचाया गया (एने सोनू मांझी बिचार करला/दुई ढोल मंद के नेई देला/चाखना काजे बरहा पीला/अतक जाक के रूढांई देला/सेमली कोनाडी नेला/सोनू मांझी – र अकल निरगम मारला)। लंबे युद्ध के कारण आदिवासी थक गये थे ऐसे में उनका प्रिय पेय भारी मात्रा में मिला तो वे अपना संयम खो बैठे । सभी क्रातिकारियों नें छक कर शराब का सेवन किया और बेसुध हो गये (मंद के दखि करि सरदा हेलाय/बरहा पीला के पोडाई देलाय/मंद संग काजे चाखना करलाय/खाई देलाय हांसि माति/गोठे बाती होई निसा धरि गला/अदगर कुप राति/निसा धरबा के पडला सोई/तीर धनु-कांड भाटा ने ठोई/अतक गियान तिके खंडकी ना रला/मातलाय बुध गुपाई) ऐसे ही समय में सोनू मांझी नें अंग्रेजों की सेना को सूचित किया अंग्रजों नें नेतानार में आक्रमण कर दिया । आदिवासी मुकाबला कर नहीं सके, अंग्रेजी सेना की बंदूकें गरज उठी लडखडाते कदमों व थरथराते हांथों नें तीर कमान तो थामा पर वे मारक वार कर न सके । सैकडों की संख्‍या में आदिवासी पुरूष व महिला क्रातिवीरों का शरीर गोलियों से छलनी होकर नेतानार में कटे पेडों की भांति गिरने गला, धरती खून से लाल हो गई । अंग्रेजों के बंदूकों नें बस्‍तर के मुक्ति संग्राम को नेतानार में सदा सदा के लिये मौत की नीद सुला दिया । भूमकाल के अनगिनत स्‍वतंत्रता के परवाने इस मुक्ति संग्राम की ज्‍वाला में भस्‍म हो गये जिनका नाम तक लोगों के जुबान में नहीं है यही वे सपूत थे जो कलसों की स्‍थापना के लिये संग्राम करते रहे ऐसे ही कंगूरों से स्‍वतंत्र भारत की इमारत खडी हो सकी ।


आलेख एवं प्रस्‍तुति -

संजीव तिवारी

(संदर्भ ग्रंथ : बस्‍तर इतिहास एवं संस्‍कृति – लाला जगदलपुरी, छत्‍तीसगढ का जनजातीय इतिहास – डॉ.हीरालाल शुक्‍ल, आई प्रवीर दि आदिवासी गॉड – महाराजा प्रवीर चंद भंजदेव, मारिया गोंड्स आफ बस्‍तर – डब्‍्ल्‍यू व्‍ही ग्रिग्‍सन, बस्‍तर एक अध्‍ययन – डॉ.रामकुमार बेहार व विभिन्‍न पत्र-पत्रिकायें)

यह लेख स्थानीय लघु पत्रिका 'इतवारी' के 15 जून 2008 के अंक में प्रकाशित हुआ है, इसका ई - संस्करण आप यहां देख सकते हैं पेज क्र. 27 , 28 , 29 , 30 , 31 , 32 , 33

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 5

पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1- 2 - 3- 4

(अंतिम किश्त)


कला व संस्कृति के विकास में हमारे लोक कलाकारों नें उल्ले खनीय कार्य किये हैं इसके नेपथ्य‍ में अनेक मनीषियों नें सहयोग व प्रोत्साहन दिया है किन्तु वर्तमान में इसके विकास की कोई धारा स्पष्ट नजर नहीं आती जबकि हमारी संस्कृति की सराहना विदेशी करते नहीं अधाते, जापान व जर्मनी के लोग हमारे पंडवानी का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और हम स्वयं थोथी अस्मिता का दंभ भरते हुए अपनी लोक शैली तक को बिसराते जा रहे हैं । शासन के द्वारा विभिन्न मेले मडाईयों व उत्सवों का आयोजन कर इसे जीवंत रखने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु हमें इसे अपने दिलों में जीवंत रखना है । डॉ. हीरालाल शुक्ल जी इस संबंध में गहराते संकट को इस प्रकार व्यक्त करते हैं - ’ रचनात्मकता के नाम पर आज जो हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं, वह सृजन क्षमता नहीं, पश्चिम की टोकरी में भरा हुआ कबाड है, जिसको आधुनिक बाजार किशोर संवेदनाओं को उत्तेजित कर संस्कृति के नाम पर बेंच रहा है । कहीं ऐसा न हो कि छत्तीसगढी नाचा सीखने के लिए हमें पश्चिम के किसी विश्वविद्यालय में जाना पडे ।‘


इसी चिंतन को पं.श्यामाचरण दुबे स्पष्ट करते हैं -’सांस्कृतिक चेतना का उदय भविष्य के समाज की उभरती परिकल्पनांए और सांस्कृतिक नीति के पक्ष हमें आश्वस्थ करते हैं कि लोक संस्कृ‍तियां अस्तित्व के संकट का सामना नहीं कर रही, संभावना यही है कि वे पुष्पित पल्लवित और पुष्ट होंगी । लोक संस्कृतियों के संस्कृति की मुख्य धारा में विलियन संबंधी दुराग्रह हमें छोडने होंगें । लोक जगत में उन्हें दूसरी श्रेणी की नागरिकता देना केवल लोक कलाओं के लिए घातक सिद्ध होगा । हमें ऐसा दृष्टिकोण अपनाना है जो लोककलाओं के विकास और उत्कर्ष का मार्ग भी अवरूद्ध न करे, उन्हें अपनी दिशा खोजने का मौका दें और अपनी गति से आगे बढने दें । गांव की धरती छोडकर जब वे महानगरों के मंच पर जायेगी तब उसका रूप तो बदलेगा ही सांस्कृतिक आदान प्रदान भी उन्हें प्रभावित करेगा ।‘


वर्तमान शासकीय योजनाओं एवं सत्य के धरातल पर उपस्थित विकास पर वे आगे कहते हैं - ‘शासन की मंशा के बावजूद ग्रामीण जीवन में आजादी के 25 वर्षो बाद भी कोई बहुत सकारात्मक परिवर्तन नहीं दिखाई देता । शोषण, गरीबी, अत्याचार लगभग उसी रूप में बरकरार है । लेकिन जागृति की किरणें अवश्य दिखाई देती है । दुखित और मरही जैसे लोग हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बदले कुछ मुखर हो चले हैं । उन्हें मालूम हो गया है कि भारतीय गणतंत्र में उनकी भी एक निर्णायक भूमिका है इसलिये दुखों को अपनी नियति समझकर चुप रह जाना कायरता है । इतना ही नहीं सरकारी नीतियों और घोषणाओं का विरोध करते हैं । काल्पनिक पंचवर्षीय योजनाओं की जगह धरती से जुडे हुए क्षे‍त्रीय प्रसाधनों का उपयोग कर हरित क्रांति को सफल बनाने के लिये सही दिशा निर्देश देते हैं । कहना न होगा, लघु सिंचाई योजनाओं का विस्तार सर्वथा उचित एवं क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप है । इसके साथ ही साथ इस पिछडे अंचल में भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादूर शास्त्री के जय जवान जय किसान के नारे के अनुरूप दुखित का हर लडका वीर सैनिक के रूप में सरहद पर अपनी कुर्बानी देता है । दूसरा एक कर्मठ किसान के रूप में स्वावलम्ब न के सपनों को साकार कर रहा है इसके बावजूद लोकगीतों पर आधारित चंदैनी गोंदा का मूल ढांचा परम्परागत है ।‘
विकास और परम्परा दो अलग अलग अस्तित्व को बयां करते हैं, पर कला एवं संस्कृति में परम्पराओं के विकास का प्रभाव धीरे धीरे यदि छाता है तो वह स्वीकार्य होता है किन्तु हमने अपनी परम्पराओं को आज तक कायम रखा है ।


छत्तीअसगढ के प्रथम मुख्य मंत्री अजीत जोगी जी अक्सर ये कहा करते थे कि हम अमीर धरती के गरीब लोग हैं । बार बार पत्र-पत्रिकाओं में यह बात सामने आती रही पर सात साल बाद भी हम अपनी गरीबी ओढे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे । जो अवसरवादी हैं वे राज्य बनने के पूर्व एवं राज्य बनने के बाद भी लगातार इस धरती का दोहने करते आ रहे हैं । पृथ्वी के गर्भ में छिपे अकूत खनिज संम्पदा से लेकर जंगल के उत्पादों तक का लूट खसोट जारी है । लूटने वालों नें मुखौटे बदल लिये हैं पर क्रम बदस्तूर जारी है । छत्तीसगढ में नदियों पर भी जनता का हक नहीं रहा यहां नदियां भी बेंच दी गई अब कहने के लिये मुहावरा शेष नहीं रहा कि नदियां बिक गई ‘पानी के मोल’ और हम अपनी छत्तीसगढी अस्मिता को संजोये बैठे हैं । आदिवासियों को बस्तर हाट में एक किलो चार चिरौंजी के बदले एक किलो नमक मिलता है और बस्त‍र हाट के फुल साईज विज्ञापन पत्र - पत्रिकाओं व राज्य के प्रमुख स्थानों पर बडे बडे होल्डींग्स के लिये जारी होता है जिसका भुगतान करोडो में होता है और आदिवासी उसी चार आने के नमक के लिये रोता है । आदिवासी अस्मिता पर हमले के समाचार समाचारों पर छपते हैं, हम दो चार दिन इस पर ज्ञान चर्चा कर चुप बैठ जाते हैं उसी तरह से जिस तरह से सन् 1755 में हैहयवंशी क्षत्रियों पर मराठा सेनापति भास्कर पंथ नें हमला कर छत्तीसगढ का राज्य हथिया लिया था और हम यह सदविचार को लिये बैठे रहे कि राजकाज व राज्य रक्षा का दायित्व तो राजा का है । यदि उसी समय जनता नें बस्तर के आदिवासियों की तरह बाहरी सत्ता का जमकर विरोध किया होता तो आज छत्तीसगढ का इतिहास कुछ और होता । सदियों तक अंग्रेजों के ताल में ताल ठोंकते रहने एवं शेष छत्तीसगढ के साथ नहीं देने के कारण आदिवासियों की शक्ति भी शनै: शनै: क्षीण हो गई । आरंभ से आदिवासी विरोधियों को सत्‍ता और शक्ति प्रदान किया गया और आदिवासियों पर षडयंत्रपूर्वक दमन व अत्याचार किये गये, वर्षों से इस दुख को झेलते हुए आदिवासियों का स्वाभिमान भी जंगलों में सो गया ।


पिछले दिनों नेट पर सर्फिंग करते हुए मुझे बस्तर के आदिम जनजातियों के कुछ चित्र मिले जिसकी कापीराईट अमेरिका के एक फोटोग्राफर का था और उसमें उल्लेख था कि वह अधनंगी तस्वीर कब कब कहां कहां पोस्टर साईज में लाखों में बिकी थी । ये हाल है हमारी अस्मिता का, हमारी सहजता इनकी प्रदर्शनी की वस्तु है । यहां हमें यह भी सोंचना है कि क्या अकेले इन्ही विदेशियों के हाथों हमारी अस्मिता तार तार हुई है ? नहीं । इसके लिये हमारे बीच के ही लोग जिम्मेदार है, हमें छला गया है । इस घृणित कार्य में संलिप्त जो बिचौलिये हैं वे कहीं न कहीं छत्तीसगढिया के रूप में खाल ओढे शैतान ही हैं । 17 वीं सदी से लेकर आज तक छत्तीसगढियों नें ही दूसरे लोगों के साथ मिलकर अपनी क्षणिक स्वार्थ सिद्धि के लिये हमारी अस्मिता के साथ खिलवाड किया है और जब जब हमारी अस्मिता जागी उसे दमन के क्रूर पांवों तले कुचल दिया गया और हम छत्तीसगढिया सबले बढिया बने रहे दमन के विपरीत भाव को वीतरागी बन संतोष के भाव को सर्वत्र फैलाते हुए । हमें हमारी संतोषी प्रवृत्ति व सहजता का एक मार्मिक किस्सा याद आता है ‘अजीत जोगी सदी के मोड पर – 2001’ में अजीत जोगी बताते हैं – ‘ एक दिन एकदम सुबह देवभोग के रेस्ट हाउस में एक आदिवासी मुझसे और क्षेत्र के सांसद पवन दीवान से मिलने आया । उसे एक हीरे का पत्थर मिला था, जिसे उसने 10000 रूपये में एक स्थानीय व्यापारी को बेंच दिया था । सूरत-बम्बई से प्राप्त सूचना के अनुसार वह हीरा 20-25 लाख रूपये में बिका था । जब मैने उसे डांटा और कहा कि तुमने हीरा इतने सस्ते में क्यों बेंच दिया ? तुम तो बडे बेवकूफ निकले, तो वह ठहाका मार कर हंसने लगा । मुझसे बोला, तुम कहते हो मैं बेवकूफ हूं ? चलो मेरे साथ मेरे गांव । मुझे देख रहे हो, मैं सुबह छ: बजे से पीकर मस्त हूं । गांव चलोगे तो पाओगे कि मेरी पत्नी भी न केवल पीकर प्रसन्न है, बल्कि वह तो इन दिनों शराब में स्नान करती है । उस भोले आदिवासी को लगा था कि एक पत्थर का उसे इतना पैसा मिला कि वह उसकी पत्नी खा-पीकर मस्ता हैं फिर भी मेरे जैसा नादान व्यक्ति उसे समझाइस दे रहा है कि वह ठगा गया । उसे तो उतना मिल ही गया था, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी । ऐसे भोले आदिवासियों के साथ अन्याय न हो, कम से कम इतना तो हम सबको सुनिश्चित करना ही होगा ।‘ पवन दीवान जी छत्तीसगढ की इन्हीं परिस्थितियों को अपने एक गीत में कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं –

सडकों की नंगी जांघों पर,
नारे उछला करते हैं,
सिद्धांतों के निर्मम पंजे,
कृतियां कुचला करते हैं
हर भूखा भाषण खाता है,
प्यासा पीता है दारू,
नंगा है हर स्वप्न यहां पर,
हर आशा है बाजारू
मूर्ख यहां परिभाषा रचते,
सारे बौद्विक बिके हुए हैं,
नींव नहीं हैं फिर भी जाने,
बंगले कैसे टिके हुए हैं ।


इन सब के बावजूद हमें आशा की डोर को नहीं छोडना है, विकास की किरणे अब हम तक पंहुच रही है । पूर्व विधायक एवं चिंतक महेश तिवारी जी अपने एक लेख में आशा व्यक्त करते हुए लिखते हैं - ’ अंत में स्वामी विवेकानंद की तर्ज में यही कहना सार्थक होगा : सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती जान पडती है । महासुख का प्राय: अंत ही अतीत होता है । महानिद्रा में निद्रित शव मानव जागृत हो रहा है । जो अंधे हैं वे देख नहीं सकते और जो विकृत बुद्धि हैं वे समझ नहीं सकते कि हमारा छत्तीसगढ अपनी गंभीर निद्रा से अब जाग रहा है । अब कोई इसकी उन्नति को रोक नहीं सकता । यह अब और नहीं सोयेगा, कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती । कुंभकर्ण की दीर्घ निद्रा को अब टूटना ही होगा ।‘ आशावाद के इन शव्दों के साथ ही आत्ममुग्धता से परे हमें अपने संपूर्ण विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करना है, वैचारिक क्रांति को विकास की धारा से जोड देना है । अपनी छत्तीसगढी अस्मिता के साथ अपनी परम्प‍राओं के बीच ही समस्याओं को एक परिवार की भांति सुलझाते हुए आगे पढना है । अब हमें विश्वास हो चला है कि एक न एक दिन तो दीर्ध निद्रा में सोया छत्तीसगढिया जागेगा और पवन दीवान जी के ये शव्द सार्थक होंगें - घोर अंधेरा भाग रहा है, छत्तीसगढ अब जाग रहा है


आलेख एवं प्रस्तुति –
संजीव तिवारी

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 4


पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1 2 3


हमें गर्व है कि हमारी भाषा को शासन नें भी सम्मान दिया और इसे संवैधानिक मान्यता प्रदान की । छत्तीगसगढी भाषा पूर्व से ही समृद्ध भाषा थी अब इसे संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद निश्चित ही इसके विकास के लिए शासन द्वारा समुचित ध्यान दिया जायेगा एवं हमारी भाषा सुदृढ होगी । वैसे छत्तीसगढी भाषा संपूर्ण छत्तीसगढ में बोली जाने वाली विभिन्न जनजातीय भाषाओं एवं हिन्दी का एक मिलाजुला रूप है यह गुरतुर बोली है । छत्तीसगढ की भाषा एवं भाषा परिवार पर डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं - ’ छत्तीसगढ के तीन भाषा परिवारों की लगभग दो दर्जन से भी अधिक भाषाओं में भावों की रसधार सर्वत्र समभाव से बहती है । यहां की आर्यभाषाओं के अंतर्गत छत्तीसगढी, सदरी, भथरी तथा हल्बीए आदि बोलियां सम्मिलित हैं । द्रविड परिवार के अंतर्गत कुडुख, परजी तथा गोंडवाना-वर्ग की चार बोलियां शामिल हैं । मुंडा-परिवार के अंतर्गत र्कोकू, कोरवा, गदबा, हो, खडिया, संथाली, जुआंग, निहाली, मुडा आदि की अपनी ही बानगी है । इन बोलियों के लोकगीतों में अपने-अपने अंचलों की कुछ मौलिक विशेषतायें भी हैं । इनमें इतिहास भी पूरी तरह अंतर्भूत है । अनेक वीर पुरूष लोकदेवों के रूप में और नारियां देवियों के रूप में पूजी जाती हैं । इनका लोक साहित्य बहुत प्राचीन और पीढी दर पीढी चली आ रही है । इस साहित्य के अध्ययन से हम ग्रामवासियों की मनोवृत्ति का सजीव परिचय पा सकेंगें । इसका संग्रह तथा अध्ययन उस पुल का काम दे सकता है जो हमें नगरों और ग्रामों के बीच की गहरी खाई तथा विस्तींर्ण इकाई को पाटने में मदद दे सकेगा ।‘


छत्तीसगढ के हिन्दी व छत्तीसगढी भाषा में पंडित शुकलाल पाण्डेय से लेकर अब तक प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखे गये हैं किन्तु उनकी जन उपलब्धता बहुत कम है । यह साहित्य अब धरोहर के रूप में विभिन्न विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में शोधार्थी छात्रों के लिये उपलब्ध हैं । यदि कोई उत्सुक इन कृतियों को पढना चाहे तो यह सहज में अपलब्ध नहीं है फिर भी हम कहते नहीं अघाते कि हम साहित्य के क्षेत्र में समृद्ध हैं । शासन को इस संबंध में सहयोग करते हुए सभी उत्कृष्ट पूर्व प्रकाशित साहित्य का पुन: प्रकाशन करवाना चाहिये । इसी के साथ ही उपलब्ध साहित्य को विभिन्न स्थानीय प्रशासन व ग्राम पंचायतों के पुस्तकालयों में अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिये । इस संबंध में कुछ साहित्यकारों के द्वारा यह सराहनीय कदम उठाया गया है कि कुछ लेखक व साहित्यकार अपनी कृतियां लेखन विधा से जुडे ब्यंक्तियों को लागत मूल्य पर उपलब्ध करा रहे हैं । जब तक हम अपने लोगों की रचनाओं को आत्मसाध नहीं करेंगें, समसामयिक लेखन के प्रवाह को एवं पाठकों की रूचि को समझ नहीं पायेंगें । हमारा एकमात्र उद्देश्य पाठकों की संतुष्टि एवं विचारात्मक जागरण है लेखन कोई व्यवसाय नहीं ।


पिछले दिनों छत्तीसगढ साहित्य सम्मेलन में उद्बोधन देते हुए डॉ. श्रीमति सत्य भामा आडिल नें भाषा के मानविकीकरण एवं लेखन की सीमाओं पर बडे स्प‍ष्ट शव्दों में कहा कि अभी छत्तीसगढ में लेखन की सीमा एवं स्तर के बंधन से परे आबाद गति से लेखन की आवश्यकता है । उन्हों नें साहित्यकारों, लेखकों से आहवान किया कि आबाध गति से लिखें, अपनी भावनायें व विचारों को जनता तक लायें समयानुसार जनता स्वयं तय कर लेगी कि कौन पठनीय है और कौन स्तरीय । लेखन के मामले में तो मेरा मानना है कि छत्तीसगढ में नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन के बजाय हतोत्साहन ज्यादा मिलता है ऐसे में नवोदित लेखकों के लिये डॉ. श्रीमति आडिल के ये शव्द प्रेरक के रूप में याद किया जायेगा । लेखन में प्रत्येक की अपनी अपनी अलग – अलग शैली होती है एवं अलग – अलग विधा में पकड होती है । बादल को हम बदरा लिखते हैं आप जलज लिखते हैं ऐसी स्थिति में हमारा मानना है कि बादल को जो बदरा समझते हैं वही हमारे पाठक हैं और हम उन्ही के लिये लिखते हैं ।

छत्तीसगढ की वैदिक कालीन महिमा के संबंध में स्थापित साहित्यकारों का लेखन सराहनीय है, मेरा मानना है कि इस पर हम जैसे नवोदित लेखकों को कम ही लिखना चाहिए क्योंकि छत्तीसगढ महिमा लेखन नवोदित लेखकों के द्वारा महिमामंडन साबित हुआ है । विगत दिनों मैं उत्तर भारत के प्रवास पर था वहां मुझे एक बुजुर्ग गुजराती दम्पत्ति एवं दक्षिण आफ्रिका व कनाडा मूल के युवा दम्पत्ति मिले जो मेरे परिवार के साथ ही लगभग संपूर्ण प्रवास में संयोगवश साथ – साथ रहे । चर्चा के दौरान एवं गाईडों के स्थान महिमा के लच्छेंदार वर्णन में हम सब एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगते थे । गुजराती दम्पत्ति बुजुर्ग एवं अध्यावसायी होने के कारण भारतीय संस्कृति व इतिहास से पूर्ण परिचित थे एवं कनाडा मूल के दम्पति भारतीय धर्म व दर्शन विषय पर पीएचडी कर रहे थे ऐसे में प्राय: हर स्थान को राम व कृष्ण या वैदिक कालीन किसी और परंपरा कथा से जोड कर उसका महिमामंडन किया जाता था तो वे मुझसे पूछते थे कि ऐसा किस्सा तो फलां स्थाद का भी है । मेरे कहने का मतलब यह कि ऐसा बारंबार कहने से हमारी विश्व‍नीयता कुछ कम होती है । अब हमें अपने गौरवशाली अतीत का प्रमाण, बार बार देने की आवश्यकता नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत का इतिहास लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है इसे कहने व लिखने का काम हमारे वरिष्ठों का है जिन पर समाज को विश्वास है ।


वरिष्ठों से हमें उसी प्रकार से आशा है जिस प्रकार से सरस्वती के संपादक के रूप में काम करते हुए पदुम लाल पन्ना लाल बख्शी जी नें बडे बडे साहित्याकारों की भाषा एवं शैली को परिष्कृत किया वैसे ही वरिष्ठ साहित्यकार स्वस्थ प्रतियोगिता, कार्यशाला आदि के माध्यमों से नवलेखकों की लेखनी को परिस्कृत करने का निरंतर प्रयास करते रहें । जिस प्रकार से विगत दिनों रायपुर में अखिल भारतीय लघुकथा कार्यशाला का आयोजन किया गया था ।


क्रमश: आगे की कडियों में पढें वर्तमान परिवेश

आलेख एवं प्रस्तुतिसंजीव तिवारी

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 3

पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1 2


जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि लोक गीत संस्कृति के अभिन्नि अंग हैं और हमारे इन्हीं गीतों में हमारी संस्कृति की स्पष्ट झलक नजर आती है । छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा कालांतर से लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर पारंपरिक लोकगीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी ।

छत्तीसगढ के लोकगीतों में अन्य आदिवासी क्षेत्रों की तरह सर्वप्रमुख गाथा-महाकाव्य का अहम स्थान है जिसमें लोरिक चंदा, ढोला मारू, गोपीचंद, सरवन, भरथरी, आल्हा उदल, गुजरी गहिरिन, फुलबासन, बीरसिंग के कहिनी, कंवला रानी, अहिमन रानी, जय गंगा, पंडवानी आदि प्रमुख हैं । इसमें से हमारे पंडवानी को तीजन बाई और ऋतु वर्मा नें नई उंचाईयां प्रदान की है । नृत्य में गेडी, राउत, सुआ, करमा, चन्दैनी, पंथी, सैला, बिलमा, सुरहुल आदि में भी गीत के साथ नृत्य् प्रस्तुत किये जाते हें । इसके अतिरिक्त फाग, जस जेंवारा, भोजली, बांस गीत, ददरिया जैसे गीत यहां गुंजायमान होते हैं ।

संस्कृति में जिस तरह से लोकगीतों का महत्व है उसी तरह से लोक कला का भी अहम स्थान है इस संबंध में लोक कलामर्मज्ञ राम हृदय तिवारी हमारे लोककला पर कहते हैं ‘यह एक सच्चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्हों ने हमें किया है । करमा, ददरिया और सुआ की स्वर लहरियॉं, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएँ सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं । यहां के निवासियों में सहज उदार, करूणामय और सहनशील मनोवृत्ति, संवेदना के स्तर पर कलारूपों से बहुत गहरे जुडे रहने का परिणाम है । छत्तीसगढ का जन जीवन अपने पारंपरिक कलारूपों के बीच ही सांस ले सकता है । समूचा अंचल एक ऐसा कलागत – लयात्मक – संसार है, जहां जन्म से लेकर मरण तक – जीवन की सारी हल-चलें, लय और ताल के धागे से गूंथी हुई हैं । कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्र्वर लोकमंचीय कला सृष्टि का जन्म हुआ है ।‘


लोकमंचीय, गायन, वादन कला के अतिरिक्त छत्तीसगढ में पारंपरिक चित्रकला, काष्टाकला, मूर्तिकला नें विकास के सोपान तय किये हैं किन्तु जिस प्रकार से हमारे लोकमंचीयकला नें विकास किया है वैसा विकास अन्य दूसरे कलाओं का नहीं हुआ है हमारे प्रदेश में विश्व में ख्यात संगीत व कला विश्वाविद्यालय है जिसने यहां के अनगढ प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।


हमारे समृद्ध लोक नाट्य के वर्तमान विकसित परिवेश पर डॉ. महावीर अग्रवाल कहते हैं ‘..... आज परिस्थितियां बदल गई हैं । आधुनिक छत्तीसगढी लोकनाट्य का अभिप्राय विसंगतियों या कुरीतियों को उजागर करना तो है ही परन्तु इसके साथ ही साथ उनका समाधान प्रस्तुंत करने का प्रयास भी किया जाता है । समस्याऍं अब बहुत व्यापक हो गईं । गरीबी अत्याचार या धार्मिक आडम्बरों से आगे बढकर कलाकार और निर्देशक अब अशिक्षा नारी उत्थान वृक्षारोपण, सामाजिक समरसता तथा कृषि एवं औद्योगिक प्रगति से जुडने की आवश्यकता महसुस करने लगा है । वह समाज को संगठन और सहकारिता का महत्व समझाना चाहता है । लोक कथाओं को आधार बनाकर समकालीन राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपताओं को सबके सामने रखना चाहता है । इस प्रकार छत्तीआगढ का नाट्य कर्मी उस व्याप्त कैनवास को ध्यान में रखने लगा है जिस पर समाज के सारे चित्र अपनी शंकाओं और समाधानों के साथ उभरकर सामने आते हैं ।‘


छत्तीसगढी साहित्य और छत्तीसगढ के साहित्यकारों का भी एक समृद्ध इतिहास रहा है । छत्तीसगढ के साहित्तिक इतिहास में गाथा साहित्यत का सृजन आरंभिक कालों में नजर आता है उसके बाद के साहित्य में यहां छायावाद का जन्म पं.मुकुटधर पाण्डेय के कुकरी कथा से होता है वहीं लघुकथा टोकरी भर मुट्ठी के प्रणेता पदुमलाल पुन्नामलाल बख्शी जी हिन्दी साहित्य को पहली बार लघुकथा से परिचित कराते हैं । छत्तीसगढ के साहित्यकारों के संबंध में लिखते हुए प्रो. अश्विनी केशरवानी कहते हैं ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणास्रोत और विद्वजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। ‘


हिन्दी के साथ ही यहां संस्कृत साहित्य भी समृद्ध रहा है, संस्कृत के आदि कवियों में श्रीपुर के विश्व विख्यात परंपरा के कविराज ईशान, कविकुलगुरू भास्ककर भट्ट और श्रीकृष्णु दंडी तदनंतर कोसलानंद रचईता गंगाधर मिश्र, रामायण सार संग्रह के तेजनाथ शास्त्री , गीतमाधव के रेवाराम बाबू, गुरूघांसीदास चरित महाकाव्यर के डॉ. हीरालाल शुक्लत का नाम प्रमुख हैं ।

छत्तीसगढ के आदि साहित्यवकारों पर पंडित शुकलाल पांडेय अपने बहुचर्चित कृति छत्तीसगढ़ गौरव में लिखते हैं जिसमें उस काल के लगभग सभी साहित्यकारों के नामों का उल्लेख है :-

बंधुवर रामदयालु, स्वभाषा गौरव केतन। ठाकुर छेदीलाल विपुल विद्यादि निकेतन।
द्विजवर सुन्दरलाल मातृभाषा तम पूषण। बाबु प्यारेलाल देश छत्तीसगढ़ भूषण।
लक्ष्मण, गोविंद, रघुनाथ युग महाराष्ट्र नर कुल तिलक। नृप चतुर चक्रधर लख जिन्हें हिन्दी उठती है किलक॥
जगन्नाथ है भानु, चन्द्र बल्देव यशोधर। प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक। परमकृती शिवदास आशु कवि बुधवर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर। श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता कान्त वर॥

इन पदो में तद्समय के सभी वरिष्ठ साहित्यकारों के नामों का उल्लेख है । इन आदि साहित्यकारों के बाद की पीढी नें भी साहित्य सृजन में उल्लेखनीय योगदान दिया है ‘छत्तीसगढ : रचना का भूगोल, इतिहास और राजनीति’ में चिंतक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी जी नें विस्तार से इस भू भाग से जुडे रचनाधर्मी साहित्यकारों व साहित्य, का विश्लेषण किया है जो यहां के भौगोलिक साहित्य का एतिहासिक दस्तावेज है ।

क्रमश: आगे की कडियों में पढें लोक कला साहित्य, भाषा व वर्तमान परिवेश

आलेख एवं प्रस्तुतिसंजीव तिवारी

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 2 - छत्तीसगढी संस्कृति

पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1


छत्तीसगढ का गौरव इतिहास वैदिक काल से समृद्ध रहा है, हमारे पुरातात्विक धरोहर इसके साक्षी हैं । हमारे वैदिक साहित्यी में भी छत्तीसगढ नें अपने वैभव के कारण स्थान पाया है । स्वतंत्रता आन्दोलन एवं समाज सुधार के लिए वैचारिक क्रांति लाने में हमारे पितृ पुरूषों नें जो कार्य किये हैं उन्हीं के कारण हम सदियों से अपने स्वाभिमान को जीवंत रख पाये हैं । हमारे महापुरूषों के नाम एवं उनके योगदान को हम आज भी कृतज्ञता से याद करते हैं । छत्तीसगढ के पुरातत्व, इतिहास व साहित्य के संबंध में ढेरों तथ्यपरक व शोध लेख प्रस्तु करने वाले प्रो. अश्विनी केशरवानी जी अपने एक लेख में लिखते हैं ’छत्तीसगढ़ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है। एक ओर जहां छत्तीसगढ़ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और भौतिक संपदाओं को अपने गर्भ में समेटकर अग्रणी है, वहीं दूसरी ओर संत-महात्माओं की या तो जन्म स्थली है, तपस्थली या फिर कर्मस्थली। ये किताबी ज्ञान के बुद्धि विलासी न होकर तत्व दर्शन के माध्यम से निरक्षरों के मन मस्तिष्क में छाने में ज्यादा सफल हुये हैं।‘

छत्तीसगढ में वैचारिक क्रांति लाने में गुरू धासीदास के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । इनके अतिरिक्त कबीर विचारधारा नें भी संत धर्मदास के द्वारा इस धरती पर स्थान पाया है, यह धरती स्वामी विवेकानंद जैसे युगप्रवर्तक के मानस में भी अलौकिक अनुभूति को जन्मे देकर गौरव से हुलसाती है और भारतीय संस्कृति व वैचारिक विरासत को संपूर्ण विश्व में बगराने के लिए स्वामी वल्लभाचार्य, स्वामी आत्मानंद और महर्षि महेश योगी जैसे मनिषियों को जन्म देकर फूली नहीं समाती है ।

इस धरती के महान सपूत स्वामी पं.सुन्दरलाल शर्मा, पं. रविशंकर शुक्ल, स्वामी आत्मानंद, माधवराव सप्रे, पदुम लाल पन्ना लाल बख्शी, लोचन प्रसाद पाण्डेम, मुकुटधर पाण्डेव, ठाकुर जगमोहन सिंह, बैरिस्टर छेदीलाल, डॉ.नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ.खूबचंद बघेल, ई. राधवेन्द्र राय, बलदेव प्रसाद मिश्र, विश्वनाथ यादव तामस्कार, वामन बलीराव लाखे, से लेकर नारायण लाल परमार लतीफ, घोघी, विनोद कुमार शुक्ल व चंदूलाल चंद्राकर जैसे अनेक विज्ञ जनों नें हमारी अस्मिता को सवांरने का कार्य किया है । नामों की यह सूची काफी लम्बी है जिसे वर्तमान युवा पीढी के पटल में शनै: शनै: हमें लेख आदि के माध्याम से स्थापित करना है, जिन्हें इनका भान व ज्ञान है उन्हें इस संबंध में ज्यादा कुछ कहने की आवश्यदकता भी नहीं है, उनके हृदय में अपने महापुरूषों के प्रति भरपूर सम्मांन है ।

छत्तींसगढी संस्कृति को वैदिक काल से उत्कृष्ट संस्कृति के रूप में मान्यता प्राप्त है जहां लोकगीतों की अजश्र रसधारा है, परम्पमराओं की महकती बगिया है और लोकसाहित्यक का विपुल भंडार है, उत्कृष्ट से युत छत्तीसगढ की संस्कृति पर विचार करने के पूर्व आईये हम संस्कृति क्या है इस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं - संस्कृति को स्पष्ट करते हुए डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं – ‘ संस्कृति शव्द की व्युत्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग, ‘कृ’ धातु ‘क्तिन्’ प्रत्यय से हुई है, जिसका अर्थ है – संस्करण, परिष्करण, परिमार्जन । शुद्ध वैदिक शव्दावली में इसका समानार्थी ‘कृष्टि’ शव्द है, जिसका अर्थ है कृषि । यह अंग्रेजी के ‘कल्चर’ से मिलता जुलता है, क्योंकि यह लैटिन शव्द ‘कुल्तुकस’ से बना है, जिसका अर्थ भी भूमि जोतना या कृषि करना है । वैसे ‘कल्चर’ इस समय ‘कृषि के अर्थ में भी प्रयुक्त है । वस्तुत: हम श्रेष्ठ विचारों एवं कर्मों को लोक की भूमि में बोकर नई पीढी के लिये उन्नत जीवन मूल्यों की फसल तैयार करते हैं – संस्कृति के रूप में । पहले संस्कृति अरण्यक थी, वन्य थी, ग्राम्य थी, कृषि से जुडी थी । वह नागर तो बाद में बनी । इस तरह मूल शव्द अपना अर्थ खो बैठा और अब नृत्य, संगीत, साहित्य और कला से जुडी हुई संस्कृति शेष रह गई । पहले पूरा जीवन संस्कृति था, उसी तरह जिस तरह आज भी ‘लोक’ में पूरा जीवन संस्कृति है ।‘

छत्तीसगढ की आदिम जन जाति आदिवासी है और यहीं सच्चे अर्थों में छत्तीसगढ ‘लोक’ के निवासी हैं इस कारण छत्तीसगढ की संस्कृति ही आदिवासी संस्कृति है इसे अलग रूप में प्रस्तुत करना छत्तीसगढ को अपने जडो से विलग करना होगा । संस्कृति व परम्परा का विकास किसी जनजाति के एक निश्चित क्षेत्र में लम्बे समय तक निवास करने के फलस्वंरूप धीरे धीरे रूढियों के रूप में होता है और यहां लम्बे समय तक वैदिक काल से अब तक आदिवासी ही मूल छत्तीसगढिया हैं जो लगभग 42 जनजातीय प्रजातियों के रूप में उपस्थित हैं । हमारी परंपराएं आटविक, वैदिक, वेदविरोधी, वेदान्तर फिर आदिवासी के रूप में विकसित हुई है और इन्हीं परम्पराओं से जाति व अन्य, संस्कारों की उत्पात्ति हुई है । इसके फलस्वरूप ही छत्तीसगढ के जनजातीय स्वपरूप का विकास हुआ, आज जो संस्कृ‍ति हम इस प्रदेश में देख रहे हैं उसे समयानुसार विभिन्न जातियों के छत्तीसगढ में प्रवास के प्रभाव को डॉ. हनुमंत नायडू उत्तर और दक्षिण से आई हुई एवं स्थानीय जातियों का एक मिला जुला रूप मानते हैं ।


छत्तीसगढ की संस्कृति के संबंध में आगे डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं - ’ छत्तीसगढ का सांस्कृतिक परिदृश्य अत्यंत समृद्ध तथा विविधतामय है । एक तरफ छत्तीसगढी संस्कृति का सर्वसमावेशी समागम है तो दूसरी तरफ जनजातियों की आदिम संस्कृति का विशाल संसार फैला हुआ है । एक तरफ छत्ती्सगढी की समृद्ध वाचिक परम्परा है, वहीं दूसरी ओर हलबी, भतरी, खडिया, तूती, मुंडा, बिरहोड, पर्जी, दोर्ली, दाडामी माडिया, मुरिया, अबुझमाडिया आदि आदिवासी बोलियों की प्राणवंत धडकन है । इस प्रदेश को अन्य छ: प्रदेशों की संस्कृतियां प्रभावित करती हैं, इसीलिए छत्तींसगढ की संस्कृति के रंग इन्द्रधनुषी हैं ।‘ सांस्कृतिक मेल मिलाप एवं हमारी धार्मिक व वैचारिक यात्रा का भी उल्लेख हमारे लोक गीतों में मिलता है जिसमें उडिया संस्कृति हमारे आदिवासियों की परंपराओं में कहीं आंशिक तो कहीं पूर्ण रूप से घुली मिली नजर आती है । धार्मिक रिति रिवाज और देवी देवताओं की उपासना पद्धतियों में भी इसका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । गुजरी गहिरिन में ’तीन बेर तिरबेनी देखेंव,चउदा बेर जगनाथ ।’ का उल्लेख हमें यह बतलाता है कि हमारी धार्मिक व सांस्कृतिक यात्राओं से सांस्कृतिक मिलन समयानुसार होते रहा है और हमारी संस्कृंति समृद्ध होते रही है ।


हमारी संस्कृति को डॉ. पालेश्वेर शर्मा ‘छत्तीसगढ के तीज त्यौरहार और रीति रिवाज’ में संस्कृति को ग्रामीण संस्कृति कहते हुए कहते हैं - ’गांव की आत्मा उसकी संस्कृति एक ऐसी शकुन्तकला है, जो ऋषि कन्या है फिर भी शापित है, किसी की परिणीता और प्रेमिका है फिर भी उपेक्षित है । उसका पथ जीवन है, मरण नहीं । उसमें विश्वास और श्रद्धा है, मृत्यु की पराजय और क्षुद्रता नहीं ।‘ आगे वे स्वीकारते हैं कि ‘छत्तीसगढ की ग्रामीण संस्कृति पर परम्पारा का, संस्कार का बोझ अधिक है ।‘ यानी यह एक सतत विकास का प्रतिफल है । हमारी परंपरायें सदियों से वाचिक रूप से पीढी दर पीढी चली आ रही है और हमारे आदि पुरूषों नें इन परम्पराओं को युगो युगों तक जीवंत रखने का सहज व सुन्दर तरीका प्रयोग में लाया है वह है लोक गीत ।' '...... लोक गीतों में संस्कृति उसी प्रकार झांकती है, जिस प्रकार अवगुंठनवती वधु झीने कौशेय में झिलमिलाती हैं । संस्कृति वह दीपशिखा है, जो लोक गीत के अंचल तले जगर-मगर करती है ।‘


छत्तीसगढ की संस्कृति में धार्मिक व सांप्रदायिक परंपराओं का प्रभाव भी समयानुसार पडा है । छत्तीसगढ में धार्मिक वैचारिक ज्ञान का आलोक जिन्होंनें फैलाया उनमें भक्तिमार्गी संप्रदाय के वल्लाभाचार्य जी, साबरतंत्र के विद्वान व नाथ संप्रदाय के मछंदरनाथ जी, रामानंदी सम्प्रदाय के बैरागी, कबीर संप्रदाय के धर्मदास जी, समनामी संप्रदाय के गुरू घांसीदास जी थे । इनमें गुरू घांसीदास व कबीर की ज्ञान व भक्ति की परंपरा आज भी पल्ल्वित और पुष्पित है ।



छत्तीसगढ के जन जातियों में अगरिया, असुर, बैगा, भैना, भतरा, भुंजिया, बिंझवार, बिरहोड, बिजरिया, धनवार, धुरवा, गदबा, हलबा, कमार, कंवर, कोल, कोर्कू, कोरवा, मंझवार, मुंडा, ओरांव, परधान, पारधी, सौंता और गोंड यहां की पारंपरिक जनजातियां हैं ।


सहज सरल स्वभाव के कारण हमारी संस्कृति का प्रचार प्रसार ज्यादा नहीं हो पाया, गांवों के नागर स्वरूप में परिर्वतन के दौर में कुछ प्रेमियों नें हमारी संस्कृति को जीवंत रखने व प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से उल्लेनखनीय कार्य भी किया है । प्रारंभिक काल में इस कार्य में आकाशवाणी व दूरदर्शन के योगदान को सदैव याद किया जायेगा ।

क्रमश: आगे की कडियों में पढें - लोक गीत, लोक कला साहित्य, भाषा व वर्तमान परिवेश विचार

आलेख एवं प्रस्ततिसंजीव तिवारी


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छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1

भौगोलिक दृष्टि से मैदानी एवं पठारी व कुछ हिस्‍सों में सतपुडा व मैकल श्रेणियों के पहाडों में फैला छत्‍तीसगढ भारत के हृदय स्‍थल पर स्थित प्राकृतिक रूप से सुरम्‍य प्रदेश है, यहां की प्राकृतिक संरचना से मुग्‍ध होकर अनेक साहित्‍यकारों नें इसकी महिमा को शव्‍द दिया है । सौंदर्यबोध एवं धरती की कृतज्ञता में छत्‍तीसगढ महतारी की महिमा गीतों एवं आलेखों को हम अपने दिलों में भारत गणराज्‍य की संपूर्णता के साथ बसाये हुए हैं, यही हमारे गौरव की निशानियां हैं और हमें अपने स्‍वाभिमान से जीने हेतु प्रेरित भी करती है ।


वसुधैव कुटुम्‍बकम व सबै भूमि गोपाल की के सर्वोच्‍च आदर्श से परिपूर्ण भारत देश के वासी होने के बावजूद कभी कभी हमें लगता है कि हम छत्‍तीसगढ - छत्‍तीसगढ का ‘हरबोलवा’ बोल बोलते हैं, इसकी महिमा गान बखान चारण की भांति नित करते हैं । इससे मेरे देश की संपूर्णता के अतिरिक्‍त अपना एक पृथक अस्तित्‍व के प्रदर्शन का स्‍वार्थ भी झलकता है । हमें अपने क्षेत्रीय अतीत पर गर्व होना ही चाहिए किन्‍तु बार बार उसे रटने से अन्‍य प्रदेश वाले ऐसे में हमारी वसुधैव कुटुम्‍बकम के सार्वभैमिक भाव पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाते हैं । साहित्‍य इतिहास में तो हमने देखा ही है कि इस भूगोल से परे जाकर हमारे साहित्‍यकारों नें सार्वभौम रचनाधर्मिता का परिचय दिया है और उनकी कृतियों से संपूर्ण देश का साहित्‍य संसार समृद्ध हुआ है ।


अखंडता एवं क्षेत्रीयतावाद के इस दोराहे की स्थिति को अजीत जोगी जी स्‍पष्‍ट करते हैं - ‘हम जानते हैं कि भाषा, संस्‍कृति और आर्थिक विकास आधारित क्षेत्रीयतावाद, अराजक स्थिति उत्‍पन्‍न कर देगी, किन्‍तु हम असंतोष के इन स्‍वरों के अवदमन के पक्ष में नहीं हैं । हम इसे मुखरित होने देना चाहते हैं, इनके निहितार्थ को समझकर ........... क्‍योंकि यही वह एकमात्र तरीका है, जिससे संकीर्णतावाद व्‍यापकता में विलुप्‍त हो सकता है ।‘ इन्‍हीं शव्‍दों के कारण लेखक अपने क्षेत्रीय लेखन से आत्‍ममुग्‍ध हो अपनी दुनिया में खोता चला जाता है ।


हमारी इसी क्षेत्रीयतावाद एवं संकीर्णतावाद के भूगोलीय चिंतन नें हमारे मन में अपनी अस्मिता को जगाया है । बरसों से दबे कुचलों के रूप में जीते हुए अभी तो हमने मुह भर सांस लिया है । इन सबके बावजूद संपूर्ण देश की संपूर्णता में ही हमारी क्षेत्रीयता का अस्तित्‍व है, जिस प्रकार शरीर की प्रतिपादकता संपूर्ण शरीर के साथ ही अहम है । इस विचार को डॉ. पालेश्‍वर शर्मा जी इस प्रकार पुष्‍ट करते हैं - ’ छत्‍तीसगढ का स्‍मरण करते हुए एक ऐसी अन्‍नपूर्णा अंबा की प्रतिमा नयनों के सम्‍मुख छविमान हो उठती है, जिसके उदार हृदय पर मोती नीलम की माला पडी है, कटि प्रदेश में रजत मेखला रेवा तथा चरणों तले महानदी का जल उसे छू छू कर तंरंगायित हो रहा है । मॉं के एक हाथ में धान की स्‍वर्णिम बालियां । हां वे बालियां भारत भू की सम्‍पदा हैं जिनका शस्‍य श्‍यामल रूप छत्‍तीसगढ के खेतों में दिखाई देता हैं । उसकी धानी आंचल सर्वथा हिरतिमा – लालिमा लिए वासंती वायु में जब आंदोलित होता हैं तो उसके बेटे उसी प्रकार चहकते हैं जिस प्रकार खग शावक अपने नीड में अपनी मॉं की चंचु में चारा देखकर चुरूलू – चूरूलू चहचहा उठते हैं ।‘


छत्‍तीसगढ के भूगोलीय अस्मिता पर लिखते हुए डॉ.हनुमंत नायडू के एक शोध ग्रंथ के उपसंहार में लिखे पंक्ति पर बरबस ध्‍यान जाता है और इस पर कुछ भी लिखना उन पंक्तियों के सामने फीका पड जाता हैं, डॉ.हनुमंत नायडू स्‍वयं स्‍वीकारते हैं कि वे छत्‍तीसगढी भाषी नहीं हैं किन्‍तु सन 1985 के लगभग पीएचडी के लिए वे इसी भाषा को चुनते हैं । हमें इनसे एवं इनके जैसे हजारों उन व्‍यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिए जो छततीसगढ भाषी नहीं हैं फिर भी इस माटी का कर्ज चुकाते हुए छत्‍तीसगढ के लिए काम किया है, ऐसा ही एक नाम है डॉ. चित्‍तरंजन कर जिनका नाम लेते हुए सिर आदर से झुक जाता है क्‍योंकि सहीं मायने में ऐसे प्रेरक विभूतियों के उत्‍कृष्‍ट प्रयासों नें हमारे स्‍वाभिमान को जगाया है


इस प्रदेश के जीवन में प्रेम का स्‍थान अर्थ और धर्म से उंचा है । पौराणिक काल से लेकर आधुनिक युग तक छत्‍तीसगढ के द्वार हर आगंतुक के लिए सदैव खुले रहे हैं । प्राचीन काल में जहां दण्‍डकारण्‍य नें वनवास काल में श्रीराम और पाण्‍डवों को आश्रय दिया था तो वर्तमान काल में स्‍वतंत्रता के पश्‍चात बंगाल से आये शरणार्थियों को दण्‍डकारण्‍य योजना के अंतर्गत आश्रय दिया है परन्‍तु छत्‍तीसगढ के इस प्रेम को उसकी निर्बलता समझने वालों को इतना ही स्‍मरण कर लेना यथेष्‍ठ होगा कि कौरवों को पराजित करने वाली पाण्‍डवों की विजयवाहिनी को इसी प्रदेश में बब्रुवाहन एवं ताम्रध्‍वज के रूप में दो दो बार चुनौती का सामना करना पडा था ।


छत्‍तीसगढिया सहजता एवं प्रेम पर आगे वे कहते हैं -
भारतीय आर्य जीवन में प्रेम और दया जैसे जिन शाश्‍वत जीवन मूल्‍यों को आज भारतीयों नें विष्‍मृत कर दिया है वे आज भी यहां जीवित हैं । जाति, धर्म और भाषा आदि की लपटों से झुलसते हुए भारतीय जीवन को यह प्रदेश आज भी प्रेम और दया का शीतल-आलोक जल दे सकता है । आज भारत ही नहीं समस्‍त विश्‍व की सबसे बडी आवश्‍यकता प्रेम और सहिष्‍णुता की है जिसके बिना शांति मृगजल और शांति के सारे प्रयत्‍न बालू की दीवार की भांति हैं । प्रेम और सहिष्‍णुता का मुखरतम स्‍वर छत्‍तीसगढी लोक-गीतों का अपना स्‍वर है जो भारतीय जीवन से इन तत्‍वों के बुझते हुए स्‍वरों को नई शक्ति प्रदान कर सकता है ।

क्रमश
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आलेख एवं प्रस्ततिसंजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...