1800 से पहले भारत में दलित नहीं थे : डॉ.बिजय सोनकर शास्त्री

विगत दिनों दुर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में हिन्दू जीवन दृष्टि एवं पर्यावरण विषय पर प्रकाश डालते हुए वक्ता डॉ.सच्चिदानंद जोशी, कुलपति, कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर नें कहा कि हमारी हिन्दू संस्कृति में विशिष्ठ वैज्ञानिक एवं पर्यावरणीय चिंतन है. वैज्ञानिक जिस गॉड पार्टिकल की अवधारणा को सिद्ध कर रहे हैं उसे हमारे वेदो नें सदियों पहले ही सिद्ध कर लिया था. उन्होंनें हिन्दू जीवन पद्धति को विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए बताया कि वेदों में तमाम बातें कही गई हैं जिसे विज्ञान अब सिद्ध कर रहा है. उन्होंनें अलबर्ट आंइन्टांईन को कोट करते हुए कहा कि कोई भी विज्ञान धर्म के बिना लंगड़ा है और कोई भी धर्म विज्ञान के बिना अंधा. सभा को संबोधित करते हुए बिरसराराम यादव नें गांव में बादल गरजने पर सब्जी काटने वाले हसिये को आंगन में फेंकने की परम्परा का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भारतीय पारंपरिक ज्ञान में विज्ञान समाहित है. हमारे चिंतन और व्यवहार का आधर पूर्ण वैज्ञानिक है.

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए 'हिन्दू जीवन दृष्टि एवं वेद व विज्ञान' विषय पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत करते हुए डॉ.बिजय सोनकर शास्त्री, अखिल भारतीय प्रवक्ता भारतीय जनता पार्टी नें कहा कि सूर्य और चंद्र की दूरी वैज्ञानिकों नें यदि नहीं नापी होती तो क्या हमारे वेदों में दी गई सूर्य चंद्र की दूरी की सत्यता की जांच हो पाती. उन्होंनें वैज्ञानिकों से आहवान किया कि वे और शोध करें ताकि हमारे वेदों की प्रामाणिकता सिद्ध हो. उन्होंनें सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए बताया कि हिन्दू जीवन पद्धति पूर्ण वैज्ञानिक है. हमारी पूजा पद्धति, रीति रिवाज, व्रत त्यौहार सब का वैज्ञानिक आधार है. भारत में कभी भी सामाजिक विषमता नहीं थी, मुस्लिम आक्रांताओं एवं अंग्रेजी फूट डालो की रणनीति नें हमारी संस्कृति पर बार बार आक्रमण किए हैं जिससे कि हमारा समाज बिखरने लगा. उन्हानें भारतीय संस्कृ्ति को सदैव जोड़ने वाला बताया, दलितों की उत्पत्ति के संबंध में उन्होंनें दावे से कहा कि सन् 1800 से पहले भारत में दलित थे ही नहीं, भारत में विदेशी आंक्रांताओं नें दलित पैदा किए. उन्होंने रामायण की पंक्ति ढोर गवांर की तथ्यपरक व्याख्या करते हुए अधिकारी शव्द का अर्थान्वयन किया. यानी ताड़ना देने का अधिकार इन पांचों के पास है.

उन्होंनें एकलव्य कथा का उल्‍लेख करते हुए कहा कि एकलव्‍य नें गुरू द्रोण से अर्जुन के समान होने का वरदान मांगा था. एकलब्‍य नें प्रत्‍यक्षत: इस बात को झुठला दिया था कि पृथ्‍वी में अर्जुन के समान धनुर्धर कोई नहीं है. किन्‍तु अर्जुन सब्‍यसांची धर्नुधर था अर्थात अर्जुन बांयें हांथ की उंगलियों और अंगूठे से धनुष की प्रत्‍यंचा में तीर चलाता था. एकलब्‍य दाहिने हाथ की उंगलियों और अंगूठे से धनुष की प्रत्‍यंचा में तीर चलाता था. द्रोण नें एकलव्‍य का अंगूठा लेकर उसे अर्जुन के समान सव्‍यसांची बनाया. इसके अतिरिक्‍त भारत में दलित, त्यौहार-पर्व-उत्सव में अंतर, मोक्ष-मुक्ति का अर्थ, हिन्दू की परिभाषा आदि विषयों को भी उन्‍होंनें सहज ढंग से समझाया.

कार्यक्रम के आयोजक टोटल लाईफ फाउन्‍डेशन के अध्यक्ष एवं समाज सेवी संतोष गोलछा नें कहा कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा, उत्सव एवं त्यौषहार में प्रकृति की अहम भूमिका है. वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी अवधारणा ही संपूर्ण वसुधा को व्यापक दृष्टि से एक कुटुम्बं के रूप में प्रस्तुत करती है. हिन्दू संस्कृति हमें नैतिकता सिखा कर हमें मानव बनाती है जिसके कारण ही हममे प्रेम और सहिष्णुता के गुणों के साथ ही आत्म स्वाभिमान का भाव जागृत होता है। उन्होंनें वेद की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए हनुमान प्रसंग में आए ‘युग सहत्र योजन पर भानु’ को विश्लेषित करते हुए कहा कि इस पद में आए सूर्य की दूरी वर्तमान में वैज्ञानिकों के द्वारा सिद्ध किए गए दूरी से पूरी तरह मिलती है. इस तरह से हमारे वेद पूरी तरह से प्रामाणिक हैं। उन्होंनें भारतीय परम्पराओं का उल्लेख करते हुए कहा कि एक दूसरे को सहयोग करने की रीति भारत में रही है। राजा प्रजा को पुत्र की भांति स्नेह करता था और प्रजा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति भी देता था इसीलिए भारतीय सनातन परम्परा में प्रजा के द्वारा राजा के विरूद्ध के कभी विद्रोह नहीं हुए।

कविता में शब्दों का निहितार्थ

कविता में शब्दों का निहितार्थ क्या है, कैसा है ? यह सोंचना कवि का काम नहीं है, पाठक अपनी मति के अनुसार से इसे ग्रहण करता है। ‘निपटाने‘ का आप चाहे जो भी अर्थ निकालें, पूर्व प्रधान मंत्री एवं भाजपा के शीर्ष मा. अटल बिहारी बाजपेयी के दांत अब झड़ गए हैं। नीचे दी गई बहुचर्चित पंक्तियों के रचनाकार ख्यातिलब्ध अंतर्राष्ट्रीय कवि पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे जी भाजपा शासित राज्य में भी सत्ता के केन्द्र में रहे और कान्ग्रेस के समय में भी सत्ता के कृपा पात्र बने रहे। पीठ पीछे इनका विरोध भी हुआ, इन्हें निपटाने वाले कई आए कई गए, सब निपटते रहे। दुबे जी 'अपन दाढ़ी म अंगरी धरे बइठे रहे,' उनको निपटाना आसान नहीं रहा। पिछले कई वर्षों से दुबे जी छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग के सचिव के पद पर आसीन हैं। विश्व के लगभग सभी प्रतिष्ठित देशों में वे कविता पाठ कर चुके हैं, अभी अभी अमरीका से कविता पाठ कर लौटे हैं, उन्होंनें बराक ओबामा के लिए भी कविता लिखी है और उनकी कविताओं को बराक ओबामा नें भी पसंद किया है। वामपंथियों को यह चारण लगे दक्षिणपंथियों को शौर्य गान लगे, इन सबकी परवाह किए बगैर वे राजभाषा आयोग की अगली पारी के लिए तैयार हैं। शब्दों के इस बाजीगर को हमारा सलाम!!



अटल बिहारी हमर कका ये
फेर कोनों नइ ये काकी।
कतको झन जय ललिता, ममता बेनर्जी
आवत हें जावत हें
कका सबला निपटावत हे।।
(पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे)

बस्तर : घोटुल

लिंगो पेन के भावनाओं के घोड़े
थम से गए है
जम गए हैं खदानों से उड़ते धूल
अट्ठारह वाद्यों में
गुम गए है आख्यान
आदिम गीतों में
शहर के पगधूलि नें कर
दिया है अपवित्र
पवित्र घोटुल को
प्रकृति का स्वर्गीय आनन्द
जहॉं अब कोई नहीं पाता.
अब चेलिक और मोटियारी
हाथों में हाथ ले
नहीं गाते रेला
नहीं उठते पैर
नृत्य के लिए
बेलौसा नहीं सिखाती प्यार
सरदार नहीं लगाता कोई जुर्माना
अब मुरिया बच्चों के लिए
खुल गए हैं स्कूल
जहॉं मास्टर नहीं आता.

... तमंचा रायपुरी

बस्‍तर : रिसता खून

पता नहीं कौन सा साल था वह, बचपन में उम्र क्या थी पता नहीं, वक्त भी पता नहीं, पर उजाला था आसमान में. उनींदी आंखों जब खुली तो सिर में खुजली हो रही थी. हाथ जब बालों में गई तो दर्द हुआ सिर में, दर्द हुआ उंगलियों में, कुछ चिपचिपा महसूस हुआ. झट बालों से बाहर निकले उंगलियों को जब अंगूठे नें छुआ, तो फिर दर्द हुआ. अंगूठे नें महसूस किया, आंखों नें देखा, चिपचिपे द्रव के साथ. कांछ उंगलियों में, सिर में, शरीर में, बाबूजी, दीदी के कपड़ों पर, बस में, चारो तरफ बिखरे थे. बाबूजी के सिर से भी खून बह रहा था पर उन्होंनें मुझे हिफाजत से पकड़ा था. बाहर पेंड ही पेंड, कुछ में लटो में आम, शायद जंगल था. नीचे गहरी खाई, बस का एक पहिया हवा में. पेंड से टकरा गई थी बस, खिड़कियों के शीशे हमारे शरीरों में चुभते हुए बिखर गई थी सड़क पर. बाबूजी नें कहा था एक्सीडेंट हो गया!. मेरे सिर के बालों में घुसे महीन कांछ के तुकड़े, बूंद बूंद खून सिरजा रहे थे. उंगलिंयॉं बार बार सिर खुजाने को बालों की ओर लपकती और बाबूजी मेरा हाथ रोक देते. एक बड़ा तुकड़ा भी गड़ गया था सिर में. दर्द से, जाहिर है, मेरे आंसू निकल रहे थे और मुह से नाद. अगले कुछ पलो में बस से सब अपना अपना सामान लेकर उतर गए. नीचे सड़क पर कांछ के साथ बस के आस पास बिखरे थे आम. बाबूजी के एक हाथ में भारी बैग दूसरे में मेरा हाथ. मैं दर्द भूलकर आम उठाने झुका और एक आम उठा भी लिया. बाबूजी नें अपने बंगाली के कंधे से सिर से आंख में बहते हुए खून को पोंछा और मुझे एक भद्दी सी छत्तीसगढ़ी गाली दी. मर रहे हैं और तुझे आम सूझा है. उन्होंनें शब्दों को आगे जोड़ते हुए कहा, तब तक मेरे खून सने हाथों नें आम को मुह तक पहुचा दिया था. दूसरी बस कब आई, कब हम जगदलपुर पहुंचे, मुझे नहीं पता.

किन्तु आज भी, जब कभी भी, बस्तर के जंगलों में हो रहे मार काट में किसी मानुस के खून बहने की खबर, समाचारें लाती है. मेरी उंगलियॉं मेरे सिर के बालों में अनायास ही चली जाती है. उंगलियॉं महसूसती है, चिपचिपा रिसता खून, और सिर में दर्द होने लगता है.
.. तमंचा रायपुरी.

छत्‍तीसगढ़ी प्रभात

छत्तीसगढ़ी में 'सुकुवा उवत' मतलब लगभग चार बजे सुबह, ब्रम्ह मुहूर्त, जब शुक्र तारे का क्षितिज में उदय हो। अब घडी आगे बढ़ी और 'कुकरा बासने' लगा यानी मुर्गे ने बाग दिया, लगभग पाँच बजे सुबह। इसके बाद 'मुन्धर्हा' और 'पहट ढीलात', सुबह का धुंधलका और पशुओं को चराने के लिए ले जाने का समय। मेरा अनुभव यह रहा है कि सबेरे के पहट में दूध देने वाले पशु को ग्वाले ले जाते हैं फिर उन्हें वापस कोठे में लाकर दूध दुहते हैं। इन शब्दों के साथ ही 'बेरा पंग पंगात' का उपयोग सूर्योदय के ठीक पहले के उजास के लिए होता है। छत्तीसगढ़ी में सुबह के लिए प्रयोग होने वाले शब्दों को जोड़ते हुए पिछले दिनों मैंने एक स्टैट्स अपडेट किया था। उस पर कुछ चर्चा करने के उद्देश्य से उन्हीं शब्दों को फिर से रख रहा हूँ। कहीं कुछ असमानता हो तो बतावें। बेरा बिलासपुर मे पंग पंगाते हुए..
19.06.2014


दलित विमर्श ... द्वन्द

दलित साहित्य और दलित विमर्श का विषय हमारे जैसे अल्पज्ञों के समझ से अभी दूर है। फिर भी थोडा बहुत जो अध्ययन है उसके अनुसार से यह प्रतीत होता है कि इस विषय को वामपंथ ने 'हैक' कर रखा है। इस विषय पर दक्षिणपंथ का या तो ज्यादा योगदान नहीं है या फिर उनके लेखन को जानबूझ कर हासिए पर धर दिया गया है। इस पर आप का क्या विचार है ?

मेरे इस प्रश्न का उत्तर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता, पूर्व सांसद, विचारक एवं लेखक डॉ.विजय सोनकर शास्त्री ने विभिन्न उदाहरणों के साथ विस्तार से दिया। उनकी बातों में से कुछ कड़ियाँ रिकार्ड हो पाई जिसमे से एक, यह कि, आधुनिक समय में वेद पर तर्क से ज्यादा कुतर्क हुए। दूसरा यह कि, मुस्लिम आक्रमणकारियों, शासको और अंग्रेजो नें तथाकथित दलित समाज का बीज अपने स्वार्थ के कारण बोया। और तीसरा यह कि, कागजो में दलित विमर्श करने के बजाय दलितों की समस्याओं को दूर करने, उन्हें मुख्य धारा में लाने का प्रयास होना चाहिए।

डॉ. शास्त्री ने वेद, विज्ञान, समरस समाज सहित दलित समाज पर बीसियों ग्रन्थ लिखे हैं। कल दुर्ग में हमारी संस्था टोटल लाइफ़ फाउंडेशन के द्वारा आयोजित एक अखिल भारतीय व्याख्यान में वक्ता के रूप में वे आमंत्रित थे। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता डॉ.सच्चिदानंद जोशी, कुलपति पत्रकारिता वि.वि.रायपुर थे जिन्होंने प्रकृति, पर्यावरण और भारतीय संस्कृति पर सारगर्भित वक्तव्य दिया। डॉ. जोशी एवं डॉ.शास्त्री के व्याख्यान पर चर्चा फिर कभी।

अभी यह कि, दोपहर डॉ.शास्त्री के साथ दुर्ग पत्रकार संघ का प्रेस वार्ता हुआ। वार्ता के अंत में एक तिलकधारी पत्रकार नें मुझसे डॉ.शास्त्री का पूरा नाम पूछा। मैंने बताया, वो 'सोनकर' पर अटक गए। मैंने उनके सम्बन्ध में जब संक्षिप्त परिचय दिया तो वे 'शास्त्री' पर व्यंग मुस्कान बिखेरते हुये, 'खटिक' को स्थापित करते रहे। उनकी घडी स्वल्पाहार तक उसी शब्द पर अटकी रही। हालाँकि, किसी भी पत्रकार नें उसकी बातों को तूल नहीं दिया .. किन्तु .. दलित विमर्श ... द्वन्द जारी रहा।

तमंचा रायपुरी

फेसबुक व ट्विटर में सक्रिय छत्‍तीसगढ़ी भाषा भाषी साथियों से एक विनम्र अपील

साथियों यह खुशी की बात है कि देखते ही देखते छत्‍तीसढ़ी भाषा के प्रेमी फेसबुक व ट्विटर एवं अन्‍य सोशल नेटवर्किंग माध्‍यमों में सक्रिय हो रहे हैं। आपकी उपस्थिति से इंटरनेट में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रचार प्रसार बढ़ा है एवं अपनी मातृभाषा के प्रति लोगों की रूचि बढ़ी है। देखनें में यह आ रहा है कि हम अपनी अभिव्‍यक्ति अपनी मातृभाषा में फेसबुक व ट्विटर के द्वारा बखूबी अभिव्‍यक्‍त कर रहे हैं किन्‍तु फेसबुक व ट्विटर के साथ एक समस्‍या है कि यह दीर्घकालीन माध्‍यम नहीं है। यहॉं प्रस्‍तुत अभिव्‍यक्ति आपसे जुड़े लोगों तक सीमित पहुंच में है।

आप अपनी अभिव्‍यक्ति मुफ्त उपलब्‍ध साधन ब्‍लॉग के द्वारा प्रस्‍तुत करें एवं उसका लिंक फेसबुक व ट्विटर आदि में देवें इससे यह होगा कि आपकी अभिव्‍यक्ति का दस्‍तावेजीकरण होगा एवं रचनाऍं सर्चइंजन के माध्‍यम से इच्‍छुक पाठकों तक पहुच पायेंगी। इससे इंटरनेट में छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य का भंडारन भी होता जायेगा जो आगामी पेपर लेस दुनिया के लिए उपयोगी होगा।

आप स्‍वयं महसूस कर रहे होंगें कि छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य का प्रिंट वर्जन जन सुलभ नहीं है। हम आप अपनी रचनाओं का संग्रह 100-500 प्रतियों में छपवाते हैं और उसे छत्‍तीसगढ़ी के ज्ञात रचनाधर्मियों को मुफ्त में बांट देते हैं। इस प्रकार हमारी रचनाऍं उन प्रतियों की संख्‍याओं तक ही सीमित हो जाती है एवं उनका आंकलन भी उन्‍हीं संख्‍या के पाठकों तक हो पाता है। ऐसे में संभव है कि हमारी रचनाओं का उचित आंकलन मठाधीशी व पूर्वाग्रहों के कारण ना हो पाये।

यदि आप अपनी रचनाऍं नेट में ब्‍लॉग के माध्‍यम से भी प्रस्‍तुत करेंगें तो निश्चित है कि आगामी पेपर लेस जमाने में कम से कम शोध छात्र को अवश्‍य फायदा पहुचेगा एवं नयी पीढ़ी के सामने साहित्‍य का समग्र रूप छुप ना सकेगा। हो सकता है कि यह बातें अभी कपोल कल्‍पना लगे किन्‍तु यह शाश्‍वत सत्‍य है।

इस बात की महत्‍ता को स्‍वीकार करते हुए पूर्व से ही ललित शर्मा, सुशील भोले, जनकवि कोदूराम दलित जी के पुत्र अरूण कुमार निगम, जयंत सा‍हू, राजेश चंद्राकर, संतोष चंद्राकर, डॉ.सोमनाथ यादव, मथुरा प्रसाद वर्मा, शिव प्रसाद सजग आदि इत्‍यादि अपनी छत्‍तीसगढ़ी रचनाओं के साथ इंटरनेट में सक्रिय हैं।

अत: आपसे अनुरोध है कि शीध्र ही अपना छत्‍तीसगढ़ी भाषा के रचनाओं के लिए एक ब्‍लॉग बनायें एवं अपनी रचनाऍं उसमें अपलोड करें।

जय छत्‍तीसगढ़, जय भारत।

संजीव तिवारी.

एक ठो अउर राजधानी नामा: बौद्धिकता का पैमाना

हमारे पिछले फेसबुक स्टेट्स ‘पवित्र उंगलिंयॉं‘ में  कमेंटियाते हुए प्रो.अली सैयद नें हमारी पर्यवेक्षणीयता की सराहना की थी. हम भी सोंचें कि ऐसा कैसे हुआ, व्यावसायिक कार्य हेतु दिल्ली, ट्रेन से आना जाना तो लगा रहता है पर ऐसी पर्यवेक्षणीयता हर बार नहीं होती. बात दरअसल यह थी कि मोबाइल चोरी चला गया था, ना कउनो फेसबुक, ना ब्लॉग पोस्ट, ना मेल सेल, ना एसएमएस, ना गोठ बात. तो कान आंख खुले थे जब किटिर पिटिर करने को मोबाईल ना हो तो, खाली मगज चलबे करी.

त हुआ का कि, हमारे सामने के सीट म एक नउजवान साहेब बइठे रहिन. टीटी टिकस पूछे त, बताईन हम रेलवे के साहब हूं. हम देख रहे थे, बिल्कुल साहेब जइसे दिख भी रहे थे. हमने सोंचा भले साहब की रूचि हम पर ना हो फिर भी समें काटे खातिर उनसे बात शुरू की जाए. बाते म पता चली कि साहेब भारतीय रेलवे अभियांत्रिकी सेवा के अधिकारी हैं, झांसी में पदस्थ हैं, नाम है अहमद, लखनउ के हैं. 

अहमद साहेब के रौब दाब देख के हमहू बताए दिए के बंगलोर में हमारे भी मित्र है, रेलवे अभियांत्रिकी सेवा के साहब हैं. अहमद साहब हमारा मन रखने के लिए पूछे के, ‘का नाम है, आपके मित्र का.‘ हमने बताया ‘प्रवीण पाण्डेय.‘ सामने बइठे अहमद साहब तनि चकराए. अब उनकी आवाज से लगा के कउनो तवज्जो दीन है साहब नें. अहमद साहेब खुश होकर बताने लगे के ‘प्रवीण पाण्डेय साहब तो झांसी में रहे हैं. हमसे सीनियर पोस्ट में थे, बड़ा नाम है साहब का झांसी में, कड़क और इमानदार साहब हैं.‘ हमसे पूछा कि ‘आपसे कइसे पहचान है.‘ 

हम सोंचे बड़ बुडबक है यार उ पांडे हम तेवारी ऐतना नइ बुझाता. फिर खामुस खा गए. थूंक घुटके फिर बोले ‘उ बड़ा उम्दा हिन्दी ब्लागर हैं और हम भी ब्लॉगर हैं एइ कारन पहचान है.‘ अहमद साहेब नें दूसरा क्बेसचन दागा, ‘मतलब आपका ये टिकट पाण्डेय साहब के अप्रोच से कनफर्म हुआ है.‘ हम चकराए कि इनको कईसे पता चला कि अपरोच से टिकट कनफर्म हुआ. कने लगे, ‘लिस्ट में आपके नाम के आगे एच. ओ. लिखा है, दो दिन पहले बना टिकट कहीं इन दिनों बिना अपरोच के कनफर्म होता है भला.‘ हमने कहा ‘अरे नहीं भाई, ई तो हमारे कलाईंटें न कटवाया है, कउनो मंत्री संत्री से करवाए होंगें कनफर्म. हमको नइ पता.‘ उन्होंनें कहा ‘ओह!‘

इसी बात पर अहमद साहब नें टिकट कनफर्म कराने आने वाले मित्रों और रिश्तेदारों के फोन की कथा सुनाई और अपनी बेबसी का खुलासा किया. हमने भी कहानियों को सुनते हुए उन्हीं की तरह बार बार बोला ‘ओह!‘

तब तक अहमद साहब प्रवीण पाण्डेय जी का ब्लॉग ‘न दैन्यं ना पलायनम‘ माबाईल में ढूंढ निकाले थे और प्रशन्नता से बांचने लगे... खामोशी. 

कुछ देर बाद हमें लगा के इन पर अब अपना रौब दाबा जाए. हमने बताया के ‘हमहू हिन्दी ब्लॉगर हैं अउर हमारी भी वैश्विक पहचान है. फलां फलां सम्मान मिला है, ये है, वो है, माटी वाले हैं, कुल मिला कर हम हम हैं.‘ 

‘वाह भई!‘ तब तक अहमद साहब हमारा ब्लॉग भी मोबाईल में चाप लिए थे. आपके ब्लॉग में तो दूसरों के भी पोस्ट हैं. हम तनि झेंपियाते हुए बोले ‘का है ना कि हम आजकल बहुत बियस्त रहते हैं इस कारन पोस्ट नहीं लिख पाते...‘ ये तो गनीमत था कि अहमद साहब ब्लॉगर नहीं थे नहीं तो हमारी वैश्विक पहचान दुई मिनट में धूल में मिल जाती, हालांकि एसी कूपे में मिलाने लायक धूल नहीं थी इस बात का भी सकून था. उनके हाव भाव से पता चल रहा था कि हमारे बताने के बावजूद वे हमें असामान्य कतई नहीं मान रहे थे जबकि हम अपनी वैश्विकता सिद्ध करना चाह रहे थे. 

बात ना बनते देख हमने एक चांस अउर लिया. हमने उन्हें बताया कि ‘इलाहाबाद में हमारे एक और पहचान के हैं. रेलवे में बड़का पोस्ट में है, नाम है उनका ज्ञानदत्त पाण्डेय.‘ अहमद साहब उपर पंखे की ओर देखते रहे, लगा वे उसकी रफ़तार बढ़ाना चाह रहे थे. 

हमने आगे बताया कि ‘वे मालगाड़ी परिवहन से संबंधित विभाग में बड़का साहेब हैं.‘ अहमद साहब नें कहा कि ‘वो कोई बड़ा पोस्ट नहीं होता.‘ बात गिरते देखकर हमने कहा कि ‘नइ जी, बड़े पोस्ट में हैं, बिट्स पिलानी के ग्रेजुएट हैं, सीनियर हैं.‘ अहमद साहब झट इलाहाबाद फोन लगा लिए. पूछने लगे ‘किसी ज्ञानदत्त पाण्डेय को जानते हो.‘ उधर से आ रही आवाजों को हम अहमद के आंखों की चमक से सुनने लगे. फोन बंद करने के बाद अहमद साहब नें मुस्कुराते हुए बताया कि ‘ज्ञानदत्त पाण्डेय जी चीफ आपरेटिंग मैनेंजर हैं अब गोरखपुर में हैं.‘ उन्होंनें स्वीकारा कि वे बहुत बड़े पोस्ट में हैं, दिल को सूकूं मिला. 

आगे अहमद साहब नें बताया कि जिनको उन्होंनें फोन किया था वे ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की काफी प्रशंसा कर रहे थे, कह रहे थे कि ‘बहुतै अच्छे अदमी हैं, कबि हैं मने गियानी हैं..‘

बातों बातों में झांसी टेसन आ गया, अहमद साहब हाथ मिलाकर दरवाजे की ओर चले गए. हम भी दुर्ग उतर गए, फिन अब तक सोंच रहे हैं. ज्ञानदत्त जी तो गद्यकार हैं, उनके कवि होने की जानकारी हमें नहीं है. संभवतः सामने वाले नें कवि होने का मतलब बौद्धिकता से लगाया होगा, मने बौद्धिकता का पैमाना कविता है.

संजीव तिवारी 


यह पोस्‍ट मेरे ब्‍लॉग आरंभ में यहॉं भी है.

ढ़ोलकल: बस्तर का रहस्य


मनुष्य सदैव रहस्य की खोज में रहता है, उसकी उत्सुकता रहस्यों को निरंतर उद्घाटित करने की रहती है. रहस्य की परतें, परत दर परत जब खुलती है तो सीधे सपाट घटनाओं में भी रोचकता बढ़ती जाती है. पौराणिक आख्यानों में नागों के संबंध में भी ऐसे ही रहस्यमय घटनाओं का उल्लेख आता है. नाग लोक, वासुकी, तक्षक, शेष नाग, इच्छाधारी नाग नागिन जैसे रहस्यमयी नागो की कथायें हमें रूचिकर लगती है. राजीव रंजन प्रसाद द्वारा रचित एवं पिछले माह प्रकाशित उपन्यास ‘ढ़ोलकल‘ हमारी इसी रूचि को बढ़ाती है.

‘ढ़ोलकल‘ बस्तर के नाग शासकों पर केन्द्रित उपन्यास है, बस्तर में नाग शासकों का एक वैभवशाली अतीत रहा है. बस्तर में यत्र तत्र बिखरे पुरावशेष आज भी समृद्ध नागों के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं. जिसके बावजूद बस्तर के नागों को लगभग बिसरा दिया गया है. ‘ढ़ोलकल‘में बस्तर के नाग शासकों के इसी विस्मृत काल का चित्रण करते हुए लेखक नें पौराणिक व ऐतिहासिक घटनाओं को अपने चितपरिचित कथात्मक शैली में पिरोया है. इस उपन्यास में नागो से जुड़े मिथकों तथा ऐतिहासिक तथ्यों का सुन्दर समन्वय है. राजीव रंजन प्रसाद जी नें इस उपन्यास में यथार्थ और कल्पना का एक रहस्यमय लोक तैयार किया हैं. उपन्यास के शब्द दर शब्द और पृष्ट दर पृष्ट नागों की जीवन शैली एवं उनके सांस्कृतिक-राजनैतिक इतिहास को राजीव नें ऐसा बिखेरा है कि एक बार पढ़ना आरंभ करने के बाद आप उसे अंत तक पढ़े बिना नहीं रह सकते.

‘ढ़ोलकल‘ उपन्यास की मूल कथा के अनुसार वारंगल से अपने राज्य विस्तार के हेतु से बस्तर की ओर बढ़ते चालुक्य वंशी राजा अन्नमदेव, नाग शासक हरिश्चन्द्र देव के चक्रकोट किले पर आक्रमण करता है. वृद्ध नाग शासक पिता के युद्ध में आहत होने के कारण नाग राज कुमारी चमेली बाबी अन्नमदेव से युद्ध करती है. अन्नमदेव उसकी वीरता एवं सौंदर्य से आकर्षित होता है किन्तु वीरांगना चमेली बाबी प्रणय निवेदन व पराजय स्वीकार करने के बजाए आत्मदाह कर लेती है. इसी घटना को आधार लेते हुए लेखक नें नागों के इस गौरव गाथा को विस्तारित किया है. पौराणिक दंत कथाओं, आख्यानों, मिथकों एवं इतिहास को आधार बनाते हुए नागों से संबंधित सभी संदर्भों को लेखक नें इस उपन्यास में स्थान दिया है. जिसमें कश्यप ऋषि की पत्नी विनीता व कद्रु से आरंभ नाग वंश, रामायण कालीन व महाभारत कालीन नागों का उल्लेख एवं ऐतिहासिक नागवंश के प्रत्येक महत्वपूर्ण घटनाओं व पात्रों को समाहित किया है. उपन्यास में नागों के संबंध में संदर्भ का उल्लेख एवं घटनाओं का कथात्मक विस्तार लेखक के गहन शोध को दर्शाता है. उपन्यास में संदर्भों एवं घटनाओं में लयात्मकता है, कथा का प्रवाह अद्भुत रोचकता के साथ अविरल है.

अजेय बस्तर की राज कुमारी चमेली बाबी को सलाम सहित, राजीव रंजन प्रसाद जी को मै बस्तर के नाग शासकों की गौरव गाथा के अभूतपूर्व सृजन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद देता हूं.

संजीव तिवारी

धूप की नदी: कील कॉंटे और कमन्द

वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, कवि, पत्रकार सतीश जायसवाल जी का हालिया प्रकाशित यात्रा संस्मरण ‘कील कॉंटे कमन्द’ की चर्चा चारो ओर बिखरी हुई है। मैं बहुत दिनों से इस जुगत में था कि अगली बिलासपुर यात्रा में श्री पुस्तक माल से इसकी एक प्रति खरीदूं किन्तु उच्च न्यायालय के शहर से पहले स्थापित हो जाने के कारण, प्रत्येक दौरे में शहर जाना हो ही नहीं पा रहा था और किताब पढ़ने की छटपटाहट बढ़ते जा रही थी। इसी बीच कथा के लिए दिए जाने वाले प्रसिद्ध वनवाली कथा सम्मान से भी सतीश जायसवाल जी नवाजे गए। दो-दो बधाईयॉं ड्यू थी, और हम सोंच रहे थे कि अबकी बार बधाई वर्चुवल नहीं देंगें, उन्हें भिलाई बुलाते हैं और भिलाई साहित्य बिरादरी के साथ उन्हें बधाई देते हैं। जब वे बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष थे तो भिलाई उनका निवास था इस कारण उनका लगाव भिलाई से आज तक बना हुआ है। शायद इसी जुड़ाव के कारण उन्होंनें हमारा अनुरोध स्वीकार किया। वो आए और भिलाई साहित्य बिरादरी के साथ एक सुन्दर आत्मीय मिलन का कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम की चर्चा फिर कभी, इस कार्यक्रम से ‘कील कॉंटे कमन्द’ में आवरण चित्रांकन करने वाली डॉ.सुनीता वर्मा जल्दी चली गयीं। प्रकाशक नें उनके लिए ‘कील कॉंटे कमन्द’ की एक प्रति सतीश जायसवाल जी के माध्यम से भेजा था, वह प्रति तब बतौर हरकारा मेरे माध्यम से भेजा जाना तय हुआ। किताब उन तक पहुचाने में विलंब हो रहा था और पन्ने फड़फड़ाते हुए आमंत्रित कर रहे थे कि पढ़ो मुझे।


स्कूल के दिनों में स्कूल खुलने के तत्काल बाद और नई पुस्तक खरीद कर जिल्द लगाने के पहले, नई किताबों से उठते महक को महसूस करते, हिन्दी विशिष्ठ में लम्बे और अटपटे से लगते नाम के लेखक की रचना ‘नीलम का सागर पन्ने का द्वीप’ को हमने तीस साल पहले पढ़ा था। बाद में हिन्दी के अध्यापक नें बताया था कि यह यात्रा संस्मरण है। जीवंत यात्रा संस्मरणों से यही हमारी पहली मुलाकात थी, बाद के बरसों में वाणिज्य लेकर पढ़ाई करने के बावजूद मैं हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ को बूझने का प्रयास उनकी कृतियों में करते रहा। पत्र-पत्रिकाओं में अन्यान्य विधाओं के साथ कुछेक यात्रा संस्मरण भी पढ़े, किन्तु अज्ञेय का वह जीवंत संस्मरण आज तक याद रहा। और यह कहा जा सकता है कि यात्रा संस्मरणों के प्रति मेरी दिलचस्पी बढ़ाने में वह एक कारक रहा। 

आदिवासी अंचल का यात्रा संस्मरण हाथ में था और जब हमने उसे खोला तो हमारी आंखें इस लाईन पर जम गई ‘... आखिरकार, यह एक रचनाकार का संस्मरण है। इसमें रचनाकार की अपनी दृष्टि और उसकी आदतें भी शामिल है।’ लगा किताब मुझे, अपने विशाल विस्तार में गोते लगाने के लिए बुला रही है। गोया, लेखक नें भी इस विस्तार को कई बार धूप की नदी के रूप में अभिव्यक्त किया है। आदिवासी अंचल की जानकारी, यात्रा विवरण, रचनाकार की दृष्टि एवं रचनाकार की आदतें सब एक साथ अपने सुगढ़ सांचे में फिट शब्दों के रूप में आंखों से दिल में उतर रहे थे। दिल में इसलिए कि रचनाकार नें किताब को अपने मित्र को समर्पित करते हुए लिखा ‘अपनी उस बेव़कूफ सी दोस्त के लिए जिसकी दोस्ती मैं सम्हाल नहीं पाया और अब उसका पता भी मेरे पास नहीं ...।’ इसे पढ़नें के बाद इतना तो तय हो जाता है कि आगे किताब के पन्नों पर दिल धड़केगा, रूमानियत और इंशानी इश्क की पोटली से उठती खुश्बू अलिराजपुर के मेले से होते हुए भोपाल तक महकेगी। 

लेखक किताब की भूमिका में बताते हैं कि मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा प्रदेश के 16 वरिष्ठ साहित्यकारों को आदिवासी क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजा गया था। लेखक नें अपनी स्वेच्छा से आदिवासी क्षेत्र झाबुआ अंचल को अध्ययन के लिए चुना और यह संस्मरण उसी अध्ययन का प्रतिफल है। लेखक अपनी भूमिका में ही नायिका हीरली और नायक खुमfसंग का हल्का सा चित्र खींचते हैं। आदिवासी झाबुआ के भगोरिया मेले में आदिवासी बालायें प्रेमियों के साथ भागकर व्याह रचाती हैं। हीरली भी इसी मेले में अपने पहले पति को छोड़कर खुमfसंग के साथ भागी थी। आगे बढ़ते हुए लेखक स्पष्ट करते हैं कि यह किताब नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के लिए नही है। 

अपनी बातें शुरू करने के पहले वे एक कविता भी प्रस्तुत करते हैं जिसमें fसंदबाद, मार्कोपोलो, ह्वेनसांग, फाह्यान व राहुल सांकृत्यायन के बाद की कड़ी में अपने आप को रखते, यायावरों की सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए, अपरिचित ठिकानों से हमें परिचित भी कराते चलते हैं। लेखक यात्रा का पता ठिकाना बताते हुए अपने शब्दों के साथ ही पढ़नें वाले को भी झाबुआ के दिलीप fसंह द्वारा से आदिवासी भीलों की आदिम सत्ता में प्रवेश कराते हैं जहां आदिवासी भीलों की अपनी आचार संहिता है। साथ है आनंदी लाल पारीख , जो प्रसिद्ध छायाकार है और गुजरात, राजस्थान की सीमा से लगे मध्य प्रदेश के इस आदिवासी भूगोल के चप्पे चप्पे के जानकार हैं। अरावली पर्वत से गलबईहां डाले अनास और पद्मावती नदी के कछारों व पहाड़ों में समय के मंद आंच में निरंतर fसंकती भीलनियों के साथ ‘डूंगर खॉंकरी’ व ‘ग्वाल टोल’ खेलते हुए। कपास धुनकिए के आवाज में धुन मिलाते हुए भटकते हुए। 

किताब के शीर्षक कील कॉंटे कमन्द के साथ लेखक उस लापता मित्र वीणा परिहार से भी मिलवाते हैं जो असामान्य कद की लम्बी महिला हैं और कटे बालों के साथ झाबुआ के महाविद्यालय में प्राध्यपक हैं। लेखक नें यद्यपि उनका कद किसी फीते में नापा नहीं है किन्तु साथ चलते हुए परछाइयों में उसका यह कद दर्ज हुआ है। वह अंग्रेजी साहित्य में चर्चित शब्द ‘हस्की वॉइस्ड’ सी लगती है किन्तु लेखक उसकी प्रशंसा करते सकुचाते हुए से कहते हैं ‘... हमारे सामाजिक शिष्टाचार की संहिता में ‘सेक्सी ब्यूटी’ को ‘काम्पलीमेंट’ (प्रशंसा) अथवा ‘एप्रीशिएट’ (सराहना) करना तक जोखिम से भरा हो सकता है।’ लेखक के इस वाक्यांश से वीणा परिहार को समझ पाना आसान हो उठता है। सुकून मिलता है जब पता चलता है कि सुदूर कानपुर उत्तर प्रदेश से मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल में अकेली रहती उस अकेली लड़की के अकेलेपन में उसका ईश्वर भी हैं।

सफर के पहले पड़ाव के रूप में गझिन अमराई, पद्मावती नदी, काकनवानी, चाक्लिया गॉंव, चोखवाड़ा गढ़ी के आसपास के आदिवासी fस्त्रयों के स्तन-सूर्य का आख्यान, उनकी संस्कृति, सौंदर्यानुभूति को छूते हुए, मालवा के पारंपरिक दाल बाफले और चूरमे के सौंधी महक और भूख के साथ दिया बाती के समय में, जरायम पेशा भीलों की बस्ती बालवासा गॉंव मे, जब लेखक पहुचता है, तो ढ़िबरियों की रौशनी में गॉंव का सरपंच और लेखक का मेजबान रामसिंग कहीं खो जाता है। रामसिंग राजस्थान के किसी गॉंव में हालिया डाका डालकर यहॉं छुपा बैठा है और पुलिस उसे तलाश रही है। लेखक अपने यात्रा के सामान के साथ गॉंव में भोजन के लिए जलते लकड़ी के चूल्हे के बहाने परिवार की एकजुटता और परिभाषा की कल्पना करता है।

मेजबान रामसिंग के व्यक्तित्व की बानगी करते हुए लेखक उस अंचल के भीलों के जीवन में झांकते हैं। घटनाओं को जीवन और कल्पनाओं से जोड़ते हैं। यादों में झाबुआ के इस बीहड़ गॉंव में यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व झाबुआ कलेक्टर के नाम जारी म.प्र.साहित्य परिषद एवं अदिवासी कल्याण विभाग से जारी अध्ययन यात्रा में सहयोग करने की अनुशंसा पत्र की अहमियत पर सवाल उठाते हैं। उस पत्र की फटी पुर्जी के पृष्ट भाग पर अपना नाम लिखकर कलेक्टर से मिलने के लिए भिजवाते हुए इस व्यवस्था को सिर झुकाकर स्वीकार भी करते हैं। 

किताब की नायिका हीरली के गॉंव गुर्जर संस्कृति से ओतप्रोत, अलिराजपुर में भीलों के धातक घेरे का विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि कैसे भीलनी हीरली नें अपने पहले पति को छोड़कर अपने प्रेमी के साथ भागी थी और उसके भाई नें जब उसके प्रेमी को मारने के लिए तीर छोड़ा था तो वह सामने आ गई थी, उसके शरीर को बेधते हुए पांच तीर लगे थे और वह आश्चर्यजन रूप से बच गई थी। ताड़ी के मदमस्त नशे में होते अपराध, नशे के कारण होते अपनों के बीच की मार काट, सजा आदि की पड़ताल किताब में होती है। fहंसा के विरूद्ध प्रेम की सुगंध दृश्य अदृश्य रूप से महकता है।

लंका जैसे भौगोलिक आकृति के गॉंव साजनपुर में ताहेर बोहरा की कहानियॉं यत्र तत्र बिखरी हैं, खतरे वाले 16 किलोमीटर के घेरे में बिखरे इन कहानियों को लेखक बटोरता है और सीताफल की दो टोकरियॉं साथ लेकर लौटता है। लेखक चांदपुर, छोटा उदयपुर, छकतला गॉंव व नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नवागाम बांध को समेटते हुए कर्मचारियों के स्थानांतरण के हेतु से सिद्ध कालापानी क्षेत्र के गांव मथवाड़ जहॉं भिलाला आदिवासियों की आबादी है, से साक्षात्कार कराता है। झाबुआ के लघुगिरिग्राम माने हिल रिसोर्ट आमखुट की यात्रा रोचक है। लेखक का 100 वर्ष पुराने चर्च की मिस ए.हिसलॉप यानी मिस साहेब से विक्टोरियन शैली की मकान मे मुलाकात, आदिवासी अंचलों में हो रहे धर्मांतरण के नये अर्थ गढ़ते हैं। केरल से आकर पुरसोत्तमन का वहॉं आदिवासियों के बीच काम करना, कुलबुलाते प्रश्न की तरह उठता है जिसका जवाब वे स्वयं देते हैं ‘... आदिवासी असंतोष और पृथकतावादी आन्दोलनों के आपसी रिश्ते मुझे एक त्रिकोण में मिलते हुए दिख रहे थे।’ आमखुट में विचरते हुए चंद्रशेखर आजाद भी सोरियाये जाते हैं, यहॉं अलिराजपुर और जोबट के बीच छोटी सी बस्ती भाबरा है जहॉं चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। ऐसी कई नई जानकारियॉं हौले से बताते हुए वे इस तरह शब्दों के माध्यम से यात्रा में साथ ले चलते हैं कि समूचा परिदृश्य जीवंत हो उठता है।

मानव स्वभाव है कि वह अनचीन्हें को अपने आस पास के प्रतीकों से जोड़ता है, शायद इसीलिए वे पूरी यात्रा में वहॉं के स्थानों, व्यक्तियों से छत्तीसगढ़ की तुलना करना नहीं भूलते जिसके कारण अनचीन्हें परिदृश्य बतौर छत्तीसगढ़िया मेरे लिए सुगम व बोधगम्य हो उठते हैं। किताब पढ़ते हुए लगता है कि लिखते हुए अंग्रेजी साहित्य उनके जेहन में छाए रहता है वे कई जगह अंग्रजी साहित्य के चर्चित पात्रों व घटनाओं को यात्रा के दौरान के पात्रों और घटनाओं से जोड़ते हैं। शिविर समेटते हुए उनके लेखन में झाबुआ कलेक्टर के साहित्य के प्रति घोर अरूचि और आई.ए.एस. प्रशिक्षार्थी विमल जुल्का का साहित्य प्रेम भी प्रगट होता है जो नौकरशाहों की संवेदनशीलता का स्पष्ट चित्र खींचता है। यात्रा में कई सरकारी व असरकारी सहयोगियों का उल्लेख आता है जिनमें से लेखक आदिवासी लोक के चितेरे झाबुआ क्षेत्रीय ग्रामीण बैक के अध्यक्ष सुरेश मेहता का उल्लेख करते हैं जो संभवतः वही हैं जिनके साथ लेखक नें बस्तर के घोटुलों की यात्रा की थी। लोक कलाओं, परंपराओं और संस्कृतियों पर चर्चा करते हुए वे झाबुआ के कपड़े और तिनके से कलात्मक गुड़िया के निर्माण को कोट करते हैं जो झाबुआ के लोक कला को अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान देनें में सक्षम है। इस पर जमीन से जुड़ाव के मुद्दे पर कहते हैं कि ‘.. लोक कलाओं को उसके नैसर्गिक परिवेश से अलग करके उनकी सहज स्वाभाविकता में ग्रहण नहीं किया जा सकता।’ 

यात्रा के दौरान बिम्बों, प्रतीकों, परम्पराओं के माध्यम से वे आदिवासी अंचल का विश्लेषण करते हैं। छोटी सी छोटी और नजरअंदाज कर देने वाली बातों, घटनाओं से भी वे चीजें बाहर निकालते हैं। वे नदी पार करते हुए नदी में पानी भरने आई भीलनियों के पात्रों से भी भीलों की सामाजिक आर्थिक संरचना का अंदाजा लगाते हैं। कल कल करती नदी को धूप की नदी कहते हैं, यह उनकी अपनी दृष्टि है एवं कल्पना है जिसके विस्तार का नाम है कील काटे कमन्द।

संजीव तिवारी
14.04.2014

कील कॉंटे कमन्द
सतीश जायसवाल
प्रकाशक मेधा बुक्स, एक्स 2, 
नवीन शाहदरा, दिल्ली 110 032, 
फोन 22 32 36 72
प्रथम संस्करण, पृष्ट 140, 
हार्ड बाउंड, मूल्य 200/- 
आवरण चित्र डा.सुनीता वर्मा

सतीश जायसवाल
कृतियॉं - 
कहानी संग्रह - जाने किस बंदरगाह पर, धूप ताप, 
कहॉं से कहॉं, नदी नहा रही थी
बाल साहित्य - भले घर का लड़का, हाथियों का सुग्गा
मोनोग्राफ - मायाराम सुरजन की पत्रकारिता पर केfन्र्गत
संपादन - छत्तीसगढ़ के शताधिक कवियों की कविताओं का संग्रह कविता छत्तीसगढ़ 
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नया भू अधिग्रहण अधिनियम : सरकार एवं न्यायालय को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए

नया भू अधिग्रहण अधिनियम (भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनव्य र्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013  Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013) के प्रभावी हो जाने के बावजूद छ.ग.शासन के द्वारा पुराने अधिनियम (भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894) के तहत् की जा रही भू अधिग्रहण कार्यवाही उद्योगपतियों एवं नौकरशाहों के गठजोड़ का नायाब नमूना है. भारत गणराज्य के चौंसठवें वर्ष में संसद के द्वारा नया भू अधिग्रहण अधिनियम अधिनियमित कर दिया गया है जिसका प्रकाशन भारत का राजपत्र (असाधारण) में दिनांक 27 सितम्बकर 2013 को किया गया है.

नया भू अधिग्रहण अधिनियम के प्रवृत्त होने की तिथि के संबंध में इस नये अधिनियम की धारा 1 (3) में कहा गया है कि ‘यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा, जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे’ इसी तरह पुराने अधिनियम के व्यपगत होने के संबंध में इस नये अधिनियम की धारा 24 में स्पष्टत किया गया है कि जहॉं पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के द्वारा जारी कार्यवाही में यदि धारा 11 के अधीन कोई अधिनिर्णय नहीं लिया गया है वहॉं नये अधिनियम के प्रतिकर का अवधारण किये जाने से संबंधित सभी उपबंध लागू होंगे. यदि किसी मामले में पांच वर्ष पूर्व भी कोई अधिनिर्णय लिया गया हो किन्तु भूमि का वास्तविक कब्जा नहीं लिया गया हो या प्रतिकर का संदाय नहीं किया गया हो तो वहॉं पुरानी कार्यवाही को व्यपगत करते हुए, नये अधिनियम के उपबंधों के तहत अर्जन कार्यवाही नये सिरे से आरंभ की जावेगी.

पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के स्थान पर नये भू अधिग्रहण अधिनियम के प्रभावी होने की तिथि के संबंध में केन्द्रीय सरकार के द्वारा भारत का राजपत्र (असाधारण) में दिनांक 19 दिसम्बिर 2013 को अधिसूचना जारी कर दी गई है जिसके अनुसार नया अधिनियम 1 जनवरी 2014 से प्रवृत्त हो गया है.

नये अधिनियम के प्रवृत्त हो जाने की तिथि 1 जनवरी 2014 के बाद भी छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा हजारों एकड़ भूमि के अधिग्रहण के लिए पुराने अधिनियम के तहत् धारा 4, 6, 11 आदि का निरंतर प्रकाशन किया जा रहा है. जो मौजूदा अधिनियम के अनुसार व्यपगत कार्यवाहियॉं है. छत्‍तीसगढ़ शासन के नौकरशाह इसके लिए प्रशासनिक बौद्धिकता, कार्यालयीन श्रम, राज्‍य वित्त व समय का बेवजह व्यय करवा रहे है जो उचित नहीं है. इसके साथ ही यह भारतीय कानून एवं संविधान के प्रति जनता की आस्था पर भी कुठाराधात है. इस संबंध में सरकार एवं न्यायालय को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए एवं पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत् व्यवहरित अधिग्रहण कार्यवाहियों पर रोक लगाया जाना चाहिए.


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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...