छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 5

पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1- 2 - 3- 4

(अंतिम किश्त)


कला व संस्कृति के विकास में हमारे लोक कलाकारों नें उल्ले खनीय कार्य किये हैं इसके नेपथ्य‍ में अनेक मनीषियों नें सहयोग व प्रोत्साहन दिया है किन्तु वर्तमान में इसके विकास की कोई धारा स्पष्ट नजर नहीं आती जबकि हमारी संस्कृति की सराहना विदेशी करते नहीं अधाते, जापान व जर्मनी के लोग हमारे पंडवानी का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और हम स्वयं थोथी अस्मिता का दंभ भरते हुए अपनी लोक शैली तक को बिसराते जा रहे हैं । शासन के द्वारा विभिन्न मेले मडाईयों व उत्सवों का आयोजन कर इसे जीवंत रखने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु हमें इसे अपने दिलों में जीवंत रखना है । डॉ. हीरालाल शुक्ल जी इस संबंध में गहराते संकट को इस प्रकार व्यक्त करते हैं - ’ रचनात्मकता के नाम पर आज जो हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं, वह सृजन क्षमता नहीं, पश्चिम की टोकरी में भरा हुआ कबाड है, जिसको आधुनिक बाजार किशोर संवेदनाओं को उत्तेजित कर संस्कृति के नाम पर बेंच रहा है । कहीं ऐसा न हो कि छत्तीसगढी नाचा सीखने के लिए हमें पश्चिम के किसी विश्वविद्यालय में जाना पडे ।‘


इसी चिंतन को पं.श्यामाचरण दुबे स्पष्ट करते हैं -’सांस्कृतिक चेतना का उदय भविष्य के समाज की उभरती परिकल्पनांए और सांस्कृतिक नीति के पक्ष हमें आश्वस्थ करते हैं कि लोक संस्कृ‍तियां अस्तित्व के संकट का सामना नहीं कर रही, संभावना यही है कि वे पुष्पित पल्लवित और पुष्ट होंगी । लोक संस्कृतियों के संस्कृति की मुख्य धारा में विलियन संबंधी दुराग्रह हमें छोडने होंगें । लोक जगत में उन्हें दूसरी श्रेणी की नागरिकता देना केवल लोक कलाओं के लिए घातक सिद्ध होगा । हमें ऐसा दृष्टिकोण अपनाना है जो लोककलाओं के विकास और उत्कर्ष का मार्ग भी अवरूद्ध न करे, उन्हें अपनी दिशा खोजने का मौका दें और अपनी गति से आगे बढने दें । गांव की धरती छोडकर जब वे महानगरों के मंच पर जायेगी तब उसका रूप तो बदलेगा ही सांस्कृतिक आदान प्रदान भी उन्हें प्रभावित करेगा ।‘


वर्तमान शासकीय योजनाओं एवं सत्य के धरातल पर उपस्थित विकास पर वे आगे कहते हैं - ‘शासन की मंशा के बावजूद ग्रामीण जीवन में आजादी के 25 वर्षो बाद भी कोई बहुत सकारात्मक परिवर्तन नहीं दिखाई देता । शोषण, गरीबी, अत्याचार लगभग उसी रूप में बरकरार है । लेकिन जागृति की किरणें अवश्य दिखाई देती है । दुखित और मरही जैसे लोग हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बदले कुछ मुखर हो चले हैं । उन्हें मालूम हो गया है कि भारतीय गणतंत्र में उनकी भी एक निर्णायक भूमिका है इसलिये दुखों को अपनी नियति समझकर चुप रह जाना कायरता है । इतना ही नहीं सरकारी नीतियों और घोषणाओं का विरोध करते हैं । काल्पनिक पंचवर्षीय योजनाओं की जगह धरती से जुडे हुए क्षे‍त्रीय प्रसाधनों का उपयोग कर हरित क्रांति को सफल बनाने के लिये सही दिशा निर्देश देते हैं । कहना न होगा, लघु सिंचाई योजनाओं का विस्तार सर्वथा उचित एवं क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप है । इसके साथ ही साथ इस पिछडे अंचल में भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादूर शास्त्री के जय जवान जय किसान के नारे के अनुरूप दुखित का हर लडका वीर सैनिक के रूप में सरहद पर अपनी कुर्बानी देता है । दूसरा एक कर्मठ किसान के रूप में स्वावलम्ब न के सपनों को साकार कर रहा है इसके बावजूद लोकगीतों पर आधारित चंदैनी गोंदा का मूल ढांचा परम्परागत है ।‘
विकास और परम्परा दो अलग अलग अस्तित्व को बयां करते हैं, पर कला एवं संस्कृति में परम्पराओं के विकास का प्रभाव धीरे धीरे यदि छाता है तो वह स्वीकार्य होता है किन्तु हमने अपनी परम्पराओं को आज तक कायम रखा है ।


छत्तीअसगढ के प्रथम मुख्य मंत्री अजीत जोगी जी अक्सर ये कहा करते थे कि हम अमीर धरती के गरीब लोग हैं । बार बार पत्र-पत्रिकाओं में यह बात सामने आती रही पर सात साल बाद भी हम अपनी गरीबी ओढे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे । जो अवसरवादी हैं वे राज्य बनने के पूर्व एवं राज्य बनने के बाद भी लगातार इस धरती का दोहने करते आ रहे हैं । पृथ्वी के गर्भ में छिपे अकूत खनिज संम्पदा से लेकर जंगल के उत्पादों तक का लूट खसोट जारी है । लूटने वालों नें मुखौटे बदल लिये हैं पर क्रम बदस्तूर जारी है । छत्तीसगढ में नदियों पर भी जनता का हक नहीं रहा यहां नदियां भी बेंच दी गई अब कहने के लिये मुहावरा शेष नहीं रहा कि नदियां बिक गई ‘पानी के मोल’ और हम अपनी छत्तीसगढी अस्मिता को संजोये बैठे हैं । आदिवासियों को बस्तर हाट में एक किलो चार चिरौंजी के बदले एक किलो नमक मिलता है और बस्त‍र हाट के फुल साईज विज्ञापन पत्र - पत्रिकाओं व राज्य के प्रमुख स्थानों पर बडे बडे होल्डींग्स के लिये जारी होता है जिसका भुगतान करोडो में होता है और आदिवासी उसी चार आने के नमक के लिये रोता है । आदिवासी अस्मिता पर हमले के समाचार समाचारों पर छपते हैं, हम दो चार दिन इस पर ज्ञान चर्चा कर चुप बैठ जाते हैं उसी तरह से जिस तरह से सन् 1755 में हैहयवंशी क्षत्रियों पर मराठा सेनापति भास्कर पंथ नें हमला कर छत्तीसगढ का राज्य हथिया लिया था और हम यह सदविचार को लिये बैठे रहे कि राजकाज व राज्य रक्षा का दायित्व तो राजा का है । यदि उसी समय जनता नें बस्तर के आदिवासियों की तरह बाहरी सत्ता का जमकर विरोध किया होता तो आज छत्तीसगढ का इतिहास कुछ और होता । सदियों तक अंग्रेजों के ताल में ताल ठोंकते रहने एवं शेष छत्तीसगढ के साथ नहीं देने के कारण आदिवासियों की शक्ति भी शनै: शनै: क्षीण हो गई । आरंभ से आदिवासी विरोधियों को सत्‍ता और शक्ति प्रदान किया गया और आदिवासियों पर षडयंत्रपूर्वक दमन व अत्याचार किये गये, वर्षों से इस दुख को झेलते हुए आदिवासियों का स्वाभिमान भी जंगलों में सो गया ।


पिछले दिनों नेट पर सर्फिंग करते हुए मुझे बस्तर के आदिम जनजातियों के कुछ चित्र मिले जिसकी कापीराईट अमेरिका के एक फोटोग्राफर का था और उसमें उल्लेख था कि वह अधनंगी तस्वीर कब कब कहां कहां पोस्टर साईज में लाखों में बिकी थी । ये हाल है हमारी अस्मिता का, हमारी सहजता इनकी प्रदर्शनी की वस्तु है । यहां हमें यह भी सोंचना है कि क्या अकेले इन्ही विदेशियों के हाथों हमारी अस्मिता तार तार हुई है ? नहीं । इसके लिये हमारे बीच के ही लोग जिम्मेदार है, हमें छला गया है । इस घृणित कार्य में संलिप्त जो बिचौलिये हैं वे कहीं न कहीं छत्तीसगढिया के रूप में खाल ओढे शैतान ही हैं । 17 वीं सदी से लेकर आज तक छत्तीसगढियों नें ही दूसरे लोगों के साथ मिलकर अपनी क्षणिक स्वार्थ सिद्धि के लिये हमारी अस्मिता के साथ खिलवाड किया है और जब जब हमारी अस्मिता जागी उसे दमन के क्रूर पांवों तले कुचल दिया गया और हम छत्तीसगढिया सबले बढिया बने रहे दमन के विपरीत भाव को वीतरागी बन संतोष के भाव को सर्वत्र फैलाते हुए । हमें हमारी संतोषी प्रवृत्ति व सहजता का एक मार्मिक किस्सा याद आता है ‘अजीत जोगी सदी के मोड पर – 2001’ में अजीत जोगी बताते हैं – ‘ एक दिन एकदम सुबह देवभोग के रेस्ट हाउस में एक आदिवासी मुझसे और क्षेत्र के सांसद पवन दीवान से मिलने आया । उसे एक हीरे का पत्थर मिला था, जिसे उसने 10000 रूपये में एक स्थानीय व्यापारी को बेंच दिया था । सूरत-बम्बई से प्राप्त सूचना के अनुसार वह हीरा 20-25 लाख रूपये में बिका था । जब मैने उसे डांटा और कहा कि तुमने हीरा इतने सस्ते में क्यों बेंच दिया ? तुम तो बडे बेवकूफ निकले, तो वह ठहाका मार कर हंसने लगा । मुझसे बोला, तुम कहते हो मैं बेवकूफ हूं ? चलो मेरे साथ मेरे गांव । मुझे देख रहे हो, मैं सुबह छ: बजे से पीकर मस्त हूं । गांव चलोगे तो पाओगे कि मेरी पत्नी भी न केवल पीकर प्रसन्न है, बल्कि वह तो इन दिनों शराब में स्नान करती है । उस भोले आदिवासी को लगा था कि एक पत्थर का उसे इतना पैसा मिला कि वह उसकी पत्नी खा-पीकर मस्ता हैं फिर भी मेरे जैसा नादान व्यक्ति उसे समझाइस दे रहा है कि वह ठगा गया । उसे तो उतना मिल ही गया था, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी । ऐसे भोले आदिवासियों के साथ अन्याय न हो, कम से कम इतना तो हम सबको सुनिश्चित करना ही होगा ।‘ पवन दीवान जी छत्तीसगढ की इन्हीं परिस्थितियों को अपने एक गीत में कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं –

सडकों की नंगी जांघों पर,
नारे उछला करते हैं,
सिद्धांतों के निर्मम पंजे,
कृतियां कुचला करते हैं
हर भूखा भाषण खाता है,
प्यासा पीता है दारू,
नंगा है हर स्वप्न यहां पर,
हर आशा है बाजारू
मूर्ख यहां परिभाषा रचते,
सारे बौद्विक बिके हुए हैं,
नींव नहीं हैं फिर भी जाने,
बंगले कैसे टिके हुए हैं ।


इन सब के बावजूद हमें आशा की डोर को नहीं छोडना है, विकास की किरणे अब हम तक पंहुच रही है । पूर्व विधायक एवं चिंतक महेश तिवारी जी अपने एक लेख में आशा व्यक्त करते हुए लिखते हैं - ’ अंत में स्वामी विवेकानंद की तर्ज में यही कहना सार्थक होगा : सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती जान पडती है । महासुख का प्राय: अंत ही अतीत होता है । महानिद्रा में निद्रित शव मानव जागृत हो रहा है । जो अंधे हैं वे देख नहीं सकते और जो विकृत बुद्धि हैं वे समझ नहीं सकते कि हमारा छत्तीसगढ अपनी गंभीर निद्रा से अब जाग रहा है । अब कोई इसकी उन्नति को रोक नहीं सकता । यह अब और नहीं सोयेगा, कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती । कुंभकर्ण की दीर्घ निद्रा को अब टूटना ही होगा ।‘ आशावाद के इन शव्दों के साथ ही आत्ममुग्धता से परे हमें अपने संपूर्ण विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करना है, वैचारिक क्रांति को विकास की धारा से जोड देना है । अपनी छत्तीसगढी अस्मिता के साथ अपनी परम्प‍राओं के बीच ही समस्याओं को एक परिवार की भांति सुलझाते हुए आगे पढना है । अब हमें विश्वास हो चला है कि एक न एक दिन तो दीर्ध निद्रा में सोया छत्तीसगढिया जागेगा और पवन दीवान जी के ये शव्द सार्थक होंगें - घोर अंधेरा भाग रहा है, छत्तीसगढ अब जाग रहा है


आलेख एवं प्रस्तुति –
संजीव तिवारी

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 4


पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1 2 3


हमें गर्व है कि हमारी भाषा को शासन नें भी सम्मान दिया और इसे संवैधानिक मान्यता प्रदान की । छत्तीगसगढी भाषा पूर्व से ही समृद्ध भाषा थी अब इसे संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद निश्चित ही इसके विकास के लिए शासन द्वारा समुचित ध्यान दिया जायेगा एवं हमारी भाषा सुदृढ होगी । वैसे छत्तीसगढी भाषा संपूर्ण छत्तीसगढ में बोली जाने वाली विभिन्न जनजातीय भाषाओं एवं हिन्दी का एक मिलाजुला रूप है यह गुरतुर बोली है । छत्तीसगढ की भाषा एवं भाषा परिवार पर डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं - ’ छत्तीसगढ के तीन भाषा परिवारों की लगभग दो दर्जन से भी अधिक भाषाओं में भावों की रसधार सर्वत्र समभाव से बहती है । यहां की आर्यभाषाओं के अंतर्गत छत्तीसगढी, सदरी, भथरी तथा हल्बीए आदि बोलियां सम्मिलित हैं । द्रविड परिवार के अंतर्गत कुडुख, परजी तथा गोंडवाना-वर्ग की चार बोलियां शामिल हैं । मुंडा-परिवार के अंतर्गत र्कोकू, कोरवा, गदबा, हो, खडिया, संथाली, जुआंग, निहाली, मुडा आदि की अपनी ही बानगी है । इन बोलियों के लोकगीतों में अपने-अपने अंचलों की कुछ मौलिक विशेषतायें भी हैं । इनमें इतिहास भी पूरी तरह अंतर्भूत है । अनेक वीर पुरूष लोकदेवों के रूप में और नारियां देवियों के रूप में पूजी जाती हैं । इनका लोक साहित्य बहुत प्राचीन और पीढी दर पीढी चली आ रही है । इस साहित्य के अध्ययन से हम ग्रामवासियों की मनोवृत्ति का सजीव परिचय पा सकेंगें । इसका संग्रह तथा अध्ययन उस पुल का काम दे सकता है जो हमें नगरों और ग्रामों के बीच की गहरी खाई तथा विस्तींर्ण इकाई को पाटने में मदद दे सकेगा ।‘


छत्तीसगढ के हिन्दी व छत्तीसगढी भाषा में पंडित शुकलाल पाण्डेय से लेकर अब तक प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखे गये हैं किन्तु उनकी जन उपलब्धता बहुत कम है । यह साहित्य अब धरोहर के रूप में विभिन्न विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में शोधार्थी छात्रों के लिये उपलब्ध हैं । यदि कोई उत्सुक इन कृतियों को पढना चाहे तो यह सहज में अपलब्ध नहीं है फिर भी हम कहते नहीं अघाते कि हम साहित्य के क्षेत्र में समृद्ध हैं । शासन को इस संबंध में सहयोग करते हुए सभी उत्कृष्ट पूर्व प्रकाशित साहित्य का पुन: प्रकाशन करवाना चाहिये । इसी के साथ ही उपलब्ध साहित्य को विभिन्न स्थानीय प्रशासन व ग्राम पंचायतों के पुस्तकालयों में अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिये । इस संबंध में कुछ साहित्यकारों के द्वारा यह सराहनीय कदम उठाया गया है कि कुछ लेखक व साहित्यकार अपनी कृतियां लेखन विधा से जुडे ब्यंक्तियों को लागत मूल्य पर उपलब्ध करा रहे हैं । जब तक हम अपने लोगों की रचनाओं को आत्मसाध नहीं करेंगें, समसामयिक लेखन के प्रवाह को एवं पाठकों की रूचि को समझ नहीं पायेंगें । हमारा एकमात्र उद्देश्य पाठकों की संतुष्टि एवं विचारात्मक जागरण है लेखन कोई व्यवसाय नहीं ।


पिछले दिनों छत्तीसगढ साहित्य सम्मेलन में उद्बोधन देते हुए डॉ. श्रीमति सत्य भामा आडिल नें भाषा के मानविकीकरण एवं लेखन की सीमाओं पर बडे स्प‍ष्ट शव्दों में कहा कि अभी छत्तीसगढ में लेखन की सीमा एवं स्तर के बंधन से परे आबाद गति से लेखन की आवश्यकता है । उन्हों नें साहित्यकारों, लेखकों से आहवान किया कि आबाध गति से लिखें, अपनी भावनायें व विचारों को जनता तक लायें समयानुसार जनता स्वयं तय कर लेगी कि कौन पठनीय है और कौन स्तरीय । लेखन के मामले में तो मेरा मानना है कि छत्तीसगढ में नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन के बजाय हतोत्साहन ज्यादा मिलता है ऐसे में नवोदित लेखकों के लिये डॉ. श्रीमति आडिल के ये शव्द प्रेरक के रूप में याद किया जायेगा । लेखन में प्रत्येक की अपनी अपनी अलग – अलग शैली होती है एवं अलग – अलग विधा में पकड होती है । बादल को हम बदरा लिखते हैं आप जलज लिखते हैं ऐसी स्थिति में हमारा मानना है कि बादल को जो बदरा समझते हैं वही हमारे पाठक हैं और हम उन्ही के लिये लिखते हैं ।

छत्तीसगढ की वैदिक कालीन महिमा के संबंध में स्थापित साहित्यकारों का लेखन सराहनीय है, मेरा मानना है कि इस पर हम जैसे नवोदित लेखकों को कम ही लिखना चाहिए क्योंकि छत्तीसगढ महिमा लेखन नवोदित लेखकों के द्वारा महिमामंडन साबित हुआ है । विगत दिनों मैं उत्तर भारत के प्रवास पर था वहां मुझे एक बुजुर्ग गुजराती दम्पत्ति एवं दक्षिण आफ्रिका व कनाडा मूल के युवा दम्पत्ति मिले जो मेरे परिवार के साथ ही लगभग संपूर्ण प्रवास में संयोगवश साथ – साथ रहे । चर्चा के दौरान एवं गाईडों के स्थान महिमा के लच्छेंदार वर्णन में हम सब एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगते थे । गुजराती दम्पत्ति बुजुर्ग एवं अध्यावसायी होने के कारण भारतीय संस्कृति व इतिहास से पूर्ण परिचित थे एवं कनाडा मूल के दम्पति भारतीय धर्म व दर्शन विषय पर पीएचडी कर रहे थे ऐसे में प्राय: हर स्थान को राम व कृष्ण या वैदिक कालीन किसी और परंपरा कथा से जोड कर उसका महिमामंडन किया जाता था तो वे मुझसे पूछते थे कि ऐसा किस्सा तो फलां स्थाद का भी है । मेरे कहने का मतलब यह कि ऐसा बारंबार कहने से हमारी विश्व‍नीयता कुछ कम होती है । अब हमें अपने गौरवशाली अतीत का प्रमाण, बार बार देने की आवश्यकता नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत का इतिहास लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है इसे कहने व लिखने का काम हमारे वरिष्ठों का है जिन पर समाज को विश्वास है ।


वरिष्ठों से हमें उसी प्रकार से आशा है जिस प्रकार से सरस्वती के संपादक के रूप में काम करते हुए पदुम लाल पन्ना लाल बख्शी जी नें बडे बडे साहित्याकारों की भाषा एवं शैली को परिष्कृत किया वैसे ही वरिष्ठ साहित्यकार स्वस्थ प्रतियोगिता, कार्यशाला आदि के माध्यमों से नवलेखकों की लेखनी को परिस्कृत करने का निरंतर प्रयास करते रहें । जिस प्रकार से विगत दिनों रायपुर में अखिल भारतीय लघुकथा कार्यशाला का आयोजन किया गया था ।


क्रमश: आगे की कडियों में पढें वर्तमान परिवेश

आलेख एवं प्रस्तुतिसंजीव तिवारी

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 3

पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1 2


जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि लोक गीत संस्कृति के अभिन्नि अंग हैं और हमारे इन्हीं गीतों में हमारी संस्कृति की स्पष्ट झलक नजर आती है । छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा कालांतर से लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर पारंपरिक लोकगीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी ।

छत्तीसगढ के लोकगीतों में अन्य आदिवासी क्षेत्रों की तरह सर्वप्रमुख गाथा-महाकाव्य का अहम स्थान है जिसमें लोरिक चंदा, ढोला मारू, गोपीचंद, सरवन, भरथरी, आल्हा उदल, गुजरी गहिरिन, फुलबासन, बीरसिंग के कहिनी, कंवला रानी, अहिमन रानी, जय गंगा, पंडवानी आदि प्रमुख हैं । इसमें से हमारे पंडवानी को तीजन बाई और ऋतु वर्मा नें नई उंचाईयां प्रदान की है । नृत्य में गेडी, राउत, सुआ, करमा, चन्दैनी, पंथी, सैला, बिलमा, सुरहुल आदि में भी गीत के साथ नृत्य् प्रस्तुत किये जाते हें । इसके अतिरिक्त फाग, जस जेंवारा, भोजली, बांस गीत, ददरिया जैसे गीत यहां गुंजायमान होते हैं ।

संस्कृति में जिस तरह से लोकगीतों का महत्व है उसी तरह से लोक कला का भी अहम स्थान है इस संबंध में लोक कलामर्मज्ञ राम हृदय तिवारी हमारे लोककला पर कहते हैं ‘यह एक सच्चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्हों ने हमें किया है । करमा, ददरिया और सुआ की स्वर लहरियॉं, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएँ सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं । यहां के निवासियों में सहज उदार, करूणामय और सहनशील मनोवृत्ति, संवेदना के स्तर पर कलारूपों से बहुत गहरे जुडे रहने का परिणाम है । छत्तीसगढ का जन जीवन अपने पारंपरिक कलारूपों के बीच ही सांस ले सकता है । समूचा अंचल एक ऐसा कलागत – लयात्मक – संसार है, जहां जन्म से लेकर मरण तक – जीवन की सारी हल-चलें, लय और ताल के धागे से गूंथी हुई हैं । कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्र्वर लोकमंचीय कला सृष्टि का जन्म हुआ है ।‘


लोकमंचीय, गायन, वादन कला के अतिरिक्त छत्तीसगढ में पारंपरिक चित्रकला, काष्टाकला, मूर्तिकला नें विकास के सोपान तय किये हैं किन्तु जिस प्रकार से हमारे लोकमंचीयकला नें विकास किया है वैसा विकास अन्य दूसरे कलाओं का नहीं हुआ है हमारे प्रदेश में विश्व में ख्यात संगीत व कला विश्वाविद्यालय है जिसने यहां के अनगढ प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।


हमारे समृद्ध लोक नाट्य के वर्तमान विकसित परिवेश पर डॉ. महावीर अग्रवाल कहते हैं ‘..... आज परिस्थितियां बदल गई हैं । आधुनिक छत्तीसगढी लोकनाट्य का अभिप्राय विसंगतियों या कुरीतियों को उजागर करना तो है ही परन्तु इसके साथ ही साथ उनका समाधान प्रस्तुंत करने का प्रयास भी किया जाता है । समस्याऍं अब बहुत व्यापक हो गईं । गरीबी अत्याचार या धार्मिक आडम्बरों से आगे बढकर कलाकार और निर्देशक अब अशिक्षा नारी उत्थान वृक्षारोपण, सामाजिक समरसता तथा कृषि एवं औद्योगिक प्रगति से जुडने की आवश्यकता महसुस करने लगा है । वह समाज को संगठन और सहकारिता का महत्व समझाना चाहता है । लोक कथाओं को आधार बनाकर समकालीन राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपताओं को सबके सामने रखना चाहता है । इस प्रकार छत्तीआगढ का नाट्य कर्मी उस व्याप्त कैनवास को ध्यान में रखने लगा है जिस पर समाज के सारे चित्र अपनी शंकाओं और समाधानों के साथ उभरकर सामने आते हैं ।‘


छत्तीसगढी साहित्य और छत्तीसगढ के साहित्यकारों का भी एक समृद्ध इतिहास रहा है । छत्तीसगढ के साहित्तिक इतिहास में गाथा साहित्यत का सृजन आरंभिक कालों में नजर आता है उसके बाद के साहित्य में यहां छायावाद का जन्म पं.मुकुटधर पाण्डेय के कुकरी कथा से होता है वहीं लघुकथा टोकरी भर मुट्ठी के प्रणेता पदुमलाल पुन्नामलाल बख्शी जी हिन्दी साहित्य को पहली बार लघुकथा से परिचित कराते हैं । छत्तीसगढ के साहित्यकारों के संबंध में लिखते हुए प्रो. अश्विनी केशरवानी कहते हैं ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणास्रोत और विद्वजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। ‘


हिन्दी के साथ ही यहां संस्कृत साहित्य भी समृद्ध रहा है, संस्कृत के आदि कवियों में श्रीपुर के विश्व विख्यात परंपरा के कविराज ईशान, कविकुलगुरू भास्ककर भट्ट और श्रीकृष्णु दंडी तदनंतर कोसलानंद रचईता गंगाधर मिश्र, रामायण सार संग्रह के तेजनाथ शास्त्री , गीतमाधव के रेवाराम बाबू, गुरूघांसीदास चरित महाकाव्यर के डॉ. हीरालाल शुक्लत का नाम प्रमुख हैं ।

छत्तीसगढ के आदि साहित्यवकारों पर पंडित शुकलाल पांडेय अपने बहुचर्चित कृति छत्तीसगढ़ गौरव में लिखते हैं जिसमें उस काल के लगभग सभी साहित्यकारों के नामों का उल्लेख है :-

बंधुवर रामदयालु, स्वभाषा गौरव केतन। ठाकुर छेदीलाल विपुल विद्यादि निकेतन।
द्विजवर सुन्दरलाल मातृभाषा तम पूषण। बाबु प्यारेलाल देश छत्तीसगढ़ भूषण।
लक्ष्मण, गोविंद, रघुनाथ युग महाराष्ट्र नर कुल तिलक। नृप चतुर चक्रधर लख जिन्हें हिन्दी उठती है किलक॥
जगन्नाथ है भानु, चन्द्र बल्देव यशोधर। प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक। परमकृती शिवदास आशु कवि बुधवर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर। श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता कान्त वर॥

इन पदो में तद्समय के सभी वरिष्ठ साहित्यकारों के नामों का उल्लेख है । इन आदि साहित्यकारों के बाद की पीढी नें भी साहित्य सृजन में उल्लेखनीय योगदान दिया है ‘छत्तीसगढ : रचना का भूगोल, इतिहास और राजनीति’ में चिंतक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी जी नें विस्तार से इस भू भाग से जुडे रचनाधर्मी साहित्यकारों व साहित्य, का विश्लेषण किया है जो यहां के भौगोलिक साहित्य का एतिहासिक दस्तावेज है ।

क्रमश: आगे की कडियों में पढें लोक कला साहित्य, भाषा व वर्तमान परिवेश

आलेख एवं प्रस्तुतिसंजीव तिवारी

छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 2 - छत्तीसगढी संस्कृति

पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1


छत्तीसगढ का गौरव इतिहास वैदिक काल से समृद्ध रहा है, हमारे पुरातात्विक धरोहर इसके साक्षी हैं । हमारे वैदिक साहित्यी में भी छत्तीसगढ नें अपने वैभव के कारण स्थान पाया है । स्वतंत्रता आन्दोलन एवं समाज सुधार के लिए वैचारिक क्रांति लाने में हमारे पितृ पुरूषों नें जो कार्य किये हैं उन्हीं के कारण हम सदियों से अपने स्वाभिमान को जीवंत रख पाये हैं । हमारे महापुरूषों के नाम एवं उनके योगदान को हम आज भी कृतज्ञता से याद करते हैं । छत्तीसगढ के पुरातत्व, इतिहास व साहित्य के संबंध में ढेरों तथ्यपरक व शोध लेख प्रस्तु करने वाले प्रो. अश्विनी केशरवानी जी अपने एक लेख में लिखते हैं ’छत्तीसगढ़ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है। एक ओर जहां छत्तीसगढ़ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और भौतिक संपदाओं को अपने गर्भ में समेटकर अग्रणी है, वहीं दूसरी ओर संत-महात्माओं की या तो जन्म स्थली है, तपस्थली या फिर कर्मस्थली। ये किताबी ज्ञान के बुद्धि विलासी न होकर तत्व दर्शन के माध्यम से निरक्षरों के मन मस्तिष्क में छाने में ज्यादा सफल हुये हैं।‘

छत्तीसगढ में वैचारिक क्रांति लाने में गुरू धासीदास के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । इनके अतिरिक्त कबीर विचारधारा नें भी संत धर्मदास के द्वारा इस धरती पर स्थान पाया है, यह धरती स्वामी विवेकानंद जैसे युगप्रवर्तक के मानस में भी अलौकिक अनुभूति को जन्मे देकर गौरव से हुलसाती है और भारतीय संस्कृति व वैचारिक विरासत को संपूर्ण विश्व में बगराने के लिए स्वामी वल्लभाचार्य, स्वामी आत्मानंद और महर्षि महेश योगी जैसे मनिषियों को जन्म देकर फूली नहीं समाती है ।

इस धरती के महान सपूत स्वामी पं.सुन्दरलाल शर्मा, पं. रविशंकर शुक्ल, स्वामी आत्मानंद, माधवराव सप्रे, पदुम लाल पन्ना लाल बख्शी, लोचन प्रसाद पाण्डेम, मुकुटधर पाण्डेव, ठाकुर जगमोहन सिंह, बैरिस्टर छेदीलाल, डॉ.नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ.खूबचंद बघेल, ई. राधवेन्द्र राय, बलदेव प्रसाद मिश्र, विश्वनाथ यादव तामस्कार, वामन बलीराव लाखे, से लेकर नारायण लाल परमार लतीफ, घोघी, विनोद कुमार शुक्ल व चंदूलाल चंद्राकर जैसे अनेक विज्ञ जनों नें हमारी अस्मिता को सवांरने का कार्य किया है । नामों की यह सूची काफी लम्बी है जिसे वर्तमान युवा पीढी के पटल में शनै: शनै: हमें लेख आदि के माध्याम से स्थापित करना है, जिन्हें इनका भान व ज्ञान है उन्हें इस संबंध में ज्यादा कुछ कहने की आवश्यदकता भी नहीं है, उनके हृदय में अपने महापुरूषों के प्रति भरपूर सम्मांन है ।

छत्तींसगढी संस्कृति को वैदिक काल से उत्कृष्ट संस्कृति के रूप में मान्यता प्राप्त है जहां लोकगीतों की अजश्र रसधारा है, परम्पमराओं की महकती बगिया है और लोकसाहित्यक का विपुल भंडार है, उत्कृष्ट से युत छत्तीसगढ की संस्कृति पर विचार करने के पूर्व आईये हम संस्कृति क्या है इस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं - संस्कृति को स्पष्ट करते हुए डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं – ‘ संस्कृति शव्द की व्युत्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग, ‘कृ’ धातु ‘क्तिन्’ प्रत्यय से हुई है, जिसका अर्थ है – संस्करण, परिष्करण, परिमार्जन । शुद्ध वैदिक शव्दावली में इसका समानार्थी ‘कृष्टि’ शव्द है, जिसका अर्थ है कृषि । यह अंग्रेजी के ‘कल्चर’ से मिलता जुलता है, क्योंकि यह लैटिन शव्द ‘कुल्तुकस’ से बना है, जिसका अर्थ भी भूमि जोतना या कृषि करना है । वैसे ‘कल्चर’ इस समय ‘कृषि के अर्थ में भी प्रयुक्त है । वस्तुत: हम श्रेष्ठ विचारों एवं कर्मों को लोक की भूमि में बोकर नई पीढी के लिये उन्नत जीवन मूल्यों की फसल तैयार करते हैं – संस्कृति के रूप में । पहले संस्कृति अरण्यक थी, वन्य थी, ग्राम्य थी, कृषि से जुडी थी । वह नागर तो बाद में बनी । इस तरह मूल शव्द अपना अर्थ खो बैठा और अब नृत्य, संगीत, साहित्य और कला से जुडी हुई संस्कृति शेष रह गई । पहले पूरा जीवन संस्कृति था, उसी तरह जिस तरह आज भी ‘लोक’ में पूरा जीवन संस्कृति है ।‘

छत्तीसगढ की आदिम जन जाति आदिवासी है और यहीं सच्चे अर्थों में छत्तीसगढ ‘लोक’ के निवासी हैं इस कारण छत्तीसगढ की संस्कृति ही आदिवासी संस्कृति है इसे अलग रूप में प्रस्तुत करना छत्तीसगढ को अपने जडो से विलग करना होगा । संस्कृति व परम्परा का विकास किसी जनजाति के एक निश्चित क्षेत्र में लम्बे समय तक निवास करने के फलस्वंरूप धीरे धीरे रूढियों के रूप में होता है और यहां लम्बे समय तक वैदिक काल से अब तक आदिवासी ही मूल छत्तीसगढिया हैं जो लगभग 42 जनजातीय प्रजातियों के रूप में उपस्थित हैं । हमारी परंपराएं आटविक, वैदिक, वेदविरोधी, वेदान्तर फिर आदिवासी के रूप में विकसित हुई है और इन्हीं परम्पराओं से जाति व अन्य, संस्कारों की उत्पात्ति हुई है । इसके फलस्वरूप ही छत्तीसगढ के जनजातीय स्वपरूप का विकास हुआ, आज जो संस्कृ‍ति हम इस प्रदेश में देख रहे हैं उसे समयानुसार विभिन्न जातियों के छत्तीसगढ में प्रवास के प्रभाव को डॉ. हनुमंत नायडू उत्तर और दक्षिण से आई हुई एवं स्थानीय जातियों का एक मिला जुला रूप मानते हैं ।


छत्तीसगढ की संस्कृति के संबंध में आगे डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं - ’ छत्तीसगढ का सांस्कृतिक परिदृश्य अत्यंत समृद्ध तथा विविधतामय है । एक तरफ छत्तीसगढी संस्कृति का सर्वसमावेशी समागम है तो दूसरी तरफ जनजातियों की आदिम संस्कृति का विशाल संसार फैला हुआ है । एक तरफ छत्ती्सगढी की समृद्ध वाचिक परम्परा है, वहीं दूसरी ओर हलबी, भतरी, खडिया, तूती, मुंडा, बिरहोड, पर्जी, दोर्ली, दाडामी माडिया, मुरिया, अबुझमाडिया आदि आदिवासी बोलियों की प्राणवंत धडकन है । इस प्रदेश को अन्य छ: प्रदेशों की संस्कृतियां प्रभावित करती हैं, इसीलिए छत्तींसगढ की संस्कृति के रंग इन्द्रधनुषी हैं ।‘ सांस्कृतिक मेल मिलाप एवं हमारी धार्मिक व वैचारिक यात्रा का भी उल्लेख हमारे लोक गीतों में मिलता है जिसमें उडिया संस्कृति हमारे आदिवासियों की परंपराओं में कहीं आंशिक तो कहीं पूर्ण रूप से घुली मिली नजर आती है । धार्मिक रिति रिवाज और देवी देवताओं की उपासना पद्धतियों में भी इसका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । गुजरी गहिरिन में ’तीन बेर तिरबेनी देखेंव,चउदा बेर जगनाथ ।’ का उल्लेख हमें यह बतलाता है कि हमारी धार्मिक व सांस्कृतिक यात्राओं से सांस्कृतिक मिलन समयानुसार होते रहा है और हमारी संस्कृंति समृद्ध होते रही है ।


हमारी संस्कृति को डॉ. पालेश्वेर शर्मा ‘छत्तीसगढ के तीज त्यौरहार और रीति रिवाज’ में संस्कृति को ग्रामीण संस्कृति कहते हुए कहते हैं - ’गांव की आत्मा उसकी संस्कृति एक ऐसी शकुन्तकला है, जो ऋषि कन्या है फिर भी शापित है, किसी की परिणीता और प्रेमिका है फिर भी उपेक्षित है । उसका पथ जीवन है, मरण नहीं । उसमें विश्वास और श्रद्धा है, मृत्यु की पराजय और क्षुद्रता नहीं ।‘ आगे वे स्वीकारते हैं कि ‘छत्तीसगढ की ग्रामीण संस्कृति पर परम्पारा का, संस्कार का बोझ अधिक है ।‘ यानी यह एक सतत विकास का प्रतिफल है । हमारी परंपरायें सदियों से वाचिक रूप से पीढी दर पीढी चली आ रही है और हमारे आदि पुरूषों नें इन परम्पराओं को युगो युगों तक जीवंत रखने का सहज व सुन्दर तरीका प्रयोग में लाया है वह है लोक गीत ।' '...... लोक गीतों में संस्कृति उसी प्रकार झांकती है, जिस प्रकार अवगुंठनवती वधु झीने कौशेय में झिलमिलाती हैं । संस्कृति वह दीपशिखा है, जो लोक गीत के अंचल तले जगर-मगर करती है ।‘


छत्तीसगढ की संस्कृति में धार्मिक व सांप्रदायिक परंपराओं का प्रभाव भी समयानुसार पडा है । छत्तीसगढ में धार्मिक वैचारिक ज्ञान का आलोक जिन्होंनें फैलाया उनमें भक्तिमार्गी संप्रदाय के वल्लाभाचार्य जी, साबरतंत्र के विद्वान व नाथ संप्रदाय के मछंदरनाथ जी, रामानंदी सम्प्रदाय के बैरागी, कबीर संप्रदाय के धर्मदास जी, समनामी संप्रदाय के गुरू घांसीदास जी थे । इनमें गुरू घांसीदास व कबीर की ज्ञान व भक्ति की परंपरा आज भी पल्ल्वित और पुष्पित है ।



छत्तीसगढ के जन जातियों में अगरिया, असुर, बैगा, भैना, भतरा, भुंजिया, बिंझवार, बिरहोड, बिजरिया, धनवार, धुरवा, गदबा, हलबा, कमार, कंवर, कोल, कोर्कू, कोरवा, मंझवार, मुंडा, ओरांव, परधान, पारधी, सौंता और गोंड यहां की पारंपरिक जनजातियां हैं ।


सहज सरल स्वभाव के कारण हमारी संस्कृति का प्रचार प्रसार ज्यादा नहीं हो पाया, गांवों के नागर स्वरूप में परिर्वतन के दौर में कुछ प्रेमियों नें हमारी संस्कृति को जीवंत रखने व प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से उल्लेनखनीय कार्य भी किया है । प्रारंभिक काल में इस कार्य में आकाशवाणी व दूरदर्शन के योगदान को सदैव याद किया जायेगा ।

क्रमश: आगे की कडियों में पढें - लोक गीत, लोक कला साहित्य, भाषा व वर्तमान परिवेश विचार

आलेख एवं प्रस्ततिसंजीव तिवारी


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छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1

भौगोलिक दृष्टि से मैदानी एवं पठारी व कुछ हिस्‍सों में सतपुडा व मैकल श्रेणियों के पहाडों में फैला छत्‍तीसगढ भारत के हृदय स्‍थल पर स्थित प्राकृतिक रूप से सुरम्‍य प्रदेश है, यहां की प्राकृतिक संरचना से मुग्‍ध होकर अनेक साहित्‍यकारों नें इसकी महिमा को शव्‍द दिया है । सौंदर्यबोध एवं धरती की कृतज्ञता में छत्‍तीसगढ महतारी की महिमा गीतों एवं आलेखों को हम अपने दिलों में भारत गणराज्‍य की संपूर्णता के साथ बसाये हुए हैं, यही हमारे गौरव की निशानियां हैं और हमें अपने स्‍वाभिमान से जीने हेतु प्रेरित भी करती है ।


वसुधैव कुटुम्‍बकम व सबै भूमि गोपाल की के सर्वोच्‍च आदर्श से परिपूर्ण भारत देश के वासी होने के बावजूद कभी कभी हमें लगता है कि हम छत्‍तीसगढ - छत्‍तीसगढ का ‘हरबोलवा’ बोल बोलते हैं, इसकी महिमा गान बखान चारण की भांति नित करते हैं । इससे मेरे देश की संपूर्णता के अतिरिक्‍त अपना एक पृथक अस्तित्‍व के प्रदर्शन का स्‍वार्थ भी झलकता है । हमें अपने क्षेत्रीय अतीत पर गर्व होना ही चाहिए किन्‍तु बार बार उसे रटने से अन्‍य प्रदेश वाले ऐसे में हमारी वसुधैव कुटुम्‍बकम के सार्वभैमिक भाव पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाते हैं । साहित्‍य इतिहास में तो हमने देखा ही है कि इस भूगोल से परे जाकर हमारे साहित्‍यकारों नें सार्वभौम रचनाधर्मिता का परिचय दिया है और उनकी कृतियों से संपूर्ण देश का साहित्‍य संसार समृद्ध हुआ है ।


अखंडता एवं क्षेत्रीयतावाद के इस दोराहे की स्थिति को अजीत जोगी जी स्‍पष्‍ट करते हैं - ‘हम जानते हैं कि भाषा, संस्‍कृति और आर्थिक विकास आधारित क्षेत्रीयतावाद, अराजक स्थिति उत्‍पन्‍न कर देगी, किन्‍तु हम असंतोष के इन स्‍वरों के अवदमन के पक्ष में नहीं हैं । हम इसे मुखरित होने देना चाहते हैं, इनके निहितार्थ को समझकर ........... क्‍योंकि यही वह एकमात्र तरीका है, जिससे संकीर्णतावाद व्‍यापकता में विलुप्‍त हो सकता है ।‘ इन्‍हीं शव्‍दों के कारण लेखक अपने क्षेत्रीय लेखन से आत्‍ममुग्‍ध हो अपनी दुनिया में खोता चला जाता है ।


हमारी इसी क्षेत्रीयतावाद एवं संकीर्णतावाद के भूगोलीय चिंतन नें हमारे मन में अपनी अस्मिता को जगाया है । बरसों से दबे कुचलों के रूप में जीते हुए अभी तो हमने मुह भर सांस लिया है । इन सबके बावजूद संपूर्ण देश की संपूर्णता में ही हमारी क्षेत्रीयता का अस्तित्‍व है, जिस प्रकार शरीर की प्रतिपादकता संपूर्ण शरीर के साथ ही अहम है । इस विचार को डॉ. पालेश्‍वर शर्मा जी इस प्रकार पुष्‍ट करते हैं - ’ छत्‍तीसगढ का स्‍मरण करते हुए एक ऐसी अन्‍नपूर्णा अंबा की प्रतिमा नयनों के सम्‍मुख छविमान हो उठती है, जिसके उदार हृदय पर मोती नीलम की माला पडी है, कटि प्रदेश में रजत मेखला रेवा तथा चरणों तले महानदी का जल उसे छू छू कर तंरंगायित हो रहा है । मॉं के एक हाथ में धान की स्‍वर्णिम बालियां । हां वे बालियां भारत भू की सम्‍पदा हैं जिनका शस्‍य श्‍यामल रूप छत्‍तीसगढ के खेतों में दिखाई देता हैं । उसकी धानी आंचल सर्वथा हिरतिमा – लालिमा लिए वासंती वायु में जब आंदोलित होता हैं तो उसके बेटे उसी प्रकार चहकते हैं जिस प्रकार खग शावक अपने नीड में अपनी मॉं की चंचु में चारा देखकर चुरूलू – चूरूलू चहचहा उठते हैं ।‘


छत्‍तीसगढ के भूगोलीय अस्मिता पर लिखते हुए डॉ.हनुमंत नायडू के एक शोध ग्रंथ के उपसंहार में लिखे पंक्ति पर बरबस ध्‍यान जाता है और इस पर कुछ भी लिखना उन पंक्तियों के सामने फीका पड जाता हैं, डॉ.हनुमंत नायडू स्‍वयं स्‍वीकारते हैं कि वे छत्‍तीसगढी भाषी नहीं हैं किन्‍तु सन 1985 के लगभग पीएचडी के लिए वे इसी भाषा को चुनते हैं । हमें इनसे एवं इनके जैसे हजारों उन व्‍यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिए जो छततीसगढ भाषी नहीं हैं फिर भी इस माटी का कर्ज चुकाते हुए छत्‍तीसगढ के लिए काम किया है, ऐसा ही एक नाम है डॉ. चित्‍तरंजन कर जिनका नाम लेते हुए सिर आदर से झुक जाता है क्‍योंकि सहीं मायने में ऐसे प्रेरक विभूतियों के उत्‍कृष्‍ट प्रयासों नें हमारे स्‍वाभिमान को जगाया है


इस प्रदेश के जीवन में प्रेम का स्‍थान अर्थ और धर्म से उंचा है । पौराणिक काल से लेकर आधुनिक युग तक छत्‍तीसगढ के द्वार हर आगंतुक के लिए सदैव खुले रहे हैं । प्राचीन काल में जहां दण्‍डकारण्‍य नें वनवास काल में श्रीराम और पाण्‍डवों को आश्रय दिया था तो वर्तमान काल में स्‍वतंत्रता के पश्‍चात बंगाल से आये शरणार्थियों को दण्‍डकारण्‍य योजना के अंतर्गत आश्रय दिया है परन्‍तु छत्‍तीसगढ के इस प्रेम को उसकी निर्बलता समझने वालों को इतना ही स्‍मरण कर लेना यथेष्‍ठ होगा कि कौरवों को पराजित करने वाली पाण्‍डवों की विजयवाहिनी को इसी प्रदेश में बब्रुवाहन एवं ताम्रध्‍वज के रूप में दो दो बार चुनौती का सामना करना पडा था ।


छत्‍तीसगढिया सहजता एवं प्रेम पर आगे वे कहते हैं -
भारतीय आर्य जीवन में प्रेम और दया जैसे जिन शाश्‍वत जीवन मूल्‍यों को आज भारतीयों नें विष्‍मृत कर दिया है वे आज भी यहां जीवित हैं । जाति, धर्म और भाषा आदि की लपटों से झुलसते हुए भारतीय जीवन को यह प्रदेश आज भी प्रेम और दया का शीतल-आलोक जल दे सकता है । आज भारत ही नहीं समस्‍त विश्‍व की सबसे बडी आवश्‍यकता प्रेम और सहिष्‍णुता की है जिसके बिना शांति मृगजल और शांति के सारे प्रयत्‍न बालू की दीवार की भांति हैं । प्रेम और सहिष्‍णुता का मुखरतम स्‍वर छत्‍तीसगढी लोक-गीतों का अपना स्‍वर है जो भारतीय जीवन से इन तत्‍वों के बुझते हुए स्‍वरों को नई शक्ति प्रदान कर सकता है ।

क्रमश
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आलेख एवं प्रस्ततिसंजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...