खाय बर खरी बताए बर बरी

छत्तीसगढ़ी के इस मुहावरे का अर्थ है रहीसी का ढ़ोंग करना. इस मुहावरे में प्रयुक्त 'खरी' और 'बरी' दोनो खाद्य पदार्थ हैं, आईये देखें :

संस्कृत शब्द क्षार व हिन्दी खारा से छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' बना, इसका सपाट अर्थ हुआ नमकीन, खारा. क्षार के तीव्र व तीक्ष्ण प्रभावकारी गुणों के कारण इस छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' का प्रयोग जलन के भाव के रूप में होने लगा, तेल खरा गे : तलने के लिए कड़ाही में डले तेल के ज्यादा गरम होने या उसमें तले जा रहे खाद्य के ज्यादा तलाने के भाव को खराना कहते हैं. संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयुक्त इस शब्द के प्रयोग के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रतिध्वनित होते हैं जिसमें नमकीन, तीव्र प्रभावकारी, तीक्ष्ण, जला हुआ या ज्यादा पकाया हुआ, हिंसक, निर्दय, सख्त, अनुदार, स्पष्टभाषी, कठोर स्वभाव वाला, कटु भाषी. इससे संबंधित कुछ मुहावरे देखें 'खर खाके नइ उठना : विरोध ना कर पाना', ' खर नइ खाना : सह नहीं सकना', 'खर होना : तेज तर्रार होना', 'खरी चबाना : कसम देना'.

'खरी' तिलहन उपत्पादों के पिराई कर तेल निकलने के बाद बचे कड़े अवशेष को खली कहते हैं, यह पशुओं को खिलाया जाता है. सार तेल को और खली को गौड़ मानने के भाव नें ही इस मुहावरे में 'खरी' के उपयोग को सहज किया होगा. गांवों में तिल के खली को गुड़ के साथ खाते भी हैं.

संस्कृत शब्द 'वटी' व हिन्दी 'बड़ी' से बने 'बरी' का अर्थ खाद्य पदार्थ 'बड़ी' से है. छत्तीसगढ़ में रात को उड़द दाल को भिगोया जाता है, सुबह उसे सील-लोढ़े से पीसा जाता है फिर कुम्हड़ा, रखिया आदि फल सब्जियों को कद्दूकस कर दाल के लुग्दी जिसे पीठी कहा जाता है, में मिलाया जाता है और उसे टिकिया बनाने लायक सुखाया जाता है. इसे सब्जी के रूप में बना कर परोसा जाता है. इसे बनाने में कुशलता व श्रम के साथ ही दाल आदि के लिए पैसे खर्च होते हैं इस लिए शायद इसे समृद्धि सूचक माना गया है.

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...