- संजीव तिवारी
पंडवानी की शैली : छत्तीसगढिया संगी जानें
- संजीव तिवारी
सिर्फ एक गांव में गाई जाती है छत्तीसगढ़ी में महामाई की आरती ??
खम्हरिया में गाई जाने वाली आरती में यद्धपि बीच के बोल आरती से नहीं लगते क्योंकि इसमें देवी के गुणगान का बखान नहीं दिखता और ना ही प्रार्थना के भाव प्रत्यक्षत: नजर आते सिवा बार बार के टेक ‘महामाई ले लो आरती हो माय’ को ठोड़ दें तो. किन्तु पारंपरिकता एवं देसज भाव इस आरती के महत्व को प्रतिपादित करती है. इस आरती में निहित शब्दों और उनके अर्थों में तारतम्यता भी नहीं नजर आती. इस गांव में गाई जाने वाली आरती में पांच पद हैं जो सभी एक दूसरे से अलग अलग प्रतीत होते हैं. खम्हरिया गांव में गाई जाने वाली छत्तीसगढ़ी महामाई की आरती इस प्रकार है -
भारतीय शास्त्रीय संगीत में छत्तीसगढ़ी बंदिशें
कृष्णा पाटिल : राग गुजरी तोड़ी - सरसती दाई तोर पॉंव परत हौँ
कृष्णा पाटिल : राग यमन - जय जय छत्तीसगढ़ दाई
कृष्णा पाटिल : राग.... - मन माते सहीँ लागत हे फागुन आगे रे
कृष्णा पाटिल : राग.... - मोर छत्तीसगढ़ महतारी के पँइयॉं लागँव
सुयोग पाठक : चल छंइयॉं छंइयॉं
मुकुन्द कौशल : गीत>
कार्यक्रम का चित्र प्रदीप वर्मा जी के कैमरे से लिया गया जिसका इंतजार है.
संजीव तिवारी
फसलों, पशुओं और दीपों के साथ उत्साह का पर्व दीपावली
श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी. चाहे उनका जन शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के विरूद्ध. जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है.
कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण पशुओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है. यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है. इसी धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं. दीप और धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह जब इकट्ठा किया जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके उपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद धान की नपाई होती है. यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप प्रतीक है, राह दिखाता है.
प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन की आवश्यकता पड़ती है. बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है. पशुओं के कोठे लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है. कोठा सहित पूरे डीह डोंगर यानी गांव के हर जगह दीपक जलाया जाता है.
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह ‘दियारी’ खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है. परंपरानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहां जाकर गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता हैं, पशुपालकों के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है. दूसरे दिन बैलों को लाल टीका लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है. बाद में घर की महिलायें चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है. फलस, अन्न और पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त एश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी है. इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में लाला जगदलपुरी की एक हल्बी गीत ‘उडी गला चेडे’ प्रासंगिक है – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्ता धान के पायते रला/केडे सुन्दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘
लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्दर गौरैया आई, और उसने दोस्ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्ट भाग से गौरैया को क्या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में।
उत्सव के उत्साह को निरंतर रखने की जन सोंच भी गजब की है वह देवारी के बाद होरी के इंतजार में आनंदित होता है. दूसरे सेला के लिए उड चलता है. यादवों के बीच प्रचलित एक लोक दोहा देखें आवत देवारी लहुर लईया, जावत देवारी बड़ दूर/ जा जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावे धूर. यानी दिवाली के त्यौहार का महत्व बहुत है, उसके लिए हम उतावले रहते हैं और यह कब आके चली जाती है पता ही नहीं चलता, हम साल भर इसका इंतजार करते हैं. दीपावली अब तुम विदा लो क्योंकि अब हमारी स्मृत्तियों में फागुन को धूल उडाने दो. फिर अगले साल आयेगी दीपावली और हम अपनी प्राणदायी फसलों, पशुओं और दीपों की कल्पना कागजों में करेंगें.
संजीव तिवारी
चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा
श्री कृष्ण मुरारी के जयकारे के साथ उसने अपना गान आरंभ कर दिया. वही कृष्ण जन्म, देवकी, वासुदेव, मथुरा, कंस किन्तु छत्तीसगढ़ी में सुने इस गाथा में जो लय बद्धता रहती है ऐसी अनुभूति नहीं हो रही थी. फिर भी खुशी हुई कि इस परम्परा को कोई तो है जिसने जीवित रखा है क्योंकि अब गांवों में भी जय गंगान गाने वाले नहीं आते.
किताबों के अनुसार एवं इनकी परम्पराओं को देखते हुए ये चारण व भाट हैं. छत्तीसगढ़ में इन्हें बसदेवा या भटरी या राव भाट कहा जाता है, इनमें से कुछ लोग अपने आप को ब्रम्ह भट्ट कहते हैं एवं कविवर चंदबरदाई को अपना पूर्वज मानते हैं. चारण परम्परा के संबंध में ब्रह्मपुराण का प्रसंग तो स्पष्ट करता है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंश की स्तुति करने लगे (ब्रह्म पु. भूमिखंड, 28.88)। यहीं से चारण सब जगह फैले। महाभारत के बाद भारत में कई स्थानों पर चारण वंश नष्ट हो गया। केवल राजस्थान, गुजरात, कच्छ तथा मालवे में बच रहे। इस प्रकार महाराज पृथु ने देवता चारणों को "मानुष चारण" बना दिया। इसी प्रकार भाटों के संबंध में जनश्रुतियों में भाटों के संबंध में कई प्रचलित बातें कही जाती हैं। इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और विधवा ब्राह्मणी माता से हुई बताई जाती है। ..... वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था। ..... कहते हैं, चारण तो कच्छ में ही हैं पर भाट सर्वत्र पाए जाते हैं .... चारण तो केवल राजपूतों के ही दानपात्र होते हैं, पर भाट सब जातियों से दान लेते हैं। ..... कविराज राव रघुबरप्रसाद द्वारा लिखित और प्रकाशित भट्टाख्यानम् नामक छोटी सी पुस्तक में कवि ने खींचतानी से प्रमाण जुटाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भाट शब्द ब्रह्मभट्ट से बना है, उसे ब्रह्मराव भी कहा गया है। भट्ट जाति की उत्पत्ति का प्रतीक पुरुष ब्रह्मराव था जिसे ब्रह्मा ने यज्ञकुंड से उत्पन्न किया था। भाट स्वयं को कभी सूत, मागध और वंदीजन कहकर अपने को सरस्वतीपुत्र कहने लगते हैं और कभी अग्निकुंड से उद्भूत बताते हैं। (विकिपीडिया)
छत्तीसगढ़ के राव भाटों के संबंध में उपरोक्त पंक्तियों का जोड़ तोड़ फिट ही नहीं खाता. छत्तीसगढ़ से इतर राव भाट वंशावली संकलक व वंशावली गायक के रूप में स्थापित हैं और वे इसके एवज में दान प्राप्त करते रहे हैं. छत्तीसगढ़ के बसदेवा या राव भाट वंशावली गायन नहीं करते थे वरण श्री कृष्ण का ही जयगान करते थे. इनके सिर में भगवान जगन्नाथ मंदिर पुरी की प्रतिकृति लगी होती है जो इन्हें कृष्ण भक्त सिद्ध करता है. वैसे छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परम्पराओं में पुरी के जगन्नाथ मंदिर का अहम स्थान रहा है इस कारण हो सकता है कि इन्होंनें भी इसे अहम आराध्य के रूप में सिर में धारण कर लिया हो. छत्तीसगढ़ में इन्हें बसदेवा कहा जाता है जो मेरी मति के अनुसार 'वासुदेव' का अपभ्रंश हो सकता है. गांवों में इसी समाज के कुछ व्यक्ति ज्योतिषी के रूप में दान प्राप्त करते देखे जाते हैं जिन्हें भड्डरी कहा जाता है. छत्तीसगढ़ में इनका सम्मान महराज के उद्बोधन से ही होता है, यानी स्थान ब्राह्मण के बराबर है. छत्तीसगढ़ के राव भाटों का मुख्य रोजगार चूंकि कृषि है इसलिये उनके द्वारा वेद शास्त्रों के अध्ययन पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया होगा और वे सिर्फ पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक रूप से भजन गायन व भिक्षा वृत्ति को अपनी उपजीविका बना लिए होंगें. छत्तीसगढ़ी की एक लोक कथा ‘देही तो कपाल का करही गोपाल’ में राव का उल्लेख आता है. जिसमें राव के द्वारा दान आश्रित होने एवं ब्राह्मण के भाग्यवादी होने का उल्लेख आता है.
गांवों में जय गंगान गाने वालों के संबंध में जो जानकारी मिलती हैं वह यह है कि यह परम्परा अब छत्तीसगढ़ में लगभग विलुप्ति के कगार पर है, अब पारंपरिक जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने वाले बसदेवा इसे छोड़ चुके हैं. समाज के उत्तरोत्तर विकास के साथ भिक्षा को वृत्ति या उपवृत्ति बनाना कतई सही नहीं है किन्तु सांस्कृतिक परम्पराओं में जय गंगान की विलुप्ति चिंता का कारण है. अब यह समुदाय जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने का कार्य छोड़ चुका है. पहले इस समुदाय के लोग धान की फसल काट मींज कर घर में लाने के बाद इनका पूरा परिवार छकड़ा गाड़ी में निकल पड़ते थे गांव गांव और अपना डेरा शाम को किसी गांव में जमा लेते थे. मिट्टी को खोदकर चूल्हा बनाया जाता था और भोजन व रात्रि विश्राम के बाद अल सुबह परिवार के पुरूष निकल पड़ते थे जय गंगान गाते हुए गांव के द्वार द्वार. मेरे गांव के आस पास के राव भाटों की बस्ती के संबंध में जो जानकारी मुझे है उसमें चौरेंगा बछेरा (तह. सिमगा, जिला रायपुर) में इनकी बहुतायत है.
पारंपरिक भाटों के गीतों में कृष्ण कथा, मोरध्वज कथा आदि भक्तिगाथा के साथ ही ‘एक ठन छेरी के दू ठन कान बड़े बिहनिया मांगें दान’ जैसे हास्य पैदा करने वाले पदों का भी प्रयोग होता था. समयानुसार अन्य पात्रों नें इसमें प्रवेश किया, प्रदेश के ख्यातिनाम कथाकार व उपन्यासकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के चर्चित उपन्यास ‘आवा’ में भी एक जय गंगान गीत का उल्लेख आया है -
जग म होवय तोरे सोर । जय गंगान ....
धन्न धन्न भारत के भाग,
अवतारे गांधी भगवान । जय गंगान .....
मेरे शहर के दरवाजे पर जय गंगान गाने वाले व्यक्ति का जब मैं परिचय लिया तो मुझे आश्चर्य हुआ. उसका और उसके परिवार का दूर दूर तक छत्तीसगढ़ से कोई संबंध नहीं था. उसकी पीढ़ी जय गंगान गाने वाले भी नहीं है वे मूलत: कृषक हैं. वह भिक्षा मांगते हुए ऐसे मराठी भाईयों के संपर्क में आया जो छत्तीसगढ़ में भिक्षा मांगने आते थे और कृष्ण भक्ति के गीत गाते थे. उनमें से किसी एक नें जय गंगान सुना फिर धीरे धीरे अपने साथियों को इसमें प्रवीण बनाया. अब वे साल में दो तीन बार छत्तीसगढ़ के शहरों में आते हैं और कुछ दिन रहकर वापस अपने गांव चले जाते हैं. मेरे घर आया व्यक्ति का नाम राजू है उसका गांव खापरी तहसील कारंजा, जिला वर्धा महाराष्ट्र है. इनके पांच सदस्यों की टोली समयांतर में दुर्ग आती हैं और उरला मंदिर में डेरा डालती हैं.
राजू के गाए जय गंगान सुने ......
संजीव तिवारी
कातिक महीना धरम के माया मोर

प्रहर के इस अंतराल के पार होने के बाद 'पंगपगांने' पर ही मैं बिस्तर छोड़ता था और कातिक के 'रवनिया' का आनंद लेते हुए नदी की ओर निकल पड़ता था। छत्तीसगढ़ के गांवों में सामाजिक व्यावहारिकता के चलते 'डउकी घठौंधा' और 'डउका घठौंधा' होता है जहॉं पुरूष और महिलायें अलग अलग स्नान करती हैं। हम इन दोनों घाटों को पीछे छोड़ते हुए दूर शिवनाथ और खारून के गहरे संगम की ओर बढ़ चलते थे इससे हमारा प्रात: भ्रमण भी हो जाता था। तब 'डउकी घठौंधा' से गुजरते हुए महिलाओं को लंहगे से या छोटी घोती से 'छाती बांध' कर नहाते देखता था। कार्तिक में बरसात के बाद आने वाली दीपावली के पूर्व गॉंव में घरों के 'ओदर' गए 'भिथिया' को 'छाबनें' एवं 'लीप-पोत-औंठिया' के घर के कपड़ों की सफाई के लिए महिलाओं को बड़ी बाल्टी या डेचकी भर कपड़ों को 'कांचते' भी देखता था।
कभी इस बिम्ब का विस्तार और चिंतन दिमाग नें नहीं किया था, पिछले दिनों छत्तीसगढ़ी गीतों के जनगीतकार मुकुन्द कौशल जी से छत्तीसगढ़ी गज़लों के संबंध में लम्बी बातचीत हुई तो उन्होंनें अपना एक गज़ल सुनाया तब लगा कि कवि नें इस बिम्ब को किस तरह से भावमय विस्तार दिया आप भी देखें -
जम्मो साध चुरोना बोरेंव, एक साध के कारन मैं
एक दिसा के उड़त परेवना, ठींया ला अमरा लेथें.
'माटी राख' डाल के 'बड़का बंगोनिया' में पानी के साथ गंदे कपड़े को आग में पकाने की क्रिया को 'चुरोना बोरना' कहा जाता है, अब गज़लकार कसी एक साध के कारण जम्मो साध का चुरोना डुबाने की बात कहता है क्योंकि गॉंव की महिला जानती है कि उसकी अनंत इच्छायें तो पूरी नहीं हो सकती कोई एक इच्छा ही पूरी हो जाए। उसने जो अपना कोई एक लक्ष्य रखा है कम से कम वही तो पूरा हो जाए (एक दिशा में उड़ते हुए कबूतर को उसका ठिकाना तो मिल जाए)।

अनदेखना हें अमली-बम्हरी नदिया के पथरा पचरी
सबके आघू मन के कच्चा लुगरा झन फरियाए कर.
कार्तिक पूर्णिमा पर किसी पत्रिका के लिए मैंनें इसे लिखा था आगे आलेखों की कड़ी थी भूमिका में पहला दो पैरा लिखा गया था। आज ड्राफ्ट में पड़े इसे देखकर इस पर चंद लाईना जोड़कर पब्लिश कर दिया। धरम के मास कार्तिक से लेकर श्री मुकुन्द कौशल जी की छत्तीसगढ़ी गज़ल तक लोक जीवन के इस जीवंतता का शहर में बैठकर सिर्फ कल्पना किया जा सकता है, हृदय में गॉंव बार-बार सोरिया रहा है फिर भी जीवन की व्यस्तता गॉंव के पुकार को अनसुना कर रही है।
नोट : छत्तीसगढ़ी के शब्दों पर माउस ले जाने से उसके हिन्दी अर्थ छोटे बक्से में वहीं दिखने लगेंगें.
वैवाहिक परम्पराओं में आनंदित मन और बैलगाड़ी की सवारी
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अक्षय तृतिया के गुड्डा-गुड्डी |
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जनगीतकार लक्ष्मण मस्तूरिहा की पुत्री शुभा का विवाह 12 मई 2011 |
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मेरे भांजें की शादी |
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डीजे के कर्कश संगीत में थिरकते युवा |
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व्यंग्यकार विनोद साव की पुत्री शैली का विवाह 07 मई 2011 |
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विनोद साव जी |
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बैलगाड़ी में कोट पहने अपनी श्रीमती जी के साथ घर की ओर जाती हमारी पारंपरिक सवारी |
सामंती व्यवस्था पर चोट का नाम है फाग
राजा बिकरमादित महराज, केंवरा नइये तोर बागन में...
छत्तीसगढ़ के फाग में इस तरह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के बाग में केवड़े का फूल नहीं होने का उल्लेख आता है। फाग के आगे की पंक्तियों में केकती केंवरा किसी गरीब किसान के बारी से लाने की बात कही जाती है। तब इस गीत के पीछे व्यंग्य उजागर होता है। फाग में गाए जाने वाले इसी तरह के अन्य गीतों को सुनने पर यह प्रतीत होता है कि, लोक जीवन जब सीधे तौर पर अपनी बात कह नहीं पाता तो वह गीतों का सहारा लेता है और अपनी भावनाओं (भड़ास) को उसमें उतारता है। वह ऐसे अवसर को तलाशता है जिसमें वह अपनो के बीच सामंती व्यवस्था पर प्रहार करके अपने आप को संतुष्ट कर ले। होली के त्यौहार में बुरा ना मानो होली है कहकर सबकुछ कह दिया जाता है तो लोक भी इस अवसर को भुनाता है और कह देता है कि, राजा विक्रमादित्य महाराज तुम चक्रवर्ती सम्राट हो, किन्तु तुम्हारी बगिया में केवड़े का फूल नहीं है, जबकि यह सामान्य सा फूल तो यहां हमारे घर-घर में है। केवड़े के फूल के माध्यम से राजा को अभावग्रस्त व दीन सिद्ध कर लोक आनंद लेता है।
‘अरे हॉं ... रे कैकई राम पठोये बन, का होही...., नइ होवय भरत के राज ... रे कैकई ...’ देखिये लोक मानस कैकई के कृत्यों का विरोध चिढ़ाने के ढ़ग से करता है, कहता है कि कैकई तुम्हारे राम को वनवास भेज देने से क्या हो जायेगा। तुम सोंच रही हो कि भरत को राजगद्दी मिल जायेगी।, ऐसा नहीं है। ऐसे ही कई फाग गीतों में हम डूबते उतराते रहे हैं जिनमें से कुछ याद है और कुछ भूल से गए हैं। प्रेम के अतिरिक्त इसी तरह के फाग छत्तीसगढ़ में गाए जाते हैं जिसमें राजा, बाह्मण, जमीनदार और धनपतियों के विरूद्ध जनता के विरोधी स्वर नजर आते हैं। नाचा गम्मत के अतिरिक्त लोकगीतों में ऐसी मुखर अभिव्यक्ति फाग में ही संभव है।
सदियों से बार बार पड़ने वाले अकाल, महामारी और लूट खसोट से त्रस्त जन की उत्सवधर्मिता उसे दुख में भी मुस्कुराने और समूह में खुशियां मनाने को उकसाती है। वह उत्सव तो मनाता है, गीत भी गाता है किन्तु आपने हृदय में छ़पे दुख को ऐसे समय में अभिव्यक्त न करके वह उसे व्यंग्य व विरोध का पुट देता है। छत्तीसगढ़ी फाग गीतों के बीच में गाए जाने वाले कबीर की साखियॉं और उलटबासियॉं कुछ ऐसा ही आभास देती है। सामंती व्यवस्था पर तगड़ा प्रहार करने वाले जनकवि कबीर छत्तीसगढ़ के फाग में बार-बार आते हैं। लोग इसे कबीर की साखी कहते हैं यानी लोक के बीच में कबीर खड़ा होता है, वह गवाही देता है सामाजिक कुरीतियों और विद्रूपों के खिलाफ। डॉ.गोरेलाल चंदेल ‘सराररा रे भागई कि सुनले मोर कबीर’ को सचेतक आवाज कहते हैं मानो गायक सावधान, सावधान की चेतावनी दिया जा रहा हो।
फाग गीतों को गाते, सुनते और उसके संबंध में विद्वानों के आलेखों को पढ़ते हुए, डॉ.गोरेलाल चंदेल की यह बात मुझे फाग गीतों के निहितार्थों में डूबने को विवश करती है-
‘... तमाम विसंगतियों एवं दुखों के बीच भी जन समाज की मूल्यों के प्रति गहरी आस्था ही फाग गीतों के पानी में इस तरह मिली हुई दिखाई देती है जिसे अलग करने के लिए विवेक दृष्टि की आवश्यकता है। जन समाज को उनकी सांस्कृतिक चेतना को संपूर्णता के साथ देखने तथा विश्लेषित करने की जरूरत है। फाग की मस्ती एवं गालियों के बीच जीवन दृष्टि की तलाश ही जन समाज की सांस्कृतिक चेतना को पहचानने का सार्थक मार्ग हो सकता है।‘
इनके इस बात को सार्थक करता ये फाग गीत देखें ‘अरे हां रे ढ़ेकुना, काहे बिराजे, खटियन में/ होले संग करव रे बिनास ....’ समाज के चूसकों को इस त्यौहार में जलाने की परंपरा को जीवंत रखने का आहृवान गीत में होता है। इसी परम्परा के निर्वाह में छत्तीसगढ़ में होली की आग में खटमल (ढ़ेकुना) और पशुओं का खून चूसने वाले कीटों (किन्नी) को जलाया जाता है ताकि उनका समूल नाश हो सके। सांकेतिक रूप से होली के आग में समाज विरोधी मूल्यों का विनाश करने का संदेश है यह।
पारम्परिक फाग गीतों का एक अन्य पहलू भी है जिसके संबंध में बहुत कम लिखा-पढ़ा गया है। होली जलने वाले स्थान पर गाए जाने वाले अश्लील फाग का भी भंडार यहां उसी प्रकार है जैसे श्लील फाग गीतों का। होली के जलते तक होले डांड में रात को तेज आवाज में यौनिक गालियां, होले को और एक दूसरे को दिया जाता है और अश्लील फाग गीत के स्वर मुखरित होते हैं। लोक के इस व्यवहार पर डॉ.गोरेलाल चंदेल जो तर्क देते हैं वे ग्राह्य लगते हैं, वे कहते हैं कि
‘लोक असत् को जलाकर सत की रक्षा ककी खुशी मनाता है तो, पौराणिक असत् पक्ष की भर्त्सना करने से भी नहीं चूकता। वह असत् के लिए अश्लील गालियों का भी प्रयोग करता है और अश्लीलता युक्त फाग गीतों का गायन भी करता है।‘
रात के बाद फाग का यह अश्लील स्वरूप बदल जाता है, लोक अपनी विरोधात्मक अभिव्यक्ति देने के बाद दूने उत्साह के साथ राधा-किसान के प्रेम गीत गाने लगता है। जैसे दिल से कोई बोझ उतर गया। मुझे ‘जब बी मेट’ फिल्म का वो दृश्य याद आता है जब नायक नायिका को उसके बेवफा प्रेमी पर अपना भड़ास उतारने को कहता है और नायिका फोन पर पूर प्रवाह के साथ अपना क्रोध उतारते हुए तेरी मां की ..... तक चली जाती है। उसके बाद वह सचमुच रिलेक्स महसूस करती है। उसी प्रकार लोक होले डांड में जमकर गाली देने (बकने) के बाद रिलेक्स महसूस करते हुए लोक चेतना को जगाने वाले एवं मादक फाग दिन के पहरों में गाता है।
डॉ. पालेश्वर शर्मा अपने किताब ‘छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार और रीतिरिवाज’ में इन पहलुओं पर बहुत सीमित दृष्टि प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे भी स्वीकरते हैं कि लोक साल भर की कुत्सा गालियों के रूप में अभिव्यक्त करता है। जिसे वे अशिष्ठ फाग कहते हैं, इसकी वाचिक परंपरा आज भी गावों में जीवंत है और इसे भी सहेजना/लिखा जाना चाहिए। यद्धपि इसे पढ़ना अच्छा नहीं लगेगा किन्तु परम्परागत गीतों के दस्तावेजीकरण करने के लिए यह आवश्यक होगा। इस संबंध में छत्तीसगढ़ी मुहावरों एवं लोकोक्तियों पर पहली पीएचडी करने वाले डॉ.मन्नू लाल यदू का ध्यान आता है जिन्होंनें छत्तीसगढ़ के श्लील व अश्लील दोनों मुहावरों एवं लोकोक्तियों का संग्रह एवं विश्लेषण किया। अशिष्ठ फाग लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इसमें ज्यादातर रतिक्रिया प्रसंगों एवं दमित इच्छाओं का लच्छेदार प्रयोग होता है। 'चलो हॉं ... गोरी ओ .. तोर बिछौना पैरा के ...' पुरूष अपनी मर्दानगी के डींगें बघारता हुआ नारी के दैहिक शोषण का गीत गाता है। वह अपने गीतों में किसबिन (नर्तकी वेश्या) व अन्य नारीयों का चयन करता है। बिना नाम लिये गांव के जमीदार, वणिक या ऐसे ही किसी मालदार आसामी के परिवार की नारी के साथ संभोग की बातें करता है। इसका कारण सोंचने व बड़े बुजुर्गों से पूछने पर वे सीधे तौर पर बातें होलिका पर टाल देते हैं कि लोग होलिका को यौनिक गाली देने के उद्देश्य से ऐसा करते हैं। किन्तु ‘आमा के डारा लहस गे रे, तोर बाम्हन पारा, बम्हनिन ला *दंव पटक के रे बाम्हन मोर सारा’ या 'बारा साल के बननिन टूरी डोंगा खोये ला जाए, डोंगा पलट गे, ** चेपट गे, ** सटा-सट जाए' जैसे गीत पूरे उत्साह के साथ जब गाए जाते हैं तब पता चलता है कि लोक अपनी भड़ास आपके सामने ही निकालता है और आप मूक बने रह जाते हैं। अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं की दुहाई देते हुए। होली है.....
संजीव तिवारी
आरंभ में फाग - . मेरे गांव की होली और फाग . का तै मोला मोहनी डार दिये गोंदा फूल: छत्तीसगढ में फाग . दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग . मन मतंगा मानय नहीं जब लगि धका न खाए
राजधानी में पारम्परिक नाचा के दीवाने
पिछले दिनों रायपुर के एक प्रेस से पत्रकार मित्र का फोन आया कि संस्कृति विभाग द्वारा राजधानी में पहले व तीसरे रविवार को मुख्यमंत्री निवास के बाजू में नाचा - गम्मत का एक घंटे का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है इस पर आपकी राय क्या है तो मैंने छूटते ही कहा था कि छत्तीसगढ़ की पारम्परिक विधा नाचा रात से आरंभ होकर सुबह पंगपंगात ले चलने वाला आयोजन है जिसमें एक-एक गम्मत एक-दो घंटे का होता है आगाज व जोक्कड़ों का हास्य प्रदर्शन जनउला गीत ही लगभग एक-डेढ़ घंटे का होता है तब कहीं जाकर सिर में लोटा परी दर्शकों के पीछे से गाना गाते प्रकट होती है 'कोने जंगल कोने झाड़ी हो ......' इसके बाद प्रहसन रूप में शिक्षाप्रद कथाओं का गम्मतिहा नाट्य मंचन होता है। ऐसे में विभाग के द्वारा इतने सीमित समय में इस आयोजन को समेटने से इसका मूल स्वरूप खो सा जायेगा। बात आई-गई हो गई।
आज राजधानी के आनलाईन समाचार पत्रों के पिछले पन्ने पलटते हुए इस कार्यक्रम का समाचार नजर आया तो रायपुर में मित्रों को फोन मिलाया और सिंहावलोकन वाले राहुल सिंह जी से इस सफल आयोजन के संबंध में विस्तृत जानकारी व फोटो मांग लाया। मित्रों व राहुल सिंह जी से प्राप्त जानकारी के अनुसार रायपुर के नागरी परिवेश में छत्तीसगढ़ की यह संस्कृति जब मंच पर उतरी तो लोग अभिभूत होकर देखते ही रह गए। साज-सज्जा से कोसो दूर होने के बावजूद यह कार्यक्रम जैसे ही शुरू हुआ, लोगों की भीड़ जुटने लगी। इसमें प्रदेश के कलाकारों द्वारा छत्तीसगढ़ की मूल सांस्कृतिक धरोहर नाचा को बेहतरीन तरीके से मंच पर प्रस्तुत किया गया।
शुरुआत लोक गायिका किरण शर्मा द्वारा गणपति वंदना तै मूसुवा में चढ़ के आजा गणपति से हुई। इसके बाद एक से बढ़कर एक लोकगीतों की प्रस्तुतियों ने दर्शकों को बांधे रखा। भरथरी, देवार, नाचा व कर्मा गीतों की प्रस्तुतियों ने लोगों को अपनी माटी की खुशबू को करीब से जानने का मौका दिया। फिर शुरू हुआ हास्य गम्मत प्रहसन का दौर। इसके मुख्य कलाकार रामलाल निर्मलकर की प्रस्तुति को देखने के लिए लोग बेताब नजर आएँ। ये उन चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने हबीब तनवीर के साथ काम किया है। गड़बड़ गपशप शीर्षक पर आधारित इस गम्मत ने जहाँ दर्शकों का मनोरंजन किया, वहीं सशक्त संदेश भी दिया। इसमें पति-पत्नी के बीच किसी तीसरे व्यक्ति की वजह से कलह मच जाती है, पर बाद में सच्चाई पता होने पर उन्हें बहुत पछतावा होता है। इसमें यही संदेश देने की कोशिश की गई, कभी भी दूसरों की बातों में आकर गलतफहमी का शिकार न होवें। इसे कलाकारों ने न केवल अभिनय के जरिए बल्कि नृत्य व संगीत के साथ प्रस्तुत किया।
दर्शकों की उपस्थिति और खासकर बच्चों की उत्साहपूर्वक सहभागिता ने मानों साबित किया कि टीवी पर ढ़र्रे वाले सतही कार्यक्रम और फूहड़ता को देखना लोगों की मजबूरी है अगर उन्हें सहज, सुलभ मनोरंजक सांस्कृतिक प्रस्तुतियां उपलब्ध कराई जाय तो इसकी दर्शक संख्या अभी भी कम नहीं. रामलाल, अछोटा, धमतरी पार्टी के साथ, मंदराजी सम्मान प्राप्त कलाकार मानदास टंडन का गायन व चिकारा वादन, सुश्री किरण शर्मा का लोकगीत गायन व नृत्य, लच्छी-दुर्योधन की जोड़ी की भी प्रस्तुतियां थीं. निरंजन महावर जी और आयुक्त संस्कृति राजीव श्रीवास्तव जी विशेष रूप से उपस्थित रहे. निसार अली ने संयोजन में सहयोग दिया.
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छत्तीसगढ़ी नाचा को मंच देने और लोगों को इससे रूबरू कराने के उद्देश्य से संस्कृति विभाग और नाचा थियेटर द्वारा हर माह के पहले और तीसरे रविवार को यह कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। अगली प्रस्तुति में नाचा के साथ छत्तीसगढ़ी संस्कृति का आनंद लेने के लिये अभी से तैयार रहें ..
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संजीव तिवारी
" बने करे राम मोला अन्धरा बनाये " यह गीत छत्तीसगढ से ट्रेन से गुजरते हुए आपने भी सुना होगा
संजीव तिवारी
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बस मे मैं कब से खडा हूँ मुझे बैठने की जगह दे दो
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गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...