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पंडवानी की शैली : छत्तीसगढिया संगी जानें

समीर शुक्ल के द्वारा पंडवानी (Pandwani) के आदि पुरुष झाडूराम देवांगन के भांजे से लिया गया साक्षात्कार, आज छत्तीसगढी भाषा की सांस्कृतिक पत्रिका "मोर भूइयाँ" मेँ प्रसारित किया गया। समीर भाई नें पंडवानी की शैली के संबंध मेँ ज्वलंत प्रश्न किया। जिसका उत्तर भी चेतन देवांगन नें बहुत ही स्पष्ट रुप से दिया। मैंने बहुत पहले अपने ब्लॉग "आरंभ" मेँ पंडवानी की कपालिक व वेदमति शैली के संबंध मेँ एवं पंडवानी के नायकों के संबंध में दो पोस्ट प्रकाशित किया था। मैंने पंडवानी पर पीएचडी करने वाले डॉ बलदेव प्रसाद निर्मलकर से, उनके गाइड डॉ विनय कुमार पाठक के सामने भी ये प्रश्न रखा था। समय समय पर कई पंडवानी कलाकारोँ, विद्वानोँ और लोक अध्येताओं से इस संबंध मेँ विमर्श किया है।

आज के प्रसारण मेँ चेतन देवांगन के द्वारा इस पर दिया गया जबाब स्वागतेय है। उन्होंने स्पष्ट किया कि, वैदिक ग्रंथों के आधार पर गाए जाने वाली पंडवानी गायन की शैली, वेदमती है। और वैदिक पात्रों की कथाओं पर लोक कल्पनाओं व लोक मिथ के आधार पर गए जाने वाली, पंडवानी की गायन शैली, कापालिक है। उसने कुछ प्रसिद्ध कथाओं का जिक्र भी किया, जिसमे वध की कथाएँ थी। जिसमे समयानुसार लोक लुभावन प्रस्तुति और लोक मिथक स्वमेव समाहित हो गए।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति पर भारत भवनीय दृष्टी नें इसे बेवजह स्थापित किया। क्योंकि तथाकथित आदि विद्वानों के द्वारा यही चस्मा उन्हें पहनाया गया। कथा के आधार वर्गीकरण को प्रदर्शन के आधार पर वर्गीकृत कर दिया, और मज़े की बात यह कि, पूरी जोर अजमाइस यह रही कि, अधूरी परिभाषा ही पंडवानी की शैली के रूप में स्थापित हो जाए।

मेरा शुरू से मानना है कि, मात्र बैठे और खडे होने से पंडवानी की शैली को परिभाषित ना किया जाए।

- संजीव तिवारी

सिर्फ एक गांव में गाई जाती है छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती ??

छत्तीसगढ़ के प्राय: हर गांव में देवी शक्ति के प्रतीक के रूप में महामाई के लिए एक स्‍थल निश्चित होता है. जहां प्रत्येक नवरात में ज्योति जलाई जाती है एवं जेंवारा बोया जाता है. सभी गांवों में नवरात्रि के समय संध्या आरती होती है. ज्यादातर गांवों में यह आरती हिन्दी की प्रचलित देवी आरती होती है या कहीं कहीं स्थानीय देवी के लिए बनाई गई आरती गाई जाती है. मेरी जानकारी के अनुसार एक गांव को छोड़ कर कहीं अन्‍य मैदानी छत्‍तीसगढ़ के गांव में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में महामाई की आरती नहीं गाई जाती. जिस गांव में छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती गाई जाती है वह गांव है बेमेतरा जिला के बेरला तहसील के शिवनाथ के किनारे बसा गांव खम्‍हरिया जो खारून और शिवनाथ संगम स्‍थल सोमनाथ के पास स्थित है.

इसके दस्‍तावेजी साक्ष्‍य एवं स्‍थापना के लिए यद्यपि मैं योग्‍य नहीं हूं किन्‍तु वयोवृद्ध निवासियों से चर्चा से यह सिद्ध होता है कि यह परम्‍परा बहुत पुरानी है. वाचिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी गाए जा रहे इस महामाई की आरती का जो ज्ञात प्रवाह है उसके अनुसार लगभग 500 वर्ष से यह इसी तरह से गाई जा रही है. यह आरती कब से गाई जा रही है पूछने पर गांव वाले बतलाते हैं कि लगभग चार पांच सौ साल पहले से यानी चार पांच पीढ़ी से लगातार यह परम्‍परा चली आ रही हो, इसके अनुसार इसे पांच सौ वर्ष से निरंतर माना जा सकता है यह भी हो सकता है कि यह उससे भी पहले चली आ रही गायन परम्परा हो.

खम्हरिया में गाई जाने वाली आरती में यद्धपि बीच के बोल आरती से नहीं लगते क्योंकि इसमें देवी के गुणगान का बखान नहीं दिखता और ना ही प्रार्थना के भाव प्रत्यक्षत: नजर आते सिवा बार बार के टेक ‘महामाई ले लो आरती हो माय’ को ठोड़ दें तो. किन्‍तु पारंपरिकता एवं देसज भाव इस आरती के महत्व को प्रतिपादित करती है. इस आरती में निहित शब्दों और उनके अर्थों में तारतम्यता भी नहीं नजर आती. इस गांव में गाई जाने वाली आरती में पांच पद हैं जो सभी एक दूसरे से अलग अलग प्रतीत होते हैं.  खम्‍हरिया गांव में गाई जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी महामाई की आरती इस प्रकार है -

महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज में गड़े हिंडोला
लख आये लख जाए
लख आये लख जाए
माता लख आए लख जाए
एक नइ आवय लाल लगुंरवा
जियरा के परान अधार
महामाई ले लो आरती हो माय
महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज म उतरे बराईन
आस पास नरियर के बारी
झोफ्फा झोफ्फा फरे सुपारी
दाख दरूहन केकती केंवरा
मोगरा के गजब सुवास
महामाई ले लो आरती हो माय

बाजत आवय बांसुरी अउ
उड़त आवय घूर
माता उड़त आवय घूर
नाचत आवय नन्द कन्हैंया
सुरही कमल कर फूल
महामाई ले लो आरती हो माय

डहक डहक तोर डमरू बाजे
हाथ धरे तिरसूल बिराजे
रावन मारे असुर संहारे
दस जोड़ी मुंदरी पदुम बिराजे
महामाई ले लो आरती हो माय

अन म जेठी कोदई अउ
धन म जेठी गाय
माता धन म जेठी गाय
ओढ़ना म जेठी कारी कमरिया
ना धोबियन घर जाए
माता ना धोबियन घर जाए
महामाई ले लो आरती हो माय

आईये इस बिरले आरती को विश्‍लेषित करते हैं, आरती के पहले पद में हिंगलाज गढ़ में माता के पालने में झूलने और माता के दर्शन हेतु लाखों लोगों के आने जाने का उल्लेख आता है. लोक लंगुरे के नहीं आने से चिंतित है क्योंकि लंगूर माता के जियरा के प्राण का आधार है यानी प्रिय है. दूसरे पद में गढ़ हिंगलाज की सुन्दरता का वर्णन मिलता है जिसमें नारियल के बाग, सुपाड़ी के पेंड़, दाख, दारू, केकती, केंवड़ा के फूल के साथ ही मोंगरा के फूलों के सुवास का वर्णन है ऐसे स्थान पर बराईन के उतरने का उल्लेख लोक करता है. पारंपरिक छत्तीसगढ़ी जस गीतों में बराईन पान बेंचने वाली का उल्लेख कई बार आता है. जिसके आधार पर यह प्रतीत होता है कि बराईन एक महिला तांत्रिक है किन्तु देवी उपासक है उसकी झड़प यदा कदा लंगुरे से, जो 21 बहिनी के भईया लंगुरवा है, से होते रही है. यह महिला तांत्रिक उस गढ़ हिंगलाज में उतरती है. तीसरे पद में लोक कृष्ण को पद में पिरोता है कि वह बांसुरी बजाते हुए नाचते हुए जब आता है तो उसके नाचने से धूल उड़ती है और वह हाथ में कमल का फूल लिए आता है. चौंथे पद में संगीत का चढ़ाव तेज हो जाता है और गायन में भी तेजी आ जाती है इसमें देवी के रूप का वर्णन आता है डहक डहक डमरू बज रहा है, तुम्हारे हाथ में त्रिशूल है, तुमने रावण को मारा है और असुरों का संहार किया है. तुम्हारी अंगुलियों में दस जोड़ी अंगूठी है. तुम कमल के आसन में विराजमान हो. पांचवे पद में लोक शायद माता को अर्पित करने योग्य वस्तु का वर्णन करते हुए संदेश देना चाहता है वह कहता है कि अन्न में मुख्य कोदो है जो छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक गरीब जनता का अन्न है. धन में वह गाय को प्रमुख स्थान देता है, कपड़े मे प्रमुख स्थान वह भेड़ों के रोंए से बने काले कम्बल को देता है क्योंकि वह धोबी के घर कभी धुलने के लिए नहीं जाता यानी इसे धोने की आवश्यकता ही नहीं.

इन पांचों पदों को जोड़ने का प्रयास मैं बचपन से करते रहा हूं, पहले पद में हिंगलाज माता का वर्णन दूसरे में गढ़ हिंगलाज का वर्णन, तीसरे पद में कृष्ण का वर्णन, चौंथे में माता का स्वरूप वर्णन और अंतिम में चढ़ावा हेतु वस्तु का वर्णन आता है जिसमें कृपा के पद को हटा दें तो तारतम्यता बनती नजर आती है, यह भी हो सकता है कि इस आरती में पहले और पर रहे होंगें जो हटा दिए गए होंगें या भुला दिए गए हों.

गांव वालों का कहना है कि ये आरती रतनपुर के महामाई की आरती है, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण जीवन यापन हेतु पहले रतनपुर राज्य आए फिर अन्य गढ़ों में फैलते गए, गढ़पतियों के द्वारा पहले से बसे गांव ब्राह्मणों को दान में दिए गए तो कुछ ब्राह्मण उपयुक्त स्थल में अपना स्वयं का गांव बसा लिया. इसी क्रम में रांका राज के अधीन इस गांव को बसाने वाले कुछ ब्राह्मण अपने सेवकों के साथ यहां आये और शिवनाथ नदी के तट का उपयुक्त उपजाउ जमीन को चुनकर अपना डेरा डाल लिया. तब रतनपुर की देवी महामाया ही उनके स्मृति में थी उन्होनें ही नदी के किनारे देवी का स्थापना किया और तब से यही आरती गाई जा रही है. बाद के दिनों में शिवरीनारायण होते हुए उड़ीसा के मांझी लोग नदी के तट पर आकर बस गए धीरे धीरे गांव स्वरूप लेने लगा और आज लगभग 1500 की जनसंख्या वाला यह गांव, बेमेतरा जिले का आखरी गांव है.

संजीव तिवारी

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत में छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत के जानकारों का कहना है कि शास्‍त्रीय संगीत की बंदिशों में गाए जाने वाले अधिकतम गीत ब्रज के हैं, दूसरी भाषाओं की बंदिशें भारतीय शास्‍त्रीय रागों में बहुत कम देखी गई है। छत्‍तीसगढ़ी को भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा देनें के प्रयासों के बावजूद शास्‍त्रीय रागों में इस भाषा का अंशमात्र योगदान नहीं है। छत्‍तीसगढ़ी लोकगायन की परम्‍परा तो बहुत पुरानी है किन्‍तु शास्‍त्रीय गायन में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग अभी तक आरंभ नहीं हो पाया है। इस प्रयोग को सर्वप्रथम देश के बड़े संगीत मंचों में भिलाई के कृष्‍णा पाटिल नें आरंभ किया है। कृष्‍णा पाटिल भिलाई स्‍पात संयंत्र के कर्मचारी हैं एवं संगीत शिक्षक हैं। कृष्‍णा नें गुरू शिष्‍य परम्‍परा में शास्‍त्रीय गायन अपने गुरू से सीखा है(गुरू का नाम हम सुन नहीं पाये, ज्ञात होने पर अपडेट करेंगें) । वर्षों की लम्‍बी साधना, निरंतर रियाज, संगीत कार्यक्रमों में देश भर में प्रस्‍तुति, विभिन्‍न ख्‍यात संगीतज्ञों के साथ संगत देनें के बावजूद बेहद सहज व्‍यक्तित्‍व के धनी कृष्‍णा नें अपनी भाषा को शास्‍त्रीय रागों में बांधा है। उनका कहना है कि वे दुखी होते हैं जब लोग उन्‍हें कहते हें कि छत्‍तीसगढ़ी गीतों में फूहड़ता छा रही है और अब कर्णप्रिय गीतों का अभाव सा हो गया है। इसीलिए वे कहते हैं कि छत्‍तीसगढ़ में संगीतकारों और गीतकारों को अपनी भाषा के प्रति और संवेदशील होने की आवश्‍यकता है। छत्‍तीसगढ़ी गीतों के इस शास्‍त्रीय गायक कृष्‍णा पाटिल से हमारी मुलाकात सरला शर्मा जी के निवास पद्मनाभपुर, दुर्ग के आवास में हुई। विदित हो कि हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी में समान अधिकार से निरंतर साहित्‍य रचने वाली विदूषी लेखिका सरला शर्मा वरिष्‍ठ साहित्‍यकार स्‍व.पं.शेषनाथ शर्मा 'शील' जी की पुत्री हैं। सरला शर्मा के निवास में विगत 4 अगस्‍त को एक आत्‍मीय पारिवारिक गोष्‍ठी का आयोजन श्रीमती शशि दुबे की योरोप यात्रा का संस्‍मरण सुनने के लिए हुआ था।

शशि दुबे नें अपनी पंद्रह दिवसीय योरोप यात्रा का सजीव चित्रण किया। दर्शनीय स्‍थलों की विशेषताओं, यात्रा में रखी जाने वाली सावधानियों, यात्रा आयोजकों के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं, स्‍थानीय निवासियों, प्राकृतिक वातावरण व परिस्थितियों का उन्‍होंनें सुन्‍दर चित्रण किया। उन्‍होंनें अपना संस्‍मरण लगभग पंद्रह-बीस पन्‍नों में लिख कर लाया था जिसे वे पढ़ कर सुना रहीं थी, बीच बीच में प्रश्‍नों का उत्‍तर भी दे रहीं थीं। उनके इस संस्‍मरण का प्रकाशन यदि किसी पत्र-पत्रिका में हो तो योरोप यात्रा में जाने वालों के लिए यह बहुत काम का होगा।

कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में कवि गोष्‍ठी का भी आयोजन किया गया जिसमें अर्चना पाण्‍डेय, डॉ.हंसा शुक्‍ला, डॉ.संजय दानी, प्रभा सरस, डॉ.नरेन्‍द्र देवांगन, विद्या गुप्‍ता, प्रदीप वर्मा, आशा झा, डॉ.निर्वाण तिवारी, दुर्गा पाठक, नरेश विश्‍वकर्मा, मुकुन्‍द कौशल और मैंनें भी अपनी कवितायें पढ़ी। कार्यक्रम में छत्‍तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्‍यक्ष पं.दानेश्‍वर शर्मा, सचिव पद्मश्री डॉ.सुरेन्‍द्र दुबे व डॉ.निरूपमा शर्मा भी उपस्थित थे।

कार्यक्रम में कृष्‍णा पटेल की संगीत प्रस्‍तुति के बाद डॉ.निर्वाण तिवारी नें रहस्‍योत्‍घाटन किया कि गोष्‍ठी में बैठे युगान्‍तर स्‍कूल के संगीत शिक्षक सुयोग पाठक भी अपनी संगीतमय प्रस्‍तुति थियेटर के माध्‍यम से जबलपुर के थियेटर ग्रुप के साथ देते रहते हैं, जिसमें वे गीतों व कविताओं को नाट्य रूप में संगी व दृश्‍य माध्‍यमों से प्रस्‍तुत करते हैं। उपस्थित लोगों नें सुयोग से अनुरोध किया तो सुयोग पाठक नें बीते दिनों कलकत्‍ता में हुए नाट्य महोत्‍सव का वाकया सुनाया जिसमें उनके ग्रुप को गुलज़ार के किसी एक गीत की नाट्य प्रस्‍तुति देनें को कहा गया। कार्यक्रम में गुलज़ार बतौर अतिथि उपस्थित रहने वाले थे, आयोजकों नें गुलज़ार के गीतों की एक संग्रह टीम को पकड़ाया जिसमें से लगभग प्रत्‍येक गाने फिल्‍माए जा चुके थे ऐसे में उनकी गीतों को मौलिकता के साथ पुन: संगीतबद्ध करना एक चुनौती थी किन्‍तु सुयोग और टीम नें प्रयास किया। चल छैंया छैया गीत को प्रस्‍तुत करने के बाद स्‍वयं गुलज़ार नें सुयोग की पीठ थपथपाई और आर्शिवाद दिया। सुयोग नें बिना किसी वाद्य संगीत के इस गीत को नये सुर में हमें सुनाया।

बात जिससे आरंभ किया था उसके संबंध में कुछ और बातें आपसे साझा करना चाहूंगा। कृष्‍णा पाटिल से परिचय कराते हुए कवि मुकुन्‍द कौशल नें बतलाया कि कृष्‍णा हारमोनियम के सर्वश्रेष्‍ठ वादक हैं। कृष्‍णा के द्वारा हारमोनियम में बजाए जाने वाले लहर की कोई सानी नहीं है। हारमोनियम का उल्‍लेख करते हुए कृष्‍णा नें कहा कि संगीत के शास्‍त्रीय गुरूओं का कहना है कि हारमोनियम शास्‍त्रीय गायन के लिए योग्‍य वाद्य नहीं है, यह हमारा पारंपरिक वाद्य नहीं है, यह फ्रांस से भारत में आया है। शास्‍त्रीय संगीत का असल आनंद तारों से बने हुए यंत्र से ही मिलता हैं। छत्‍तीसगढ़ी भाषा के शास्‍त्रीय संगीत पर संगत के संबंध में मुकुन्‍द कौशल नें बतलाया कि कुछ बरस पहले पं.गुणवंत व्‍यास के द्वारा इस पर प्रयास किये गए थे। उस समय छत्‍तीसगढ़ी के कुछ स्‍थापित कवियों के गीतों को शास्‍त्रीय रागों में सुरबद्ध करके 'गुरतुर गा ले गीत' नाम से एक एलबम निकाला गया था। इस एलबम नें यह सिद्ध कर दिया था कि छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें शास्‍त्रीय संगीत में भी गायी जा सकती हैं।

कार्यक्रम के गायन को मैं अपने मोबाईल में रिकार्ड किया, जो सहीं ढंग से रिकार्ड नहीं हो पाया है, फिर भी पाठकों के लिए इसे मैं प्रस्‍तुत कर रहा हूँ :-

कृष्‍णा पाटिल : राग गुजरी तोड़ी - सरसती दाई तोर पॉंव परत हौँ



कृष्‍णा पाटिल : राग यमन - जय जय छत्‍तीसगढ़ दाई


कृष्‍णा पाटिल : राग.... - मन माते सहीँ लागत हे फागुन आगे रे


कृष्‍णा पाटिल : राग.... - मोर छत्‍तीसगढ़ महतारी के पँइयॉं लागँव


सुयोग पाठक : चल छंइयॉं छंइयॉं


मुकुन्‍द कौशल : गीत>


कार्यक्रम का चित्र प्रदीप वर्मा जी के कैमरे से लिया गया जिसका इंतजार है.

संजीव तिवारी

फसलों, पशुओं और दीपों के साथ उत्साह का पर्व दीपावली

भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार कार्तिक महीने में दीपों के उत्सव का त्यौहार दीपावली संपूर्ण भारत में मनाई जाती है. पत्र—पत्रिकायें, शुभकामना संदेश दीप और लक्ष्मी के तत्सम तद्भव शब्दों के लच्छेदार वाक्यांशों से भर जाते है. आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, क्योंकि यह हमारा महत्वपूर्ण त्यौहार जो है. अलग अलग स्थानों और आख्यानों में इसे मनाने के पीछे कारण जो भी रहे हों किन्तु सभी का केन्द्र धन, आनन्द और दीप से है. परम्पराओं में जन के लिए धन का मूल अर्थ धान्य से है जो हमारे देश का मूल है. लम्बे इंतजार और कठिन श्रम के उपरांत धान्य जब हमारे घर में आये तो उत्साह तो निश्चित है, उसके स्वागत में दीप जलाना हमारी परम्परा है. इस त्यौहार की परिकल्पना इसी से आगे बढ़ती है, कल्पना कीजिये ऐसे समय की जब रौशनी का माध्यम सिर्फ दीप रहा होगा. अमावस की रात को अनगिनत दीप जब जल उठे होंगें, जन स्वाभाविक रूप से नाच उठा होगा.

श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी. चाहे उनका जन शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के विरूद्ध. जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है.

कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण पशुओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है. यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है. इसी धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं. दीप और धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह जब इकट्ठा किया जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके उपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद धान की नपाई होती है. यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप प्रतीक है, राह दिखाता है.

प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन की आवश्यकता पड़ती है. बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है. पशुओं के कोठे लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है. कोठा सहित पूरे डीह डोंगर यानी गांव के हर जगह दीपक जलाया जाता है.

छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह ‘दियारी’ खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है. परंपरानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहां जाकर गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता हैं, पशुपालकों के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है. दूसरे दिन बैलों को लाल टीका लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है. बाद में घर की महिलायें चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है. फलस, अन्न और पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त एश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी है. इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में लाला जगदलपुरी की एक हल्‍बी गीत ‘उडी गला चेडे’ प्रासंगिक है – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्‍ता धान के पायते रला/केडे सुन्‍दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘

लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्‍दर गौरैया आई, और उसने दोस्‍ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्‍दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्‍ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्‍मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्‍या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्‍ट भाग से गौरैया को क्‍या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्‍ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में।

उत्सव के उत्साह को निरंतर रखने की जन सोंच भी गजब की है वह देवारी के बाद होरी के इंतजार में आनंदित होता है. दूसरे सेला के लिए उड चलता है. यादवों के बीच प्रचलित एक लोक दोहा देखें आवत देवारी लहुर लईया, जावत देवारी बड़ दूर/ जा जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावे धूर. यानी दिवाली के त्यौहार का महत्व बहुत है, उसके लिए हम उतावले रहते हैं और यह कब आके चली जाती है पता ही नहीं चलता, हम साल भर इसका इंतजार करते हैं. दीपावली अब तुम विदा लो क्योंकि अब हमारी स्मृत्तियों में फागुन को धूल उडाने दो. फिर अगले साल आयेगी दीपावली और हम अपनी प्राणदायी फसलों, पशुओं और दीपों की कल्पना कागजों में करेंगें.

संजीव तिवारी

चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा

आज सुबह समाचार पत्र पढ़ते हुए कानों में बरसों पहले सुनी स्वर लहरियॉं पड़ी.ध्यान स्वर की ओर केन्द्रित किया, बचपन में गांव के दिन याद आ गए. धान कटने के बाद गांवों में खुशनुमा ठंड पसर जाती है और सुबह ‘गोरसी’ की गरमी के सहारे बच्‍चे ठंड का सामना करते हैं. ऐसे ही मौसमों में सूर्य की पहली किरण के साथ गली से आती कभी एकल तो कभी दो तीन व्यक्तियों के कर्णप्रिय कोरस गान की ओर कान खड़े हो जाते. ‘गोरसी’ से उठकर दरवाजे तक जाने पर घुंघरू लगे करताल या खंझरी के मिश्रित सुर से साक्षात्‍कार होता. घर के द्वार पर सर्वांग धवल श्वेत वस्त्र में शोभित एक बुजुर्ग व्‍यक्ति उसके साथ दो युवा नजर आते. बुजुर्ग के सिर पर पीतल का मुकुट भगवान जगन्नाथ मंदिर की छोटी प्रतिकृति के रूप में हिलता रहता. वे कृष्‍ण जन्‍म से लेकर कंस वध तक के विभिन्‍न प्रसंगों को गीतों में बड़े रोचक ढ़ंग से गाते और खंझरी पर ताल देते, एक के अंतिम छूटी पंक्तियों को दूसरा तत्‍काल उठा लेता फिर कोरस में गान चलता. कथा के पूर्ण होते तक हम दरवाजे पर उन्‍हें देखते व सुनते खड़े रहते. इस बीच घर से नये फसल का धान सूपे में डाल कर उन्‍हें दान में दिया जाता और वे आशीष देते हुए दूसरे घर की ओर प्रस्‍थान करते. स्‍मृतियों को विराम देते हुए बाहर निकल कर देखा, बाजू वाले घर मे एक युवा वही जय गंगान गा रहा था, बुलंद आवाज पूरे कालोनी के सड़कों में गूंज रही थी. उसके वस्त्र ‘रिंगी चिंगी’ थे, किन्तु स्वर और आलाप बचपन में सुने उसी जय गंगान के थे. मन प्रफुल्लित होने लगा, और वह भिक्षा प्राप्त कर मेरे दरवाजे पर आ गया.

श्री कृष्ण मुरारी के जयकारे के साथ उसने अपना गान आरंभ कर दिया. वही कृष्ण जन्म, देवकी, वासुदेव, मथुरा, कंस किन्तु छत्तीसगढ़ी में सुने इस गाथा में जो लय बद्धता रहती है ऐसी अनुभूति नहीं हो रही थी. फिर भी खुशी हुई कि इस परम्परा को कोई तो है जिसने जीवित रखा है क्योंकि अब गांवों में भी जय गंगान गाने वाले नहीं आते.

किताबों के अनुसार एवं इनकी परम्‍पराओं को देखते हुए ये चारण व भाट हैं. छत्‍तीसगढ़ में इन्‍हें बसदेवा या भटरी या राव भाट कहा जाता है, इनमें से कुछ लोग अपने आप को ब्रम्‍ह भट्ट कहते हैं एवं कविवर चंदबरदाई को अपना पूर्वज मानते हैं. चारण परम्‍परा के संबंध में ब्रह्मपुराण का प्रसंग तो स्पष्ट करता है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंश की स्तुति करने लगे (ब्रह्म पु. भूमिखंड, 28.88)। यहीं से चारण सब जगह फैले। महाभारत के बाद भारत में कई स्थानों पर चारण वंश नष्ट हो गया। केवल राजस्थान, गुजरात, कच्छ तथा मालवे में बच रहे। इस प्रकार महाराज पृथु ने देवता चारणों को "मानुष चारण" बना दिया। इसी प्रकार भाटों के संबंध में जनश्रुतियों में भाटों के संबंध में कई प्रचलित बातें कही जाती हैं। इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और विधवा ब्राह्मणी माता से हुई बताई जाती है। ..... वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था। ..... कहते हैं, चारण तो कच्छ में ही हैं पर भाट सर्वत्र पाए जाते हैं .... चारण तो केवल राजपूतों के ही दानपात्र होते हैं, पर भाट सब जातियों से दान लेते हैं। ..... कविराज राव रघुबरप्रसाद द्वारा लिखित और प्रकाशित भट्टाख्यानम् नामक छोटी सी पुस्तक में कवि ने खींचतानी से प्रमाण जुटाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भाट शब्द ब्रह्मभट्ट से बना है, उसे ब्रह्मराव भी कहा गया है। भट्ट जाति की उत्पत्ति का प्रतीक पुरुष ब्रह्मराव था जिसे ब्रह्मा ने यज्ञकुंड से उत्पन्न किया था। भाट स्वयं को कभी सूत, मागध और वंदीजन कहकर अपने को सरस्वतीपुत्र कहने लगते हैं और कभी अग्निकुंड से उद्भूत बताते हैं। (विकिपीडिया)

छत्‍तीसगढ़ के राव भाटों के संबंध में उपरोक्‍त पंक्तियों का जोड़ तोड़ फिट ही नहीं खाता. छत्‍तीसगढ़ से इतर राव भाट वंशावली संकलक व वंशावली गायक के रूप में स्‍थापित हैं और वे इसके एवज में दान प्राप्‍त करते रहे हैं. छत्‍तीसगढ़ के बसदेवा या राव भाट वंशावली गायन नहीं करते थे वरण श्री कृष्‍ण का ही जयगान करते थे. इनके सिर में भगवान जगन्‍नाथ मंदिर पुरी की प्रतिकृति लगी होती है जो इन्‍हें कृष्‍ण भक्‍त सिद्ध करता है. वैसे छत्‍तीसगढ़ की सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं में पुरी के जगन्‍नाथ मंदिर का अहम स्‍थान रहा है इस कारण हो सकता है कि इन्‍होंनें भी इसे अहम आराध्‍य के रूप में सिर में धारण कर लिया हो. छत्‍तीसगढ़ में इन्‍हें बसदेवा कहा जाता है जो मेरी मति के अनुसार 'वासुदेव' का अपभ्रंश हो सकता है. गांवों में इसी समाज के कुछ व्‍यक्ति ज्‍योतिषी के रूप में दान प्राप्‍त करते देखे जाते हैं जिन्‍हें भड्डरी कहा जाता है. छत्‍तीसगढ़ में इनका सम्‍मान महराज के उद्बोधन से ही होता है, यानी स्‍थान ब्राह्मण के बराबर है. छत्‍तीसगढ़ के राव भाटों का मुख्‍य रोजगार चूंकि कृषि है इसलिये उनके द्वारा वेद शास्‍त्रों के अध्‍ययन पर विशेष ध्‍यान नहीं दिया गया होगा और वे सिर्फ पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक रूप से भजन गायन व भिक्षा वृत्ति को अपनी उपजीविका बना लिए होंगें. छत्‍तीसगढ़ी की एक लोक कथा ‘देही तो कपाल का करही गोपाल’ में राव का उल्‍लेख आता है. जिसमें राव के द्वारा दान आश्रित होने एवं ब्राह्मण के भाग्‍यवादी होने का उल्‍लेख आता है.

गांवों में जय गंगान गाने वालों के संबंध में जो जानकारी मिलती हैं वह यह है कि यह परम्परा अब छत्तीसगढ़ में लगभग विलुप्ति के कगार पर है, अब पारंपरिक जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने वाले बसदेवा इसे छोड़ चुके हैं. समाज के उत्तरोत्तर विकास के साथ भिक्षा को वृत्ति या उपवृत्ति बनाना कतई सही नहीं है किन्तु सांस्कृतिक परम्पराओं में जय गंगान की विलुप्ति चिंता का कारण है. अब यह समुदाय जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने का कार्य छोड़ चुका है. पहले इस समुदाय के लोग धान की फसल काट मींज कर घर में लाने के बाद इनका पूरा परिवार छकड़ा गाड़ी में निकल पड़ते थे गांव गांव और अपना डेरा शाम को किसी गांव में जमा लेते थे. मिट्टी को खोदकर चूल्हा बनाया जाता था और भोजन व रात्रि विश्राम के बाद अल सुबह परिवार के पुरूष निकल पड़ते थे जय गंगान गाते हुए गांव के द्वार द्वार. मेरे गांव के आस पास के राव भाटों की बस्ती के संबंध में जो जानकारी मुझे है उसमें चौरेंगा बछेरा (तह. सिमगा, जिला रायपुर) में इनकी बहुतायत है.

पारंपरिक भाटों के गीतों में कृष्‍ण कथा, मोरध्‍वज कथा आदि भक्तिगाथा के साथ ही ‘एक ठन छेरी के दू ठन कान बड़े बिहनिया मांगें दान’ जैसे हास्य पैदा करने वाले पदों का भी प्रयोग होता था. समयानुसार अन्‍य पात्रों नें इसमें प्रवेश किया, प्रदेश के ख्‍यातिनाम कथाकार व उपन्‍यासकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के चर्चित उपन्‍यास ‘आवा’ में भी एक जय गंगान गीत का उल्‍लेख आया है -
जय हो गांधी जय हो तोर,
जग म होवय तोरे सोर । जय गंगान ....
धन्न धन्न भारत के भाग,
अवतारे गांधी भगवान । जय गंगान .....

मेरे शहर के दरवाजे पर जय गंगान गाने वाले व्‍यक्ति का जब मैं परिचय लिया तो मुझे आश्‍चर्य हुआ. उसका और उसके परिवार का दूर दूर तक छत्‍तीसगढ़ से कोई संबंध नहीं था. उसकी पीढ़ी जय गंगान गाने वाले भी नहीं है वे मूलत: कृषक हैं. वह भिक्षा मांगते हुए ऐसे मराठी भाईयों के संपर्क में आया जो छत्‍तीसगढ़ में भिक्षा मांगने आते थे और कृष्‍ण भक्ति के गीत गाते थे. उनमें से किसी एक नें जय गंगान सुना फिर धीरे धीरे अपने साथियों को इसमें प्रवीण बनाया. अब वे साल में दो तीन बार छत्‍तीसगढ़ के शहरों में आते हैं और कुछ दिन रहकर वापस अपने गांव चले जाते हैं. मेरे घर आया व्‍यक्ति का नाम राजू है उसका गांव खापरी तहसील कारंजा, जिला वर्धा महाराष्‍ट्र है. इनके पांच सदस्यों की टोली समयांतर में दुर्ग आती हैं और उरला मंदिर में डेरा डालती हैं.

राजू के गाए जय गंगान सुने ......


संजीव तिवारी

कातिक महीना धरम के माया मोर

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश के लोक जीवन में परम्परा और उत्सवधर्मिता का सीधा संबंध कृषि से है। कृषि प्रधान इस राज्य की जनता सदियों से, धान की बुवाई से लेकर मिजाई तक काम के साथ ही उत्साह व उमंग के बहाने स्वमेव ही ढूंढते रही है, जिसे परम्पराओं नें त्यौहार का नाम दिया है। हम हरेली तिहार से आरंभ करते हुए फसलचक्र के अनुसार खेतों में काम से किंचित विश्राम की अवधि को अपनी सुविधानुसार आठे कन्हैंया, तीजा-पोरा, जस-जेंवारा आदि त्यौहार के रूप में मनाते रहे हैं। ऐसे ही कार्तिक माह में धान के फसल के पकने की अवधि में छत्तीसगढि़या अच्छा और ज्यादा फसल की कामना करता हैं और संपूर्ण कार्तिक मास में पूजा आराधना करते हुए माता लक्ष्मी से अपनी परिश्रम का फल मांगता हैं। छत्तीसगढ में कातिक महीने का महत्व महिलाओं के लिए विशेष होता है पूरे कार्तिक माह भर यहां की महिलायें सूर्योदय के पूर्व नदी नहाने जाती हैं एवं मंदिरों में पूजन करती हैं जिसे कातिक नहाना कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक माह में प्रात: स्नान के बाद शिवजी में जल चढ़ाने से कुवारी कन्याओं को मनपसंद वर मिलता है। पारंपरिक छत्तीसगढ़ी बारहमासी गीतों और किवदंतियों में कार्तिक माह को धरम का माह कहा गया है जिसमें रातें उजली है एवं इस माह में स्वर्ग से लगातार आर्शिवाद बरसते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है जो क्‍वांर के बाद आता है, क्‍वांर को आश्विन मास भी कहा जाता है, आश्विन आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों का प्रतीक मास है। यह मास किसानों के कृषि कार्य से थकित शरीर में नव उर्जा का संचार करता है। कार्तिक में धान गभोट की स्थिति में होता है इस समय में धान के दाने पड़ते हैं और धान की बालियां परिपक्व होती है। इस मास की इन्ही विशेषताओं को देखते हुए मान्‍यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। संपूर्ण देश की परम्परा के अनुसार छत्तीसगढ़ में भी शरद पुर्णिमा के दिन शाम को खीर (तसमई), पुरी बनाकर भगवान को भोग लगाए जाते हैं एवं खीर को छत पर रख कर चंद्रमा से अमृत वर्षा की कामना की जाती है। अश्विनीकुमार आरोग्य के दाता हैं और पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा को आसमान से अमृत की वर्षा होती है। छत्तीसगढ़ में इस दिन आंवला के वृक्ष के नीचे सुस्वादु भोजन बनाकर परिवार को खिलाया जाता है जो आधुनिक पिकनिक का आनंद देता है।

शरद् पूर्णिमा के बाद से आने वाले इस मास में दीपावली और देवउठनी एकादशी (छोटी दीपावली, तुलसी विवाह) आते हैं, इसी मास के अंत में कार्तिक पूर्णिमा को छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न देवस्‍थानों में मेला भरता है। पून्‍नी मेला मेरे गांव के समीप शिवनाथ व खारून के संगम पर स्थित सोमनाथ में भी भरता है। कुल मिलाकर यह मास धार्मिक आस्‍था से परिपूर्ण मास होता है। गांवों में कार्तिक माह का उत्‍साह देखते बनता है, सूर्योदय के पहले महिलायें, किशोरियॉं और बालिकायें उठ जाती हैं और नदी या तालाब में नहाने जाती हैं, नदी-तालाबों के किनारे स्थित शिव के मंदिर में वे गीले कपड़े पहने ही जल चढ़ाती है और गीले कपड़े पहने ही घर आती हैं। सुबह के धुंधलके में वे प्राय: झुंड में रहती हैं और स्‍वभावानुसार बोलते रहती हैं जो प्रात: की नीरवता को दूर-दूर तक तोड़ती है। जब मैं गांव में रहता था तब इनकी बातों से नींद खुलती थी। गांव में समय के पहचान के लिए प्रात: 'सुकुवा' के उगने से लेकर 'पहट ढि़लाते' तक के समय में 'कातिक नहईया टूरी मन के उठती' जैसे शब्‍दों का भी प्रयोग होता रहा है।

प्रहर के इस अंतराल के पार होने के बाद 'पंगपगांने' पर ही मैं बिस्‍तर छोड़ता था और कातिक के 'रवनिया' का आनंद लेते हुए नदी की ओर निकल पड़ता था। छत्‍तीसगढ़ के गांवों में सामाजिक व्‍यावहारिकता के चलते 'डउकी घठौंधा' और 'डउका घठौंधा' होता है जहॉं पुरूष और महिलायें अलग अलग स्‍नान करती हैं। हम इन दोनों घाटों को पीछे छोड़ते हुए दूर शिवनाथ और खारून के गहरे संगम की ओर बढ़ चलते थे इससे हमारा प्रात: भ्रमण भी हो जाता था। तब 'डउकी घठौंधा' से गुजरते हुए महिलाओं को लंहगे से या छोटी घोती से 'छाती बांध' कर नहाते देखता था। कार्तिक में बरसात के बाद आने वाली दीपावली के पूर्व गॉंव में घरों के 'ओदर' गए 'भिथिया' को 'छाबनें' एवं 'लीप-पोत-औंठिया' के घर के कपड़ों की सफाई के लिए महिलाओं को बड़ी बाल्‍टी या डेचकी भर कपड़ों को 'कांचते' भी देखता था।

कभी इस बिम्‍ब का विस्‍तार और चिंतन दिमाग नें नहीं किया था, पिछले दिनों छत्‍तीसगढ़ी गीतों के जनगीतकार मुकुन्‍द कौशल जी से छत्‍तीसगढ़ी गज़लों के संबंध में लम्‍बी बातचीत हुई तो उन्‍होंनें अपना एक गज़ल सुनाया तब लगा कि कवि नें इस बिम्‍ब को किस तरह से भावमय विस्‍तार दिया आप भी देखें -

जम्‍मो साध चुरोना बोरेंव, एक साध के कारन मैं 
एक दिसा के उड़त परेवना, ठींया ला अमरा लेथें.

'माटी राख' डाल के 'बड़का बंगोनिया' में पानी के साथ गंदे कपड़े को आग में पकाने की क्रिया को 'चुरोना बोरना' कहा जाता है, अब गज़लकार कसी एक साध के कारण जम्‍मो साध का चुरोना डुबाने की बात कहता है क्‍योंकि गॉंव की महिला जानती है कि उसकी अनंत इच्‍छायें तो पूरी नहीं हो सकती कोई एक इच्‍छा ही पूरी हो जाए। उसने जो अपना कोई एक लक्ष्‍य रखा है कम से कम वही तो पूरा हो जाए (एक दिशा में उड़ते हुए कबूतर को उसका ठिकाना तो मिल जाए)।

हालांकि इस पोस्‍ट में नदी के किनारे से गुजरते हुए इस गज़ल के मूल अर्थ का कोई सामन्‍जस्‍य नहीं बैठता किन्‍तु विषयांतर से ग्रामीण जीवन की झलक को डालने का प्रयास कर रहा हूँ। नदी के किनारे के पेंड, पत्‍थर और घाट को विघ्‍नसंतोषी बताते हुए गज़लकार महिलाओं को अपने मन की बात ना कहने की ताकीद देता है। जो साथी गांव के जीवन को जानते हैं उन्‍हें ज्ञात है कि महिलायें नदी में नहाते हुए घर से गांव और संसार की बातें करती हैं, अपने साथ साथ नहाती महिलाओं से हृदय की बातें भी कहती हैं, इसी भाव को गज़लकार शब्‍द देता है-

अनदेखना हें अमली-बम्‍हरी नदिया के पथरा पचरी
सबके आघू मन के कच्‍चा लुगरा झन फरियाए कर.

कार्तिक पूर्णिमा पर किसी पत्रिका के लिए मैंनें इसे लिखा था आगे आलेखों की कड़ी थी भूमिका में पहला दो पैरा लिखा गया था। आज ड्राफ्ट में पड़े इसे देखकर इस पर चंद लाईना जोड़कर पब्लिश कर दिया। धरम के मास कार्तिक से लेकर श्री मुकुन्‍द कौशल जी की छत्‍तीसगढ़ी गज़ल तक लोक जीवन के इस जीवंतता का शहर में बैठकर सिर्फ कल्‍पना किया जा सकता है, हृदय में गॉंव बार-बार सोरिया रहा है फिर भी जीवन की व्‍यस्‍तता गॉंव के पुकार को अनसुना कर रही है।

संजीव तिवारी

नोट : छत्‍तीसगढ़ी के शब्‍दों पर माउस ले जाने से उसके हिन्‍दी अर्थ छोटे बक्‍से में वहीं दिखने लगेंगें. 

वैवाहिक परम्‍पराओं में आनंदित मन और बैलगाड़ी की सवारी

अक्षय तृतिया के गुड्डा-गुड्डी
अक्षय तृतिया के दिन से गर्मी में बढ़त के साथ ही छत्तीसगढ़ में विवाह का मौसम छाया हुआ है। पिछले महीने लगातार सड़कों में आते-जाते हुए बजते बैंड और थिरकते टोली से दो-चार आप भी हुए होंगें। इन दिनों आप भी वैवाहिक कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए होंगें और अपनी भूली-बिसरी परम्पराओं को याद भी किए होगे। छत्तीसगढ़ में विवाह लड़का-लड़की देखने जाने से लेकर विदा कराने तक का मंगल गीतों से परिपूर्ण, कई दिनों तक चलने वाला आयोजन है। जिसमें गारी-हंसी-ठिठोली एवं करूणमय विवाह गीतों से लोक मानस के उत्साह को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। वैवाहिक मेहमान महीनों से विवाह वाले घरों में आकर जमे रहते हैं, बचपन में हम भी मामा गांव और अन्‍य रिश्‍तेदारों के घरों की शादी में महीनों 'सगाही' जाते रहे हैं।

जनगीतकार लक्ष्‍मण मस्‍तूरिहा की पुत्री शुभा का विवाह 12 मई 2011
छत्तीसगढ़ की पुरानी परम्परा में बाल-विवाह की परम्परा रही है, तब वर-वधु को 'पर्रा' में बैठाकर 'भांवर गिंजारा' जाता था और दोनों अबोध जनम-जनम के लिए एक-दूसरे के डोर में बंध जाते थे। सामाजिक मान्यता उस डोर के बंधन को सशक्त करती थी और वे इस अदृश्य बंधन के सहारे पूरी उम्र साथ-साथ काटते थे। शिक्षा के प्रसार के साथ ही कुछ बढ़ी उम्र में शादियां होने लगी किन्तु संवैधानिक उम्र के पूर्व ही। इतना अवश्य हुआ कि लड़के-लड़कियॉं विवाह का मतलब भले ना जाने किन्तु अपने पांवों से फेरे लेने लगे। लगभग इसी अवधि की बात बतलाते हुए हमारे पिता जी बतलाते थे कि हमारी मॉं को देखने और विवाह पक्का करने गांव के ठाकुर (नाई) और बरेठ (धोबी) गए थे। दादाजी एवं पिताजी नें मेरी मॉं को देखा नहीं था। मेरी मॉं बिलासपुर गनियारी के पास चोरभट्ठी में अपने भाई-बहनों के साथ उसी स्कूल में पढ़ रही थी जहॉं मेरे नाना प्रधान पाठक थे।
मेरे भांजें की शादी 
उन दिनों 'पउनी-पसारी' के द्वारा चयनित वर-वधु का विवाह अभिभावक सहर्ष तय कर स्वीकार करते थे। गावों में नाई, रावत और धोबी घर के कामों में इस तरह रमें होते हैं कि वे परिवार के एक अंग बन जाते हैं। वे अपने ठाकुर (मालिक) के बच्चों से एवं अपने ठाकुर की परिस्थितियों से भी परिचित होते हैं उन्हें पता होता है कि मालिक ठाकुर के कौन बच्चे के लिए कैसी लड़की या लड़का चाहिए। मालिक ठाकुर को भी अपने 'पौनी-पसारी' पर भरपूर भरोसा होता था, शायद इसी विश्वास के कारण यह परम्परा चल निकली होगी। 

डीजे के कर्कश संगीत में थिरकते युवा
योग्य वर या वधु के चयन के बाद 'लगिन धराने' के दिन अभिभावक वधु के घर जाता है। इस दिन अभिभावक और उसके पुरूष संबंधी वधु के घर में जाकर विधिवत पूजा के साथ विवाह का मुहुर्त तय करते हैं और लग्न पत्रिका का आदान प्रदान होता है। वधु के हाथ से 'जेवन' बनवाया जाता है और वर के अभिभावक और संबंधी को वधु के द्वारा ही परोसा जाता है। वर के अभिभावक और उसके पुरूष संबंधी वधु को 'जेवन' करने के बाद 'रूपिया धराते' हैं और वधु उनका चरण स्पर्श कर आर्शिवाद लेती है। आजकल यह परम्परा अब होटलों में निभाई जा रही है जहॉं वधु के पाक कला प्रवीणता की परीक्षा नहीं हो पाती। वैसे भी आधुनिक समाज में नारी का इस प्रकार परीक्षण परीक्षा उचित भी नहीं है। 
व्‍यंग्‍यकार विनोद साव की पुत्री शैली का विवाह 07 मई 2011
'लगिन धराने' के बाद दोनों पक्षों के घरों में मांगलिक कार्यक्रम आरंभ हो जाते हैं। अचार, बरी, बिजौरी बनने लगता है, जुन्ना धान 'कोठी-ढ़ाबा' से निकाल कर 'कुटवाने' 'धनकुट्टी' भेजा जाता है, गेहूं की पिसाई और अरहर की दराई में घर का 'जतवा घरर-घरर नरियाने' लगता है। सोन-चांदी और कपड़ों की खरीददारी में महिलायें 'बिपतिया' जाती हैं। विवाह और लगिन के बीच किसी दिन लड़के वाले के तरफ से एवं लड़की वाले के तरफ से एक दूसरे के श्रृंगार प्रसाधन, कपड़े व संबंधियों के कपड़े लिये व दिये जाते हैं। परम्परा में इसे 'फलदान' का नाम दिया गया है क्योंकि कपड़ों के साथ ही फलों की टोकरियॉं भी भेजी जाती है। छत्तीसगढ़ में फलदान वर या वधु के घर का स्टै‍टस बताने-जताने का तरीका है। फलदान आने के बाद उसे घर के आंगन या ओसारे में फैलाकर गांव वालों को दिखाया जाता है। इसके बाद विवाह के लिए 'मडवा' की तैयारी शुरू हो जाती है। 

विनोद साव जी
इसके आगे छत्तीसगढ़ी वैवाहिक परम्परा के संबंध में सीजी गीत संगी में राजेश चंद्राकर जी नें छत्तीसगढ़ के वैवाहिक गीतों के साथ इन्हें बहुत सुन्दर ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। उनके पोस्टों में यहॉं के वैवाहिक गीतों एवं परम्पराओं का आनंद लिया जा सकता है। पिछले माह लगातार 'बिहाव के लाडू झड़कते' हुए कुछ एैसे सगे - संबंधियों और मित्रों के पुत्र-पुत्रियों के विवाह में जाने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ जहॉं लेखन विधा से जुड़े लोगों से मेल-मुलाकात हुई। विवाह वर-वधु एवं उनके पारिवारिक संबंधियों के साथ-साथ समाज को आपस में मिलाता है। वैवाहिक कार्यक्रमों में शामिल होना मन को आनंदित करता है, हम आपस में बातचीत करते हैं खुशियां बांटते हैं और ऐसे कार्यक्रम में जहां डीजे और कर्कश संगीत ना हो वहां आप खुलकर बातें भी कर सकते हैं और दूसरों की बातें सुन भी सकते हैं। ऐसा ही एक वैवाहिक कार्यक्रम व्यंग्यकार, कथाकार, उपन्‍यासकार विनोद साव जी की पुत्री के विवाह में देखने को मिला। विनोद साव जी की बिटिया के भव्य वैवाहिक कार्यक्रम में डीजे और कर्कश संगीत गायब था। आजकल के ज्यादातर वैवाहिक कार्यक्रम में डीजे के तेज आवाज के कारण हम आपस में बात ही नहीं कर पाते, मुझे विनोद जी का यह प्रयोग बहुत अच्छा लगा। पिछले ही महीनें छत्तीसगढ़ के जनकवि लक्ष्मण मस्तूरिहा जी की पुत्री का भी विवाह था और हम यहॉं भी आमंत्रित थे।
बैलगाड़ी में कोट पहने अपनी श्रीमती जी के साथ घर की ओर जाती हमारी पारंपरिक सवारी 
बिहाव नेवता मानते हुए अपनी शादी के दिन की यादें भी साथ चलती हैं, अपने इन विशेष दिवस को कोई नहीं भूल सकता, इन शब्दों के बहाने और सही कहें तो 'पोस्‍ट ठेलने के लिए' हमने भी अपने बीते दिनों को याद किया। 'धरनहा' पेटी से फोटो एल्बम निकलवाया और घंटो बांचते रहे। हॉं जी देखना क्या बांचना ही तो है अपने विवाह के चित्रों को। इन्हीं मे से एक दो ऐतिहासिक चित्रों को आप लोगों के साथ बांट रहा हूँ।  कार में बारात जाने की परम्परा नई है, इस नई परम्परा का निर्वहन हमनें भी किया। विवाह के बाद अपनी पत्नी के साथ कच्चे रास्ते में धूल उडाते हुए पाल के एनई से धुर गांव के महामाई मंदिर में आये। गांव की परम्परा के अनुसार वर-वधु को पहले ग्राम देवी से आर्शिवाद लेना होता है फिर लगभग आधे किमी दूर घर जाना होता है। मंदिर में पूजा कर जब हम बाहर निकले तब तक मेरे साथ आई सभी गाडि़यों को मेरे पिताजी मेरे घर के पास पार्क करवा आये। हमारे स्वागत में बैल गाड़ी के साथ हमारा पुराना 'कमइया' हाथ जोड़े खड़ा मिला। मेरे गुस्साने पर वह मुझे समझाने लगा ‘बड़े दाउ के संउख ये संजू दाउ झन रिसा।’ पिता के मन की उपज थी यह, उनका किसान मन चाहता था कि अपनी बैलगाड़ी में बहु घर आये। मैं कुढ़ता रहा, और सामान के साथ हम बैल गाड़ी पर लद गए। इस चित्र का वाकया मेरे 14 वर्षीय पुत्र के लिए ‘अटपटा और मूर्खतापूर्ण’ है, किन्तु मेरे पिता के लिए यह आवश्यक था। छत्‍तीसगढ़ की वैवाहिक परम्‍परा पर पुन: कभी लिखूंगा, अभी तो ये चित्र देखिये -


लो आ गई सवारी घर तक
संजीव तिवारी

सामंती व्यवस्था पर चोट का नाम है फाग











राजा बिकरमादित महराज, केंवरा नइये तोर बागन में...


छत्‍तीसगढ़ के फाग में इस तरह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्‍य के बाग में केवड़े का फूल नहीं होने का उल्‍लेख आता है। फाग के आगे की पंक्तियों में केकती केंवरा किसी गरीब किसान के बारी से लाने की बात कही जाती है। तब इस गीत के पीछे व्‍यंग्‍य उजागर होता है। फाग में गाए जाने वाले इसी तरह के अन्‍य गीतों को सुनने पर यह प्रतीत होता है कि, लोक जीवन जब सीधे तौर पर अपनी बात कह नहीं पाता तो वह गीतों का सहारा लेता है और अपनी भावनाओं (भड़ास) को उसमें उतारता है। वह ऐसे अवसर को तलाशता है जिसमें वह अपनो के बीच सामंती व्‍यवस्‍था पर प्रहार करके अपने आप को संतुष्‍ट कर ले। होली के त्‍यौहार में बुरा ना मानो होली है कहकर सबकुछ कह दिया जाता है तो लोक भी इस अवसर को भुनाता है और कह देता है कि, राजा विक्रमादित्‍य महाराज तुम चक्रवर्ती सम्राट हो, किन्‍तु तुम्‍हारी बगिया में केवड़े का फूल नहीं है,  जबकि यह सामान्‍य सा फूल तो यहां हमारे घर-घर में है। केवड़े के फूल के माध्‍यम से राजा को अभावग्रस्‍त व दीन सिद्ध कर लोक आनंद लेता है।



अरे हॉं ... रे कैकई राम पठोये बन, का होही...., नइ होवय भरत के राज ... रे कैकई ... देखिये लोक मानस कैकई के कृत्‍यों का विरोध चिढ़ाने के ढ़ग से करता है, कहता है कि कैकई तुम्‍हारे राम को वनवास भेज देने से क्‍या हो जायेगा। तुम सोंच रही हो कि भरत को राजगद्दी मिल जायेगी।, ऐसा नहीं है। ऐसे ही कई फाग गीतों में हम डूबते उतराते रहे हैं जिनमें से कुछ याद है और कुछ भूल से गए हैं। प्रेम के अतिरिक्‍त इसी तरह के फाग छत्‍तीसगढ़ में गाए जाते हैं जिसमें राजा, बाह्मण, जमीनदार और धनपतियों के विरूद्ध जनता के विरोधी स्‍वर नजर आते हैं। नाचा गम्‍मत के अतिरिक्‍त लोकगीतों में ऐसी मुखर अभिव्‍यक्ति फाग में ही संभव है।



सदियों से बार बार पड़ने वाले अकाल, महामारी और लूट खसोट से त्रस्‍त जन की उत्‍सवधर्मिता उसे दुख में भी मुस्‍कुराने और समूह में खुशियां मनाने को उकसाती है। वह उत्‍सव तो मनाता है, गीत भी गाता है किन्‍तु आपने हृदय में छ़पे दुख को ऐसे समय में अभिव्‍यक्‍त न करके वह उसे व्‍यंग्‍य व विरोध का पुट देता है। छत्‍तीसगढ़ी फाग गीतों के बीच में गाए जाने वाले कबीर की साखियॉं और उलटबासियॉं कुछ ऐसा ही आभास देती है। सामंती व्‍यवस्‍था पर तगड़ा प्रहार करने वाले जनकवि कबीर छत्‍तीसगढ़ के फाग में बार-बार आते हैं। लोग इसे कबीर की साखी कहते हैं यानी लोक के बीच में कबीर खड़ा होता है, वह गवाही देता है सामाजिक कुरीतियों और विद्रूपों के खिलाफ। डॉ.गोरेलाल चंदेल सराररा रे भागई कि सुनले मोर कबीर को सचेतक आवाज कहते हैं मानो गायक सावधान, सावधान की चेतावनी दिया जा रहा हो।



फाग गीतों को गाते, सुनते और उसके संबंध में विद्वानों के आलेखों को पढ़ते हुए, डॉ.गोरेलाल चंदेल की यह बात मुझे फाग गीतों के निहितार्थों में डूबने को विवश करती है-  


... तमाम विसंगतियों एवं दुखों के बीच भी जन समाज की मूल्‍यों के प्रति गहरी आस्‍था ही फाग गीतों के पानी में इस तरह मिली हुई दिखाई देती है जिसे अलग करने के लिए विवेक दृष्टि की आवश्‍यकता है। जन समाज को उनकी सांस्‍कृतिक चेतना को संपूर्णता के साथ देखने तथा विश्‍लेषित करने की जरूरत है। फाग की मस्‍ती एवं गालियों के बीच जीवन दृष्टि की तलाश ही जन समाज की सांस्‍कृतिक चेतना को पहचानने का सार्थक मार्ग हो सकता है।




इनके इस बात को सार्थक करता ये फाग गीत देखें अरे हां रे ढ़ेकुना, काहे बिराजे, खटियन में/ होले संग करव रे बिनास .... समाज के चूसकों को इस त्‍यौहार में जलाने की परंपरा को जीवंत रखने का आहृवान गीत में होता है। इसी परम्‍परा के निर्वाह में छत्‍तीसगढ़ में होली की आग में खटमल (ढ़ेकुना) और पशुओं का खून चूसने वाले कीटों (किन्‍नी) को जलाया जाता है ताकि उनका समूल नाश हो सके।  सांकेतिक रूप से होली के आग में समाज विरोधी मूल्‍यों का विनाश करने का संदेश है यह।



पारम्‍परिक फाग गीतों का एक अन्‍य पहलू भी है जिसके संबंध में बहुत कम लिखा-पढ़ा गया है। होली जलने वाले स्‍थान पर गाए जाने वाले अश्‍लील फाग का भी भंडार यहां उसी प्रकार है जैसे श्‍लील फाग गीतों का। होली के जलते तक होले डांड में रात को तेज आवाज में यौनिक गालियां, होले को और एक दूसरे को दिया जाता है और अश्‍लील फाग गीत के स्‍वर मुखरित होते हैं। लोक के इस व्‍यवहार पर डॉ.गोरेलाल चंदेल जो तर्क देते हैं वे ग्राह्य लगते हैं, वे कहते हैं कि


लोक असत् को जलाकर सत की रक्षा ककी खुशी मनाता है तो, पौराणिक असत् पक्ष की भर्त्‍सना करने से भी नहीं चूकता। वह असत् के लिए अश्‍लील गालियों का भी प्रयोग करता है और अश्‍लीलता युक्‍त फाग गीतों का गायन भी करता है।



रात के बाद फाग का यह अश्‍लील स्‍वरूप बदल जाता है, लोक अपनी विरोधात्‍मक अभिव्‍यक्ति देने के बाद दूने उत्‍साह के साथ राधा-किसान के प्रेम गीत गाने लगता है। जैसे दिल से कोई बोझ उतर गया। मुझे जब बी मेटफिल्‍म का वो दृश्‍य याद आता है जब नायक नायिका को उसके बेवफा प्रेमी पर अपना भड़ास उतारने को कहता है और नायिका फोन पर पूर प्रवाह के साथ अपना क्रोध उतारते हुए तेरी मां की ..... तक चली जाती है। उसके बाद वह सचमुच रिलेक्‍स महसूस करती है। उसी प्रकार लोक होले डांड में जमकर गाली देने (बकने) के बाद रिलेक्‍स महसूस करते हुए लोक चेतना को जगाने वाले एवं मादक फाग दिन के पहरों में गाता है।



डॉ. पालेश्‍वर शर्मा अपने किताब छत्‍तीसगढ़ के तीज त्‍यौहार और रीतिरिवाज में इन पहलुओं पर बहुत सीमित दृष्टि प्रस्‍तुत करते हैं किन्‍तु वे भी स्‍वीकरते हैं कि लोक साल भर की कुत्‍सा गालियों के रूप में अभिव्‍यक्‍त करता है। जिसे वे अशिष्‍ठ फाग कहते हैं, इसकी वाचिक परंपरा आज भी गावों में जीवंत है और इसे भी सहेजना/लिखा जाना चाहिए। यद्धपि इसे पढ़ना अच्‍छा नहीं लगेगा किन्‍तु परम्‍परागत गीतों के दस्‍तावेजीकरण करने के लिए यह आवश्‍यक होगा। इस संबंध में छत्‍तीसगढ़ी मुहावरों एवं लोकोक्तियों पर पहली पीएचडी करने वाले डॉ.मन्‍नू लाल यदू का ध्‍यान आता है जिन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ के श्‍लील व अश्‍लील दोनों मुहावरों एवं लोकोक्तियों का संग्रह एवं विश्‍लेषण किया। अशिष्‍ठ फाग लिखित रूप में कहीं भी उपलब्‍ध नहीं है। इसमें ज्‍यादातर रतिक्रिया प्रसंगों एवं दमित इच्‍छाओं का लच्‍छेदार प्रयोग होता है। 'चलो हॉं ... गोरी ओ .. तोर बिछौना पैरा के ...' पुरूष अपनी मर्दानगी के डींगें बघारता हुआ नारी के दैहिक शोषण का गीत गाता है। वह अपने गीतों में किसबिन (नर्तकी वेश्‍या) व अन्‍य नारीयों का चयन करता है। बिना नाम लिये गांव के जमीदार, वणिक या ऐसे ही किसी मालदार आसामी के परिवार की नारी के साथ संभोग की बातें करता है। इसका कारण सोंचने व बड़े बुजुर्गों से पूछने पर वे सीधे तौर पर बातें होलिका पर टाल देते हैं कि लोग होलिका को यौनिक गाली देने के उद्देश्‍य से ऐसा करते हैं। किन्‍तु आमा के डारा लहस गे रे, तोर बाम्‍हन पारा, बम्‍हनिन ला  *दंव पटक के रे बाम्‍हन मोर सारा या 'बारा साल के बननिन टूरी डोंगा खोये ला जाए, डोंगा पलट गे, ** चेपट गे, ** सटा-सट जाए'   जैसे गीत पूरे उत्‍साह के साथ जब गाए जाते हैं तब पता चलता है कि लोक अपनी भड़ास आपके सामने ही नि‍कालता है और आप मूक बने रह जाते हैं। अपनी सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं की दुहाई देते हुए। होली है.....  



संजीव तिवारी



राजधानी में पारम्‍परिक नाचा के दीवाने

पिछले दिनों रायपुर के एक प्रेस से पत्रकार मित्र का फोन आया कि संस्‍कृति विभाग द्वारा राजधानी में पहले व तीसरे रविवार को मुख्‍यमंत्री निवास के बाजू में नाचा - गम्‍मत का एक घंटे का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है इस पर आपकी राय क्‍या है तो मैंने छूटते ही कहा था कि छत्‍तीसगढ़ की पारम्‍परिक विधा नाचा रात से आरंभ होकर सुबह पंगपंगात ले चलने वाला आयोजन है जिसमें एक-एक गम्‍मत एक-दो घंटे का होता है आगाज व जोक्‍कड़ों का हास्‍य प्रदर्शन जनउला गीत ही लगभग एक-डेढ़ घंटे का होता है तब कहीं जाकर सिर में लोटा परी दर्शकों के पीछे से गाना गाते प्रकट होती है 'कोने जंगल कोने झाड़ी हो ......' इसके बाद प्रहसन रूप में शिक्षाप्रद कथाओं का गम्‍मतिहा नाट्य मंचन होता है। ऐसे में विभाग के द्वारा इतने सीमित समय में इस आयोजन को समेटने से इसका मूल स्‍वरूप खो सा जायेगा। बात आई-गई हो गई।


आज राजधानी के आनलाईन समाचार पत्रों के पिछले पन्‍ने पलटते हुए इस कार्यक्रम का समाचार नजर आया तो रायपुर में मित्रों को फोन मिलाया और सिंहावलोकन वाले राहुल सिंह जी से इस सफल आयोजन के संबंध में विस्‍तृत जानकारी व फोटो मांग लाया। मित्रों व राहुल सिंह जी से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार रायपुर के नागरी परिवेश में छत्तीसगढ़ की यह संस्कृति जब मंच पर उतरी तो लोग अभिभूत होकर देखते ही रह गए। साज-सज्जा से कोसो दूर होने के बावजूद यह कार्यक्रम जैसे ही शुरू हुआ, लोगों की भीड़ जुटने लगी। इसमें प्रदेश के कलाकारों द्वारा छत्तीसगढ़ की मूल सांस्कृतिक धरोहर नाचा को बेहतरीन तरीके से मंच पर प्रस्तुत किया गया।


शुरुआत लोक गायिका किरण शर्मा द्वारा गणपति वंदना तै मूसुवा में चढ़ के आजा गणपति से हुई। इसके बाद एक से बढ़कर एक लोकगीतों की प्रस्तुतियों ने दर्शकों को बांधे रखा। भरथरी, देवार, नाचा व कर्मा गीतों की प्रस्तुतियों ने लोगों को अपनी माटी की खुशबू को करीब से जानने का मौका दिया। फिर शुरू हुआ हास्य गम्मत प्रहसन का दौर। इसके मुख्य कलाकार रामलाल निर्मलकर की प्रस्तुति को देखने के लिए लोग बेताब नजर आएँ। ये उन चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने हबीब तनवीर के साथ काम किया है। गड़बड़ गपशप शीर्षक पर आधारित इस गम्मत ने जहाँ दर्शकों का मनोरंजन किया, वहीं सशक्त संदेश भी दिया। इसमें पति-पत्नी के बीच किसी तीसरे व्यक्ति की वजह से कलह मच जाती है, पर बाद में सच्चाई पता होने पर उन्हें बहुत पछतावा होता है। इसमें यही संदेश देने की कोशिश की गई, कभी भी दूसरों की बातों में आकर गलतफहमी का शिकार न होवें। इसे कलाकारों ने न केवल अभिनय के जरिए बल्कि नृत्य व संगीत के साथ प्रस्तुत किया।


दर्शकों की उपस्थिति और खासकर बच्‍चों की उत्‍साहपूर्वक सहभागिता ने मानों साबित किया कि टीवी पर ढ़र्रे वाले सतही कार्यक्रम और फूहड़ता को देखना लोगों की मजबूरी है अगर उन्‍हें सहज, सुलभ मनोरंजक सांस्‍कृतिक प्रस्‍तुतियां उपलब्‍ध कराई जाय तो इसकी दर्शक संख्‍या अभी भी कम नहीं. रामलाल, अछोटा, धमतरी पार्टी के साथ, मंदराजी सम्‍मान प्राप्‍त कलाकार मानदास टंडन का गायन व चिकारा वादन, सुश्री किरण शर्मा का लोकगीत गायन व नृत्‍य, लच्‍छी-दुर्योधन की जोड़ी की भी प्रस्‍तुतियां थीं. निरंजन महावर जी और आयुक्‍त संस्‍कृति राजीव श्रीवास्‍तव जी विशेष रूप से उपस्थित रहे. निसार अली ने संयोजन में सहयोग दिया.


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छत्तीसगढ़ी नाचा को मंच देने और लोगों को इससे रूबरू कराने के उद्देश्य से संस्कृति विभाग और नाचा थियेटर द्वारा हर माह के पहले और तीसरे रविवार को यह कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। अगली प्रस्‍तुति में नाचा के साथ छत्‍तीसगढ़ी संस्‍कृति का आनंद लेने के लिये अभी से तैयार रहें ..

'मीराबाई' ममता अहार द्वारा एक पात्रीय संगीत नाटक का मंचन माउन्‍ट आबू में

'नाटय विधा बहुत ही सरल माध्यम है अपनी बात को जन जन तक पहुंचने का । चाहे वह किसी समस्या की बात हो या सामाजिक जन जागरण की बात हो। सामाजिक विसंगतियां लोगों की पीड़ा को लेखन में ढ़ाल कर हास्य व्यंग्य के माध्यम से अपनी बातों को सहजता से लोगों में हास्य रस का संचार करते हुये विषयों के प्रति हृदय में सुप्त उन संवेदनाओं को जागृत करती है जो समाज को एक अच्छी दिशा दे सकते हों। 'यह विचार ममता आहार का है जो एक पात्रीय संगीतमय नाटिका 'मीराबाई' की सफल प्रस्‍तुतियों से क्षेत्र में चर्चित हैं। रायपुर की ममता बच्चों में छिपी प्रतिभा को सामने लाने उन्हें नृत्य अभिनय की बारीकिया सिखाने का कार्य कर उन्हें मंच प्रदान कर रही हैंममता की संस्‍था श्रीया आर्ट हर साल नये प्रयोग कर किसी न किसी समस्या पर केंन्द्रित नाटय लेखन कर बच्चों को अभिनय के साथ सामाजिक संचेतना सिखाती है जिसमें बच्चे केवल अभिनय व नृत्य ही नहीं सीखते बल्कि उनमें आपसी भाईचारे की भावना का विकास होता है। शिविर में आंगिक, वाचिक नाटय सिद्वांत, रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र, स्वर का उपयोग, नाट्य सामग्री का निर्माण, उनका उपयोग आदि का अभ्यास कराया जाता है किसी विषय पर चर्चा तथा अभिनय करने की क्षमता का विकास कराया जाता है जिससे बच्चों में वैचारिक क्षमता, तर्क शक्ति, आत्मविश्वास पैदा होता है और व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

ममता अहार के इस सराहनीय कार्य के साथ ही उनकी एक पात्रीय संगीत नाटिका  'मीरा बाई' को क्षेत्र में बहुत अच्‍छी सराहना मिली है इस कार्यक्रम की लोकप्रियता को देखते हुए छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न नगरों में इसके कई प्रदर्शन हो चुके हैं। डेढ़ घंटे की इस प्रस्‍तुति में राजवंशीय परिवार की मीराबाई, उसकी मॉं, पिता व मीरा के तीन अहम रूपों की भूमिका को स्‍वयं ममता के द्वारा निभाना चुनौतीभरा काम रहा है जिसे ममता नें बखूबी निभाया है। अकेले अदाकारी के बूते लगभग दो घंटे दर्शकों को बांधे रखने की क्षमता इस नाटिका में है,  एकल पात्रीय इस नाटिका में बचपन की मीरा श्रीकृष्‍ण की मूर्ति से प्रेम करती है बालसुलभ बातें भी करती है। दुनिया के रीतिरिवाजों से अनजान मीरा को उनके बड़े जो बताते हैं उसे ही सत्‍य मानकर भक्ति के मार्ग में बढ़ चलती है। इस नाटक में मीरा का प्रभु प्रेम, जीवन संघर्ष, कृष्‍ण भक्ति में लीन नर्तन व सामाजिक रूढि़वाद के विरूद्ध बाह्य आडंबर, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करते हुए मीरा के संर्घष को प्रस्‍तुत किया गया है। मीराबाई के जीवन के पहलुओं को जीवंत प्रस्‍तुत करती इस नाटिका की प्रस्‍तुति दर्शकों में गहरा प्रभाव छोड़ती है। इस नाटिका में संगीत गुणवंत व्‍यास नें दिया है, एवं नाटिका को स्‍वयं ममता नें लिखा है और निर्देशित किया है।

 
कल 30 दिसम्‍बर को माउन्‍ट आबू के शरद महोत्‍सव में ममता का एकल अभिनय 'मीरा बाई' का प्रदर्शन होने जा रहा है समय है संध्‍या 7 से 9. यदि आप माउंट आबू में हैं तो अवश्‍य देखें.

सुआ गीत : नारी हृदय की धड़कन

आज छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग नगर में एक अद्भुत आयोजन हुआ जिसमें परम्‍पराओं को सहेजने की मिसाल कायम की गई, पारंपरिक छत्‍तीसगढ़ी संस्‍कृति से लुप्‍त होती विधा 'सुआ गीत व नाच' का प्रादेशिक आयोजन आज दुर्ग की धरती पर किया गया जिसमें पूरे प्रदेश के कई सुवा नर्तक दलों नें अपना मोहक नृत्‍य प्रस्‍तुत किया। इस आयोजन में एक दर्शक व श्रोता के रूप में देर रात तक उपस्थित रह कर मेरे पारंपरिक मन को अपूर्व आनंद आया। मेरे पाठकों के लिए इस आयोजन के चित्रों के साथ सुआ गीत पर मेरे पूर्वप्रकाशित (प्रिंट मीडिया में, ब्‍लॉग में नहीं) आलेख के मुख्‍य अंशों को यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं -

सुआ गीत : नारी हृदय की धडकन
छत्तीसगढ़ में परम्पराओं की महकती बगिया है जहां लोकगीतों की अजस्र रसधार बहती है। लोकगीतों की इसी पावन गंगा में छत्तीसगढ़ी संस्कृति की स्प्ष्ट झलक दृष्टिगत होती है। छत्तीतसगढ़ में लोकगीतों की समृद्ध परम्परा कालांतर से लोक मानस के कंठ कंठ में तरंगित रहा है जिसमें भोजली, गौरा, सुआ व जस गीत जैसे त्यौहारों में गाये जाने वाले लोकगीतों के साथ ही करमा, ददरिया, बांस, पंडवानी जैसे सदाबहार लोकगीत छत्तीसगढ़ के कोने कोने से गुंजायमान होती है। इन गीतों में यहां के सामाजिक जीवन व परम्पराओं को भी परखा जा सकता है। ऐसे ही जीवन रस से ओतप्रोत छत्तीसगढ़ी लोकगीत है 'सुआ गीत' जिसे वाचिक परम्परा के रूप में सदियों से पीढी दर पीढी यहां की नारियां गाती रही हैं।
पारम्‍परिक भारतीय संस्कृत-हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में सुक का मुख्य स्थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने व खासकर कन्याओं के प्रिय होने के कारण शुक नारियों का भी प्रिय रहा है। मनुष्य की बोली की नकल उतारने में सिद्धस्थ इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने दिल की बात ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस’ कहकर वियोगिनी नारी यह संतोष करती रही कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुच रही है। कालांन्तर में सुआ के माध्यम से नारियों की पुकार और संदेश गीतों के रूप में गाये जाने लगे और प्रतीकात्मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते नें ले लिया, भाव कुछ इस कदर फूटते गये कि इसकी लयात्मकता के साथ नृत्य भी जुड गया।
सुआ गीत मूलत: गोंड आदिवासी नारियों का नृत्य गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियां ही गाती हैं । यह संपूर्ण छत्तीसगढ़ में दीपावली के पूर्व से गाई जाती है जो देवोत्थान (जेठउनी) एकादशी तक अलग-अलग परम्पराओं के अनुसार चलती है। सुवा गीत गाने की यह अवधि धान के फसल के खलिहानों में आ जाने से लेकर उन्हारी फसलों के परिपक्वता के बीच का ऐसा समय होता है जहां कृषि कार्य से कृषि प्रधान प्रदेश की जनता को किंचित विश्राम मिलता है।
सुआ सामूहिक गीत नृत्य है इसमें छत्तीसगढ़ की नारियां मिट्टी से निर्मित सुआ को एक टोकरी के बीच में रख कर वृत्ताकार रूप में खडी होती हैं। महिलायें सुआ की ओर ताकते हुए झुक-झुक कर चक्राकार चक्कर लगाते, ताली पीटते हुए नृत्य करते हुए गाती हैं। ताली एक बार दायें तथा एक बार बायें झुकते हुए बजाती हैं, उसी क्रम में पैरों को बढाते हुए शरीर में लोच भरती हैं।
गीत का आरम्भ ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना ....’ से एक दो नारियां करती हैं जिसे गीत उठाना कहते हैं । उनके द्वारा पदों को गाने के तुरन्त, बाद पूरी टोली उस पद को दुहराती हैं। तालियों के थप थप एवं गीतों के मधुर संयोजन इतना कर्णप्रिय होता है कि किसी भी वाद्य यंत्र की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। संयुक्त स्वर लहरियां दूर तक कानों में रूनझुन करती मीठे रस घोलती है।
गीतों में विरह के मूल भाव के साथ ही दाम्पत्य बोध, प्रश्नोत्तनर, कथोपकथन, मान्यताओं को स्वींकारने का सहज भाव पिरोया जाता है जिसमें कि नारियों के बीच परस्पर परंम्‍परा व मान्यताओं की शिक्षा का आदान प्रदान सहज रूप में गीतों के द्वारा पहुचाई जा सके। अपने स्व‍प्न प्रेमी के प्रेम में खोई अविवाहित बालायें, नवव्याही वधुयें, व्यापार के लिए विदेश गए पति का इंतजार करती व्याहता स्त्रियों के साथ जीवन के अनुभव से परिपूर्ण वयस्क महिलायें, सभी वय की नारियां सुवा गीतों को गाने और नाचने को सदैव उत्सुक रहती हैं । इसमें सम्मिलित होने किशोरवय छत्तीसगढी कन्या अपने संगी-सहेलियों को सुवा नृत्य हेतु जाते देखकर अपनी मां से अनुनय करती है कि उसे भी सुवा नाचने जाना है इसलिए वह मां से उसके श्रृंगार की वस्तुएं मांगती है। ‘देतो दाई देतो तोर गोड के पैरी, सुवा नांचे बर जाहूं’ यह गीत प्रदर्शित करता है कि सुवा गीत-नृत्य में नारियां संपूर्ण श्रृंगार के साथ प्रस्तुत होती थीं।
संपूर्ण भारत में अलग अलग रूपों में प्रस्तुंत विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीतों में एक जन गीत जिसमें नवविवाहित कन्यां विवाह के बाद अपने बाबुल के घर से अपने सभी नातेदारों के लिवाने आने पर भी नहीं जाने की बात कहती है किन्तु पति के लिवाने आने पर सहर्ष तैयार होती है। इसी गीत का निराला रूप यहां के सुआ गीतों में सुनने को मिलता है। यहां की परम्परा एवं नारी प्रधान गीत होने के कारण छत्तीसगढी सुवा गीतों में सास के लेने आने पर वह नवव्याही कन्या जाने को तैयार होती है क्योंकि सास ससुराल के रास्ते में अक्ल बतलाती है, परिवार समाज में रहने व चलने की रीति सिखाती है -
अरसी फूले सुनुक झुनुक गोंदा फुले छतनार, 
रे सुआना कि गोंदा फुले छतनार 
वोहू गोंदा ला खोंचे नई पायेंव, 
आगे ससुर लेनहार ...... 
ससुरे के संग में नि जाओं ओ दाई, 
कि रद्दा म आंखी बताथे 
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे देवर लेनहार 
देवर संग में नी जाओं दाई, 
कि रद्दा म ठठ्ठा मढाथे 
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे सैंया लेनहार
सैंया संग में नी जाओं वो दाई, 
कि रद्दा म सोंटा जमाथे
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे सास लेनहार 
सासे संग में तो जाहूं ओ दाई, 
कि रद्दा म अक्काल बताथे 
रे सुआ ना कि रद्दा म अक्काल बताथे .........
पुरूष प्रधान समाज में बेटी होने का दुख साथ ही कम वय में विवाह कर पति के घर भेज देने का दुख, बालिका को असह होता है। ससुराल में उसे घर के सारे काम करने पडते हैं, ताने सुनने पडते हैं। बेटी को पराई समझने की परम्परा पर प्रहार करती यहां की बेटियां अपना दुख इन्हीं गीतों में पिराते हुए कहती हैं कि मुझे नारी होने की सजा मिली है जो बाबुल नें मुझे विदेश दे दिया और भाई को दुमंजिला रंगमहल । छत्तीसगढी लोक गीतों में बहुत बार उपयोग में लिया गया और समस समय पर बारंबार संदर्भित बहुप्रचलित एक गीत है जिसमें नारी होने की कलपना दर्शित है -
पइयां परत हौं मैं चंदा सुरूज के, 
रे सुवना तिरिया जनम झनि देय 
तिरिया जनम मोर अति रे कलपना, 
रे सुवना जहंवा पठई तहं जाए 
अंगठी मोरी मोरी, घर लिपवावै, रे सुवना 
फेर ननंद के मन नहीं आए 
बांह पकरि के सैंया घर लाये, 
रे सुवना ससुर ह सटका बताय 
भाई ल देहे रंगमहलवा दुमंजला, 
रे सुवना हमला तो देहे बिदेस
ससुराल में पति व उसके परिवार वालों की सेवा करते हुए दुख झेलती नारी को अपने बाबुल का आसरा सदैव रहता है वह अपने बचपन की सुखमई यादों के सहारे जीवन जीती है व सदैव परिश्रम से किंचित विश्राम पाने अपने मायके जाने के लिए उद्धत रहती है। ऐसे में जब उसे पता चलता है कि उसका भाई उसे लेने आया है तब वह अपने ससुराल वालों से विनती करती है कि ‘उठव उठव ससुर भोजन जेवन बर, मोर बंधु आये लेनहार’ किन्तु उसे घर का सारा काम काज निबटाने के बाद ही मायके जाने की अनुमति मिलती है। कोयल की सुमधुर बोली भी करकस लग रही है क्योंकि नायिका अपने भाई के पास जाना चाहती है। उसने पत्र लिख लिख कर भाई को भेजे हैं कि भाई मुझे लेने आ जाओ। सारी बस्ती सो रही है किन्तु भाई भी अपनी प्यारी बहन के याद में सो नहीं पा रहा है -
करर करर करे कारी कोइलिया 
रे सुवना कि मिरगा बोले आधी रात 
मिरगा के बोली मोला बड सुख लागै 
रे सुवना कि सुख सोवे बसती के लोग 
एक नई सोवे मोर गांव के गरडिया 
रे सुवना कि जेखर बहिनी गए परदेश 
चिठी लिख लिख बहिनी भेजत हे 
रे सुवना कि मोरे बंधु आये लेनहार
छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीतों में पुरूष को व्यापार करने हेतु दूर देश जाने का उल्लेख बार बार आता है। अकेली विरहाग्नि में जलती नारी अपने यौवन धर्म की रक्षा बहु विधि कर रही है किन्तु मादक यौवन सारे बंद तोडने को आतुर है ‘डहत भुजावत, जीव ला जुडावत, रे सुवना कि चोलिया के बंद कसाय’। ऐसे में पति के बिना नारी का आंगन सूना है, महीनों बीत गए पर पति आ नहीं रहा है। वह निरमोही बन गया है उसे किसी बैरी नें रोक रखा है, अपने मोह पाश में जकड रखा है । इधर नारी बीड़ी की भांति जल जल कर राख हो रही है । पिया के वापसी के इंतजार में निहारती पलके थक गई हैं। आसरा अब टूट चुका है, विछोह की यह तड़फ जान देने तक बढ गई है ‘एक अठोरिया में कहूं नई अइहव, रे सुवना कि सार कटारी मर जांव’ कहती हुई वह अब दुख की सीमा निर्धारित कर रही है।
दिल्ली छै में सुवासित छत्तीसगढ़ी लोक गीत के भाव सुवा गीतों में भी देखने को मिलता है जिसमें विवाह के बाद पहली गौने से आकर ससुराल में बैठी बहु अपने पिया से सुवा के माध्यम से संदेशा भेजती है कि आप तो मुझे अकेली छोडकर व्यापार करने दूर देश चले गये हो। मैं किसके साथ खेलूंगी-खाउंगी, सखियां कहती हैं कि घर के आंगन में तुलसी का बिरवा लगा लो वही तुम्हारी रक्षा करेगा और वही तुम्हारा सहारा होगा –
पहिली गवन के मोर देहरी बैठारे, 
वो सुवना छाडि पिया गये बनिज बैपार 
काखर संग खेलिहौं काखर संग खइहौं, 
कि सुवना सुरता आवत है तुहांर 
अंगना लगा ले तैं तुलसी के बिरवा, 
रे सुवना राखही पत ला तुम्हार
देवर भाभी के बीच की चुहल व देवर को नंदलाल की उपमा देकर अद्भुत प्रेम रस बरसाने वाली छत्तीसगढ़ की नारियां देवर की उत्सुकता का सहज उत्तर देते हुए छोटे देवर को अपने बिस्तर में नहीं सोने देने के कारणों का मजाकिया बखान करते हुए कहती है कि मेरे पलंग में काली नाग है, छुरी कटारी है । तुम अपने भईया के पलंग में सोओं। देवर के इस प्रश्न पर कि तुम्हारे पलंग में काली नाग है तो भईया कैसे बच जाते हैं तो भाभी कहती है कि तुम्हारे भईया नाग नाथने वाले हैं इसलिए उनके प्राण बचते हैं –
तरी हरी नाना न नाना सुआ ना, 
तरी हरि नाह ना रे ना 
अंगरी ला मोरी मोरी देवता जगायेंव 
रे तरि हरि नाह ना रे ना 
दुर रे कुकुरवा, दुर रे बिलईया, 
कोन पापी हेरथे कपाट 
नों हंव कुकुरवा में नों हंव बिलईया, 
तोर छोटका देवर नंदलाल 
आये बर अइहौ बाबू मोर घर मा, 
फेर सुति जइहौ भईया के साथ 
भईया के पलंग भउजी भुसडी चाबत हैं, 
तोरे पलंग सुख के नींद 
मोरे पलंग बाबू छूरी कटारी, 
सुन ले देवर नंदलाल 
हमरे पलंग बाबू कारी नागिन रे, 
फेर डसि डसि जिवरा लेवाय 
तुंहरे पलंग भउजी कारी रे नांगिन, 
फेर भईया ल कईसे बंचाय 
तुंहरे भईया बाबू बड नंगमतिया, 
फेर अपने जियरा ला लेथे बंचाय ....
छत्तीसगढ़ में दो-तीन ऐसे सुआ गीत पारंपरिक रूप से प्रचलित हैं जिनमें इस काली नाग के संबंध में विवरण आता है। यह वही काली नाग है जो व्यापार के लिए दूर देश गए पिया के बिना अकेली नारी की रक्षा करती है। यह काली नागिन उसका विश्वास है, उसके अंतरमन की शक्ति है -
छोटका देवर मोर बडा नटकुटिया, 
रे सुवना छेंकत है मोर दुवार 
सोवा परे म फरिका ला पेलै, 
रे सुवना बांचिहै कइसे धरम हमार 
कारी नागिन मोर मितानिन, 
रे सुवना रात रहे संग आय
कातिक लगे तोर अइहैं सजनवा, 
रे सुवना जलहि जोत बिसाल
स्त्री सुलभ भाउकता से ओतप्रोत ऐसे ही कई सुवा गीत छत्तीसगढ़ में प्रचलित है, जिनको संकलित करने का प्रयास हेमनाथ यदु व कुछेक अन्य लोककला के पुरोधा पुरूषों नें किया है। इन गीतों का वास्तविक आनंद इनकी मौलिकता व स्वाभाविकता में है जो छत्तीगढ़ के गांवों में देखने को मिलता है।
रंग बिरंगी – रिंगी चीगी वस्त्रों से सजी धजी नारियां जब सुवा गीतों में विरह व दुख गाते हुए अपने दुखों को बिसरा कर नाचती हैं तो संपूर्ण वातावरण सुरमई हो जाता है। गीतों की स्वाभाविक सहजता व सुर मन को मोह लेता है और मन कल्पना लोक में इन मनभावन ललनाओं के प्रिय सुवा बनकर घंटों इनका नृत्य देखने को जी करता है। इस भाग-दौड व व्यस्त‍ जिन्दगी में अपने परिवेश से जोडती इन जड़ों में जड़वत होकर कल कल बहती लोकरंजन गीतों की नदियों का जल अपने रगो में भरने को जी चाहता है। क्योंकि समय के साथ साथ सरकती सभ्यता और संस्कृति में आदिम जीवन की झलक ऐसे ही लोकगीतों में दिखाई देती है ।

संजीव तिवारी

" बने करे राम मोला अन्धरा बनाये " यह गीत छत्तीसगढ से ट्रेन से गुजरते हुए आपने भी सुना होगा

कल के मेरे पोस्ट पर शरद कोकाश भैया की टिप्पणी प्राप्त हुई कि रामेश्वर जी से सम्पर्क करो और उनकी कविता " बने करे राम मोला अन्धरा बनाय " की रचना की प्रष्ठ्भूमि सहित प्रस्तुत करो .. उनसे पूछना ज़ोरदार किस्सा सुनयेंगे । तो हम रामेश्वर वैष्णव जी की वही कविता आडियो सहित यहॉं प्रस्तुत कर रहे है -
भूमिका इस प्रकार है कि एक बार रामेश्वर वैष्णव जी रेल में रायपुर से बिलासपुर की ओर यात्रा कर रहे थे तो रेल में एक अंधा भिखारी उन्हे गीत गाते भीख मांगते हुए मिला. वह अंधा भिखारी रामेश्वर वैष्णव जी द्वारा लिखित 'कोन जनी काय पाप करे रेहेन' गीत गा रहा था; रामेश्वर वैष्णव जी को आश्चर्य हुआ और उन्होनें उस अंधे भिखारी को अपने पास बुलाकर बतलाया कि जिस गीत को तुम गा रहे हो उसे मैनें लिखा है यह मेरा साहित्तिक गीत है इसे गाकर तुम भीख मत मांगो भईया. पहले तो अंधे भिखारी को खुशी हुई कि तुम ही रामेश्वर वैष्णव हो. फिर भिखारी नें कहा कि इस गीत को गाते हुए बहुत दिन हो गए है और वैसे भी अब इस गीत से ज्यादा पैसे नहीं मिलते इसलिए आप मेरे लिए कोई दूसरा गीत लिख दीजिये.
अंधे भिखारी नें गीत में चार आवश्यक तत्वो को समावेश करने का भी अनुरोध किया. पहला - गीत में हास्य व्यंग्य होना चाहिए यानि हमारे देश का भिखारी भी हास्य व्यंग्य समझता है. दूसरा - देश दुनिया में जो हो रहा है उसे लिखें. तीसरा - गाना ऐसा लिखें कि सुनने वाला फटाक से पैसा निकाल कर मुझे धरा दें यानी करूणा होनी चाहिए. चौंथा - मेरा नाम बाबूलाल है उसे जोडियेगा. रामेश्वर वैष्णव जी छत्तीसगढी गीतों के लिए जाने माने नाम हैं ऐसे में उन्होनें उस भिखारी के अनुरोध को स्वीकार किया और गीत मुखरित हुई जिसे आप लोग भी सुने. हो सकता है कि छत्तीसगढ से ट्रेन से गुजरते हुए रायपुर से बिलासपुर की यात्रा के दौरान आपने भी इस अन्धे भिखारी को देखा होगा और यह गीत सुना होगा. यह गीत सरल छत्तीसगढी भाषा में है इसकी अनुवाद करने की आवश्यकता नहीं है, इसे आप सुने गीत आपको समझ में भी आयेगी और व्यवस्था पर चोट करती रामेश्वर वैष्णव जी की बानगी आपको गुदगुदायेगी.


संजीव तिवारी

रामेश्वर वैष्णव की अनुवादित हास्य कविता मूल आडियो सहित

रामेश्वर वैष्णव जी  छत्तीसगढ के जानेमाने गीत कवि है, इन्होने हिन्दी एव छत्तीसगढी मे कई लोकप्रिय गीत लिखे है. कवि सम्मेलनों मे मधुर स्वर मे वैष्णव जी के गीतो को सुनने में अपूर्व आनन्द आता है. वैष्णव जी का जन्म 1 फरवरी 1946 को खरसिया मे हुआ था. इन्होने अंग्रेजी मे एम.ए. किया है और डाक तार विभाग से सेवानिवृत है. इनकी प्रकाशित कृतियो मे पत्थर की बस्तिया, अस्पताल बीमार है, जंगल मे मंत्री, गिरगिट के रिश्तेदार, शहर का शेर, बाल्टी भर आंसू, खुशी की नदी, नोनी बेन्दरी, छत्तीसगढी महतारी महिमा, छत्तीसगढी गीत आदि है. 
मयारु भौजी, झन भूलो मा बाप ला, सच होवत सपना, गजब दिन भइ गे सहित कई छत्तीसगढी फिल्मो का इन्होने लेखन किया है. वैष्णव जी छत्तीसगढ के कई सांसकृतिक संस्थाओ से भी सम्बध है. इनकी छत्तीसगढी हास्य कविताओं के लगभग 20 कैसेट्स रिलीज हो चुके है . आज भी रामेश्वर वैष्णव जी निरंतर लेखन कर रहे है.  इन्हे मध्यप्रदेश लोकनाट्य पुरस्कार, मुस्तफ़ा हुसैन अवार्ड 2001, श्रेष्ठ गीतकार अवार्ड और अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके है. 
वैष्णव जी की एक छत्तीसगढी हास्य कविता का आडियो अनुवाद सहित हम यहा प्रस्तुत कर रहे है, मूल गीत गुरतुर गोठ में उपलब्‍ध है. भविष्य मे हम इनकी हिन्दी कविताओ को भी प्रस्तुत करेंगे -
पैरोडी - तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्‍या निभाओगे (अलताफ़ राजा)

बस मे मैं कब से खडा हूँ मुझे बैठने की जगह दे दो
ले दे के घुस पाया हूँ मुझे निकलने के लिये जगह दे दो
भीड मे मै दबा हूँ सास लेने के लिये तो जगह दो
मै तो सास लेने का प्रयाश कर रहा हूँ
तुम कितना धक्का दे रहो हो
मै भीड मे दबा हूँ सास लेने के लिये तो जगह दे दो
भेड बकरियो की तरह आदमियो को बस मे भर डाले हो
ये समधी जात भाई मेरी लडकी के लिये 
लडका भले तुम ना दो पर मुझे सीट तो दे दो 
बस मे खडा यह लडका मिर्च का भजिया खाया है, 
इसका पेट खराब है, इसका कोई भरोसा नही है, 
दौड कर जावो, जल्दी इसे दवा तो दे दो

रामेश्वर वैष्णव

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...