'कोटकोट' और 'परसाही' Chhattisgarhi Word

पिछली पोस्ट के लिंक में पाटन, छत्तीसगढ़ के मुनेन्द्र बिसेन भाई ने फेसबुक Facebook में कमेंट किया और मुहावरे को पूरा किया 'कोटकोट ले परसाही त उछरत बोकरत ले खाही'. इसमें दो छत्तीसगढ़ी शब्द और आए जिसे स्पष्ट करना आवश्यक जान पड़ा, तो लीजिए 'कोटकोट' और 'परसाही' शब्द के संबंध में चर्चा करते हैं.

शब्दकोश शास्त्री चंद्रकुमार चंद्राकर जी संस्कृत शब्द 'कोटर' (खोड़र) के साथ 'ले' को जोड़कर 'कोटकोट' का विश्लेषण करते हैं, इसके अनुसार वे 'कोटकोट' को क्रिया विशेषण मानते हुए इसका अर्थ खोड़र, गड्ढा या किसी गहरे पात्र के भरते तक, पेट भरते तक, पूरी क्षमता तक, बहुत अधिक बतलाते हैं. इसी से बना शब्द 'कोटना' है जो नांद, पशुओं को चारा देने के लिए पत्थर या सीमेंट से बने एक चौकोर एवं गहरा पात्र है. मंगत रवीन्द्र जी ताश के खेल में प्रयुक्त शब्द 'कोट होना' का भी उल्लेख करते हैं जिसका अर्थ पूरी तरह हारना है, वे करोड़ों में एक के लिए 'कोटम जोट' शब्द का प्रयोग करते हैं जो कोट को कोटिकोटि का समानार्थी बनाता है. छत्तीसगढ़ में हिरण की छोटी प्रजाति को 'कोटरी' कहा जाता है, गांव का चौकीदार, राजस्व विभाग का निम्नतम गामीण कर्मचारी जो गांव की चौकसी भी करता हो उसे 'कोटवार' कहते हैं. इस प्रकार से 'कोटकोट' मतलब पेट भरते तक, पूरी क्षमता तक से है.

शब्द 'परसाही' परसना से बना है जो संस्कृत शब्द परिवेषण व हिन्दी परोसना से आया है जिसका अर्थ है भोजन परोसना. इसी से 'परसाद' और 'परसादी' बना है जो संस्कृत के का समानार्थी बनाता है. दूसरों की खुशी या दूसरों के बदौलत, कृपा पर प्राप्त वस्तु या पद आदि को 'परसादे' कहा जाता है. 'पर' का अर्थ ही दूसरे का या अन्य से है. पर से बने अन्य शब्दों में बाजू वाले घर को 'परोस', पलाश के वृक्ष को 'परसा', बरामदा को 'परसार, 'थाली या पत्तल में एक बार दिया गया भोजन 'परोसा' (एक परोसा) कहलाता है (First round of service) कहा जाता है. बेचैन, व्यग्र परेशान के लिए अपभ्रंश 'परसान' शब्द प्रयुक्त होता है. इस प्रकार से मुहावरे में प्रयुक्त शब्द परोसना का अर्थ भोजन परोसना से ही है.


छत्तीसगढ़ी शब्दों पर आधारित यह श्रृंखला छत्तीसगढ़ी के वि​भिन्न शब्दकोशों, ज्ञानकोशों एवं व्याकरण से संबंधित ग्रंथों एवं आलेखों को संदर्भ में लेते हुए लिखा जा रहा है जिनके रचनाकार डॉ.पालेश्वर शर्मा जी, डॉ.चित्तरंजन कर जी, श्री चंद्रकुमार चंद्राकर जी, डॉ.महावीर अग्रवाल जी, डॉ.सुधीर शर्मा जी, डॉ.सत्यभामा आडिल जी, डॉ.हीरालाल शुक्ल श्री नंदकुमार तिवारी जी आदि हैं. पूर्व कोश संग्रहकर्ताओं यथा भालचंद्र राव तैलंग जी, डॉ.शंकर शेष, डॉ.लक्ष्मण प्रसाद नायक, डॉ.कांतिकुमार जी, डॉ.नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ.व्यासनारायण दुबे आदि के लिखे कोश/ग्रंथ के संदर्भ मात्र उपलब्ध हैं मूल ग्रंथों की आवश्यकता है. पाठकों से अनुरोध है कि मुझे टिप्पणियों में छत्तीसगढ़ी शब्दों के ज्ञान वृद्धि के लिए ग्रंथ सुझाएं एवं उसकी उपलब्धता के संबंध में भी बतलाएं.

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...