दलित साहित्य और दलित विमर्श का विषय हमारे जैसे अल्पज्ञों के समझ से अभी दूर है। फिर भी थोडा बहुत जो अध्ययन है उसके अनुसार से यह प्रतीत होता है कि इस विषय को वामपंथ ने 'हैक' कर रखा है। इस विषय पर दक्षिणपंथ का या तो ज्यादा योगदान नहीं है या फिर उनके लेखन को जानबूझ कर हासिए पर धर दिया गया है। इस पर आप का क्या विचार है ?
मेरे इस प्रश्न का उत्तर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता, पूर्व सांसद, विचारक एवं लेखक डॉ.विजय सोनकर शास्त्री ने विभिन्न उदाहरणों के साथ विस्तार से दिया। उनकी बातों में से कुछ कड़ियाँ रिकार्ड हो पाई जिसमे से एक, यह कि, आधुनिक समय में वेद पर तर्क से ज्यादा कुतर्क हुए। दूसरा यह कि, मुस्लिम आक्रमणकारियों, शासको और अंग्रेजो नें तथाकथित दलित समाज का बीज अपने स्वार्थ के कारण बोया। और तीसरा यह कि, कागजो में दलित विमर्श करने के बजाय दलितों की समस्याओं को दूर करने, उन्हें मुख्य धारा में लाने का प्रयास होना चाहिए।
डॉ. शास्त्री ने वेद, विज्ञान, समरस समाज सहित दलित समाज पर बीसियों ग्रन्थ लिखे हैं। कल दुर्ग में हमारी संस्था टोटल लाइफ़ फाउंडेशन के द्वारा आयोजित एक अखिल भारतीय व्याख्यान में वक्ता के रूप में वे आमंत्रित थे। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता डॉ.सच्चिदानंद जोशी, कुलपति पत्रकारिता वि.वि.रायपुर थे जिन्होंने प्रकृति, पर्यावरण और भारतीय संस्कृति पर सारगर्भित वक्तव्य दिया। डॉ. जोशी एवं डॉ.शास्त्री के व्याख्यान पर चर्चा फिर कभी।
अभी यह कि, दोपहर डॉ.शास्त्री के साथ दुर्ग पत्रकार संघ का प्रेस वार्ता हुआ। वार्ता के अंत में एक तिलकधारी पत्रकार नें मुझसे डॉ.शास्त्री का पूरा नाम पूछा। मैंने बताया, वो 'सोनकर' पर अटक गए। मैंने उनके सम्बन्ध में जब संक्षिप्त परिचय दिया तो वे 'शास्त्री' पर व्यंग मुस्कान बिखेरते हुये, 'खटिक' को स्थापित करते रहे। उनकी घडी स्वल्पाहार तक उसी शब्द पर अटकी रही। हालाँकि, किसी भी पत्रकार नें उसकी बातों को तूल नहीं दिया .. किन्तु .. दलित विमर्श ... द्वन्द जारी रहा।
तमंचा रायपुरी