दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना

इस छत्तीसगढ़ी मुहावरे का भावार्थ है संभावनाओं पर कार्य करना. आईये अब इस मुहावरे में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'दहरा' एवं 'बाढ़ी' का विश्लेषण करें.

पानी भरे हुए खाई को हिन्दी में 'दहर' कहा जाता है. यही दहर अपभ्रंश में 'दहरा' में बदल गया होगा. छत्तीसगढ़ी में गहरा जलकुण्ड या नदी के गहरे हिस्से को 'दहरा' कहा जाता है. दहरा से संबंधित एक और मुहावरा है 'दहरा के दहलना : डर या भय से कॉंपना'. इस मुहावरे में प्रयुक्त शब्दों का आशय बताते हुए शब्दशास्त्रियों का अभिमत है कि संस्कृत के अकर्मक क्रिया 'दर' जिसका आशय 'डर' है से 'दहरा' बना है. 'दहरा के दहलना' में प्रयुक्त भावार्थ के अनुसार 'दहरा' का आशय डर का प्रयोग छत्तीसगढ़ी में बहुत कम होता है. सामान्य सोंच के अनुसार देखें तो गहरा से दहरा बना होगा यह प्रतीत होता है.

'बाढी' शब्द हिन्दी के बढ़ से बना है. इसके नजदीकी शब्दों में 'बाढ़' का आशय बढ़ने की क्रिया या भाव, वृद्धि है. अधिक वर्षा आदि के कारण नदी का बढ़ा हुआ जल स्तर को भी हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में 'बाढ़' कहा जाता है. मान, योग्यता, अधिकार, मात्रा, संख्या आदि में वृद्धि को 'बाढ़ना' कहा जातजा है. धान को नापते समय बाढ़े सरा इसी उद्देश्य से कहा जाता है.

मूल में वृद्धि का यह भाव छत्तीसगढ़ में ऋण के लिए भी प्रयुक्त होता है. पारंपरिक रूप से धान्य उत्पादन क्षेत्र होने के कारण यहां लेन देन में मुद्रा के स्थान पर धान का प्रयोग होते रहा है. लोग ऋण में धान लेते रहे हैं, ऋण की पद्धतियों में जैसे साधारण ब्याज व चक्रवृद्धि ब्याज दर की पद्धति प्रचलित है. उसी प्रकार से छत्तीसगढ़ में ऋण के रूप में अन्न लेने की वह पद्धति जिसमें दिए गए मात्रा को बढ़ाकर अन्न के रूप में ही लौटाया जाता है वह 'बाढ़ी' कहलाता है.


छत्तीसगढ़ी के कई लोकगीतों और लोककथाओं में 'दहरा के भरोसे बाढ़ी खाने' का जिक्र आता है. इतिहास बताता है कि कृषि प्रधान छत्तीसगढ़ में कई बार भीषण अकाल पड़े, अकाल की निरंतरता रही. ऐसी स्थिति में लोग खाने के लिए तो अनाज ऋण में लेते ही थे साथ ही खेत में बीज बोने के लिए भी अनाज ऋण में लेते थे. वस्तु के अभाव में उसकी कीमत में वृद्धि के सिद्धांत के अनुसार ऋण देने वाला उस अनाज की मात्रा का डेढ़ा, दुगना वापसी की शर्त पर लोगों को अनाज देता था. लोग इस भरोसे पर कि चलो इस साल अच्छे पैदावार होनें पर ऋण लौटा ही देंगें सोंचकर ऋण लेते थे. संभावना के इस भाव से ही यह मुहावरा बना है.

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...