भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 एक स्वागतेय प्रयास

लोकसभा नें भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 पास कर दिया. यह एक स्वागतेय शुरूआत है, 119 वर्ष पुराने कानून का आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक था. केन्द्र सरकार नें ड्राफ्ट बिल को प्रस्तुत करते हुए बहुविध प्रचारित किया कि इसमें किसानों के हितों का पूर्ण संरक्षण किया गया है, किन्तु पास हुए बिल में कुछ कमी रह गई है. इस पर विस्तृत चर्चा बिल के राजपत्र में प्रकाशन के बाद ही की जा सकती है. छत्तीसगढ़ में मौजूदा कानून के तहत निचले न्यायालयों में लंबित अर्जन प्रकरणों में बतौर अधिवक्ता मेरे पास लगभग दो सौ एकड़ रकबे के प्रकरण है, यह पूरे प्रदेश में रकबे के अनुपात में सर्वाधिक है. इसलिये मुझे इस बिल में इसके निर्माण के सुगबुगाहट के समय से ही रूचि रही है. इस रूचि के अनुसार तात्कालिक रूप से नये बिल में पास की गई जो बातें उभर कर आ रही है एवं बिल के ड्राफ्ट रूप में जो बदलाव किए गए हैं उन पर कुछ चर्चा करते हैं.

यह स्पष्ट है कि भूमि संविधान के समवर्ती सूची में होने के कारण राज्य सरकार का विषय है, राज्य सरकारों को भूमि के संबंध में कानून बनाने की स्वतंत्रता है किन्तु भूमि अधिग्रहण के मामलों में इस बिल को बनानें वाली समिति नें यह स्पष्ट किया था कि इस बिल के प्रावधानों को स्वी‍कारते हुए ही राज्यो सरकारें अपने स्वयं का कानून बना सकेंगीं. यानी यह बिल राज्य सरकार के लिए एक प्रकार का दिशा निर्देश है, उसे इस बिल के मानदंडो के अंतर्गत ही फैसले लेनें होंगें, उन्हें भूमि मालिकों के हितों को अनदेखा करने की व्यापक स्वतंत्रता नहीं होगी.

बिल के ड्राफ्ट में ही यह स्पष्ट था कि पुराने कानून की धारा 17 के प्रावधानों को समाप्त किया जा रहा है. पुराने कानून के इस धारा की आड़ में राज्य सरकार आवश्यकता की परिभाषा स्वमेव गढ़ते हुए किसानों की जमीन दादागिरी करके छीन लेती थी. इस नये बिल में अब सरकार ऐसा नहीं कर सकेगी, अब सिर्फ दो स्थितियों पर अनिवार्य भूमि अर्जन हो सकेगा एक तो राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित आवश्यकता और दूसरी प्राकृतिक आपदा से निर्मित आवश्यकता पर. सरकारें अग्रेजी के 'डोमेन' शब्द का लब्बोलुआब प्रस्तुत करते हुए कहती थी कि 'सबै भूमि सरकार की', हमें आवश्यकता है तुम तो सिर्फ नामधारी हो असल मालिक तो हम हैं और किसान हाथ मलते रह जाता था. संभावित अधिग्रहण क्षेत्र का किसान कानूनी विरोध करने के बावजूद हमेशा डरते रहते थे कि कलेक्टर उसकी भूमि को धारा 17 के दायरे में ना ले ले. अब इस कानून के आने से किसानों को अनिवार्य अर्जन के डर से मुक्ति मिलेगी.

बिल में यह प्रावधान है कि पीपीपी परियोजनाओं और निजी कम्पेनियों के लिए अधिग्रहण प्रस्ताव के पूर्व सरकार को ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम पंचायतों के माध्यम से अस्सी प्रतिशत एवं शहरी क्षेत्रों में स्थानीय अधिकरणों के माध्यम से सत्तर प्रतिशत भूमि स्वामियों की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक होगा. यह प्रावधान भूमि स्वामियों को अधिग्रहण के पूर्व सुने जाने का बेहतर अवसर प्रदान करता है. मौजूदा कानून में भूमि स्वामी को अपनी भूमि के छिन जाने का भान तब होता है जब धारा 4, 6 या धारा 17 का प्रकाशन होता था. कई कई बार तो भू स्वामी को इस प्रकाशन के संबंध में भी जानकारी ही नहीं हो पाती थी और उसकी जमीन छीन ली जाती थी. इस नये कानून के बाद किसानों को राहत मिलेगी और वे अपनी भूमि को देने या नहीं देने के संबंध में आकलन समिति के समक्ष अपना मन बना पायेंगें या अपना प्राथमिक विरोध दर्ज कर पायेंगें.

यह प्रश्न भी अभी उभर रहे हैं कि वर्तमान में भूमि अर्जन से संबंधित अन्य बहुत सारे केन्द्रीय अधिनियम भी प्रभावी हैं ऐसे में इस बिल के प्रभावी होने पर कानूनी अड़चने आयेंगी. राज्य सरकारें दूसरे अधिनियम का सहारा लेते हुए अधिग्रहण करेंगीं और यह बिल निष्प्रभावी हो जायेगा. इस संभावना से मुकरा नहीं जा सकता किन्तु केन्द्र सरकार का कहना है कि शीघ्र ही इन सभी अधिनियमों में संशोधन कर, वर्तमान बिल को केन्द्रीय प्रभाव में लाया जावेगा. यदि ऐसा होगा तभी पूरी तरह से इस बिल के प्रावधानों पर सफलता समझी जावेगी.

इस बिल के संबंध में आशान्वित लोगों का कहना था कि ग्रामीण क्षेत्र में भूमि का चार गुना और शहरी क्षेत्र में दो गुना मुआवजा प्राप्त होगा. केन्द्र सरकार भी इसके लिए प्रतिबद्ध नजर आ रही थी, डुगडुगी भी बजा रही थी किन्तु पास बिल के प्रावधान के अनुसार जिस प्रकार से इस मसले को राज्य सरकार के झोले में डाला गया है वह चिंतनीय है. ड्राफ्ट बिल के अनुसार मुआवजा आंकलन का संपूर्ण अधिकार कलेक्टर को दे दिये गए है जो व्यवहारिक नहीं हैं, भूमि के बाजार दर के निर्धारण के लिए ड्राफ्ट बिल में दिए गए प्रावधानों का कलेक्टरों के द्वारा सही अर्थान्वयन किया जायेगा यह संदेह में है. सरकार के पक्षपाती कलेक्टरों के द्वारा बाजार दर का जानबूझकर कम आंकलन किया जायेगा. यदि कलेक्टर स्वविवेक से किसानों की हितों की झंडाबरदारी करते भी हैं तो मुआवजा आंकलन समिति में जो दो अशासकीय सदस्य होगें वे सरकार की तरफदारी में, दर का कम आकलन ही करेंगें क्योंकि उनकी नियुक्ति सरकार के इशारे पर होगी. दो और चार गुना मुआवजे का अनुपात एक सुझाव के तौर पर कानून में प्रस्तुत है इसे पूरी तरह से मानना या नहीं मानना राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जिसमें पक्षपात निश्चत तौर पर होगीं और किसानों को मिलने वाले वाजिब मुआवजे पर राज्य सरकारें डंडी मारेंगीं.

इस अधिनियम पर आस लगाए लोग यह जानना चाहते होंगें कि यह कब से प्रभावी होगी. देश भर के कई किसान आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें इस बिल से अत्यधिक फायदा पहुचेगा. इस बिल में इसके प्रभावी होने के संबंध में स्पष्ट उल्लेख है कि यह बिल उन सभी प्रकरणों में लागू होगा जिनका मुआवजा तय नहीं किया गया है. इस संबंध में जयराम नरेश नें कहा है कि ऐसे मामलों में जहां अर्जन पांच साल पहले हुआ था किन्तु मुआवजा नहीं दिया गया है या कब्जार नहीं लिया गया है तो यह कानून स्व मेव प्रभावी हो जायेगा. इस प्रावधान के चलते कई प्रदेशों में पुराने कानून के तहत लंबित प्रकरण की प्रक्रिया समाप्त हो जावेगी और इस नये कानून के तहत प्रक्रिया पुन: आरंभ की जावेगी. वैसे भी जब यह कानून प्रभावी होगा तो अधिग्रहण चाहने वाली संस्था को किसानों की भूमि का मुआवजा उनके पूर्व आकलन से लगभग चार गुना ज्यादा देना होगा और इससे उनका निर्धारित परियोजना समय व बजट निश्चित तौर पर बढ़ जावेगा. इसके कारण संभावना यह भी बनेगी कि अधिग्रहण चाहने वाली संस्थानओं के द्वारा किसानों की जमीनों के अधिग्रहण का प्रस्ताव छोड़ दे.

अन्य प्रावधानों में खाद्य सुरक्षा के रक्षोपाय के लिए जो उपबंध किये गए हैं कि सिंचित कृषि भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जायेगा उसमें आंशिक संशोधन करते हुए इसका अधिकार राज्यए सरकारों को दे दिया गया है. इसके अतिरिक्त अर्जन के विवादों के त्वरित निपटान हेतु पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन प्राधिकरण की स्थापना भी न्यायालयीन समय को कम करने का उचित प्रावधान है. अन्य सभी प्रावधानों की चर्चा सीमित रूप से करना एक आलेख में संभव नहीं है फिर भी मोटे तौर पर उपर लिखे तथ्य ही इस नये बिल के सार हैं जो बरसों पहले बने भूमि छीनने के कानून के विरूद्ध अधिग्रहण के माध्यम से किसानों पर हो रहे अन्याय को समाप्त करने का व्यापक जन हित में एक सराहनीय प्रयास है. यह पुराने कानून के प्रभावों को सहानुभूतिपूर्वक समझकर उसे विस्तृत करते हुए इसे अर्जन के साथ ही पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन तक विस्तारित किया गया है जो भूमि खोने वाले किसानों की पीड़ा का समुचित इलाज है.

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...