सामंती व्यवस्था पर चोट का नाम है फाग




राजा बिकरमादित महराज, केंवरा नइये तोर बागन में...
छत्‍तीसगढ़ के फाग में इस तरह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्‍य के बाग में केवड़े का फूल नहीं होने का उल्‍लेख आता है। फाग के आगे की पंक्तियों में केकती केंवरा किसी गरीब किसान के बारी से लाने की बात कही जाती है। तब इस गीत के पीछे व्‍यंग्‍य उजागर होता है। फाग में गाए जाने वाले इसी तरह के अन्‍य गीतों को सुनने पर यह प्रतीत होता है कि, लोक जीवन जब सीधे तौर पर अपनी बात कह नहीं पाता तो वह गीतों का सहारा लेता है और अपनी भावनाओं (भड़ास) को उसमें उतारता है। वह ऐसे अवसर को तलाशता है जिसमें वह अपनो के बीच सामंती व्‍यवस्‍था पर प्रहार करके अपने आप को संतुष्‍ट कर ले। होली के त्‍यौहार में बुरा ना मानो होली है कहकर सबकुछ कह दिया जाता है तो लोक भी इस अवसर को भुनाता है और कह देता है कि, राजा विक्रमादित्‍य महाराज तुम चक्रवर्ती सम्राट हो, किन्‍तु तुम्‍हारी बगिया में केवड़े का फूल नहीं है,  जबकि यह सामान्‍य सा फूल तो यहां हमारे घर-घर में है। केवड़े के फूल के माध्‍यम से राजा को अभावग्रस्‍त व दीन सिद्ध कर लोक आनंद लेता है।

अरे हॉं ... रे कैकई राम पठोये बन, का होही...., नइ होवय भरत के राज ... रे कैकई ... देखिये लोक मानस कैकई के कृत्‍यों का विरोध चिढ़ाने के ढ़ग से करता है, कहता है कि कैकई तुम्‍हारे राम को वनवास भेज देने से क्‍या हो जायेगा। तुम सोंच रही हो कि भरत को राजगद्दी मिल जायेगी।, ऐसा नहीं है। ऐसे ही कई फाग गीतों में हम डूबते उतराते रहे हैं जिनमें से कुछ याद है और कुछ भूल से गए हैं। प्रेम के अतिरिक्‍त इसी तरह के फाग छत्‍तीसगढ़ में गाए जाते हैं जिसमें राजा, बाह्मण, जमीनदार और धनपतियों के विरूद्ध जनता के विरोधी स्‍वर नजर आते हैं। नाचा गम्‍मत के अतिरिक्‍त लोकगीतों में ऐसी मुखर अभिव्‍यक्ति फाग में ही संभव है।

सदियों से बार बार पड़ने वाले अकाल, महामारी और लूट खसोट से त्रस्‍त जन की उत्‍सवधर्मिता उसे दुख में भी मुस्‍कुराने और समूह में खुशियां मनाने को उकसाती है। वह उत्‍सव तो मनाता है, गीत भी गाता है किन्‍तु आपने हृदय में छ़पे दुख को ऐसे समय में अभिव्‍यक्‍त न करके वह उसे व्‍यंग्‍य व विरोध का पुट देता है। छत्‍तीसगढ़ी फाग गीतों के बीच में गाए जाने वाले कबीर की साखियॉं और उलटबासियॉं कुछ ऐसा ही आभास देती है। सामंती व्‍यवस्‍था पर तगड़ा प्रहार करने वाले जनकवि कबीर छत्‍तीसगढ़ के फाग में बार-बार आते हैं। लोग इसे कबीर की साखी कहते हैं यानी लोक के बीच में कबीर खड़ा होता है, वह गवाही देता है सामाजिक कुरीतियों और विद्रूपों के खिलाफ। डॉ.गोरेलाल चंदेल सराररा रे भागई कि सुनले मोर कबीर को सचेतक आवाज कहते हैं मानो गायक सावधान, सावधान की चेतावनी दिया जा रहा हो।

फाग गीतों को गाते, सुनते और उसके संबंध में विद्वानों के आलेखों को पढ़ते हुए, डॉ.गोरेलाल चंदेल की यह बात मुझे फाग गीतों के निहितार्थों में डूबने को विवश करती है-  
... तमाम विसंगतियों एवं दुखों के बीच भी जन समाज की मूल्‍यों के प्रति गहरी आस्‍था ही फाग गीतों के पानी में इस तरह मिली हुई दिखाई देती है जिसे अलग करने के लिए विवेक दृष्टि की आवश्‍यकता है। जन समाज को उनकी सांस्‍कृतिक चेतना को संपूर्णता के साथ देखने तथा विश्‍लेषित करने की जरूरत है। फाग की मस्‍ती एवं गालियों के बीच जीवन दृष्टि की तलाश ही जन समाज की सांस्‍कृतिक चेतना को पहचानने का सार्थक मार्ग हो सकता है।


इनके इस बात को सार्थक करता ये फाग गीत देखें अरे हां रे ढ़ेकुना, काहे बिराजे, खटियन में/ होले संग करव रे बिनास .... समाज के चूसकों को इस त्‍यौहार में जलाने की परंपरा को जीवंत रखने का आहृवान गीत में होता है। इसी परम्‍परा के निर्वाह में छत्‍तीसगढ़ में होली की आग में खटमल (ढ़ेकुना) और पशुओं का खून चूसने वाले कीटों (किन्‍नी) को जलाया जाता है ताकि उनका समूल नाश हो सके।  सांकेतिक रूप से होली के आग में समाज विरोधी मूल्‍यों का विनाश करने का संदेश है यह।

पारम्‍परिक फाग गीतों का एक अन्‍य पहलू भी है जिसके संबंध में बहुत कम लिखा-पढ़ा गया है। होली जलने वाले स्‍थान पर गाए जाने वाले अश्‍लील फाग का भी भंडार यहां उसी प्रकार है जैसे श्‍लील फाग गीतों का। होली के जलते तक होले डांड में रात को तेज आवाज में यौनिक गालियां, होले को और एक दूसरे को दिया जाता है और अश्‍लील फाग गीत के स्‍वर मुखरित होते हैं। लोक के इस व्‍यवहार पर डॉ.गोरेलाल चंदेल जो तर्क देते हैं वे ग्राह्य लगते हैं, वे कहते हैं कि
लोक असत् को जलाकर सत की रक्षा ककी खुशी मनाता है तो, पौराणिक असत् पक्ष की भर्त्‍सना करने से भी नहीं चूकता। वह असत् के लिए अश्‍लील गालियों का भी प्रयोग करता है और अश्‍लीलता युक्‍त फाग गीतों का गायन भी करता है।

रात के बाद फाग का यह अश्‍लील स्‍वरूप बदल जाता है, लोक अपनी विरोधात्‍मक अभिव्‍यक्ति देने के बाद दूने उत्‍साह के साथ राधा-किसान के प्रेम गीत गाने लगता है। जैसे दिल से कोई बोझ उतर गया। मुझे जब बी मेटफिल्‍म का वो दृश्‍य याद आता है जब नायक नायिका को उसके बेवफा प्रेमी पर अपना भड़ास उतारने को कहता है और नायिका फोन पर पूर प्रवाह के साथ अपना क्रोध उतारते हुए तेरी मां की ..... तक चली जाती है। उसके बाद वह सचमुच रिलेक्‍स महसूस करती है। उसी प्रकार लोक होले डांड में जमकर गाली देने (बकने) के बाद रिलेक्‍स महसूस करते हुए लोक चेतना को जगाने वाले एवं मादक फाग दिन के पहरों में गाता है।

डॉ. पालेश्‍वर शर्मा अपने किताब छत्‍तीसगढ़ के तीज त्‍यौहार और रीतिरिवाज में इन पहलुओं पर बहुत सीमित दृष्टि प्रस्‍तुत करते हैं किन्‍तु वे भी स्‍वीकरते हैं कि लोक साल भर की कुत्‍सा गालियों के रूप में अभिव्‍यक्‍त करता है। जिसे वे अशिष्‍ठ फाग कहते हैं, इसकी वाचिक परंपरा आज भी गावों में जीवंत है और इसे भी सहेजना/लिखा जाना चाहिए। यद्धपि इसे पढ़ना अच्‍छा नहीं लगेगा किन्‍तु परम्‍परागत गीतों के दस्‍तावेजीकरण करने के लिए यह आवश्‍यक होगा। इस संबंध में छत्‍तीसगढ़ी मुहावरों एवं लोकोक्तियों पर पहली पीएचडी करने वाले डॉ.मन्‍नू लाल यदू का ध्‍यान आता है जिन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ के श्‍लील व अश्‍लील दोनों मुहावरों एवं लोकोक्तियों का संग्रह एवं विश्‍लेषण किया। अशिष्‍ठ फाग लिखित रूप में कहीं भी उपलब्‍ध नहीं है। इसमें ज्‍यादातर रतिक्रिया प्रसंगों एवं दमित इच्‍छाओं का लच्‍छेदार प्रयोग होता है। 'चलो हॉं ... गोरी ओ .. तोर बिछौना पैरा के ...' पुरूष अपनी मर्दानगी के डींगें बघारता हुआ नारी के दैहिक शोषण का गीत गाता है। वह अपने गीतों में किसबिन (नर्तकी वेश्‍या) व अन्‍य नारीयों का चयन करता है। बिना नाम लिये गांव के जमीदार, वणिक या ऐसे ही किसी मालदार आसामी के परिवार की नारी के साथ संभोग की बातें करता है। इसका कारण सोंचने व बड़े बुजुर्गों से पूछने पर वे सीधे तौर पर बातें होलिका पर टाल देते हैं कि लोग होलिका को यौनिक गाली देने के उद्देश्‍य से ऐसा करते हैं। किन्‍तु आमा के डारा लहस गे रे, तोर बाम्‍हन पारा, बम्‍हनिन ला  *दंव पटक के रे बाम्‍हन मोर सारा या 'बारा साल के बननिन टूरी डोंगा खोये ला जाए, डोंगा पलट गे, ** चेपट गे, ** सटा-सट जाए'   जैसे गीत पूरे उत्‍साह के साथ जब गाए जाते हैं तब पता चलता है कि लोक अपनी भड़ास आपके सामने ही नि‍कालता है और आप मूक बने रह जाते हैं। अपनी सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं की दुहाई देते हुए। होली है.....  

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...