सुआ गीत : नारी हृदय की धड़कन

आज छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग नगर में एक अद्भुत आयोजन हुआ जिसमें परम्‍पराओं को सहेजने की मिसाल कायम की गई, पारंपरिक छत्‍तीसगढ़ी संस्‍कृति से लुप्‍त होती विधा 'सुआ गीत व नाच' का प्रादेशिक आयोजन आज दुर्ग की धरती पर किया गया जिसमें पूरे प्रदेश के कई सुवा नर्तक दलों नें अपना मोहक नृत्‍य प्रस्‍तुत किया। इस आयोजन में एक दर्शक व श्रोता के रूप में देर रात तक उपस्थित रह कर मेरे पारंपरिक मन को अपूर्व आनंद आया। मेरे पाठकों के लिए इस आयोजन के चित्रों के साथ सुआ गीत पर मेरे पूर्वप्रकाशित (प्रिंट मीडिया में, ब्‍लॉग में नहीं) आलेख के मुख्‍य अंशों को यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं -

सुआ गीत : नारी हृदय की धडकन
छत्तीसगढ़ में परम्पराओं की महकती बगिया है जहां लोकगीतों की अजस्र रसधार बहती है। लोकगीतों की इसी पावन गंगा में छत्तीसगढ़ी संस्कृति की स्प्ष्ट झलक दृष्टिगत होती है। छत्तीतसगढ़ में लोकगीतों की समृद्ध परम्परा कालांतर से लोक मानस के कंठ कंठ में तरंगित रहा है जिसमें भोजली, गौरा, सुआ व जस गीत जैसे त्यौहारों में गाये जाने वाले लोकगीतों के साथ ही करमा, ददरिया, बांस, पंडवानी जैसे सदाबहार लोकगीत छत्तीसगढ़ के कोने कोने से गुंजायमान होती है। इन गीतों में यहां के सामाजिक जीवन व परम्पराओं को भी परखा जा सकता है। ऐसे ही जीवन रस से ओतप्रोत छत्तीसगढ़ी लोकगीत है 'सुआ गीत' जिसे वाचिक परम्परा के रूप में सदियों से पीढी दर पीढी यहां की नारियां गाती रही हैं।
पारम्‍परिक भारतीय संस्कृत-हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में सुक का मुख्य स्थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने व खासकर कन्याओं के प्रिय होने के कारण शुक नारियों का भी प्रिय रहा है। मनुष्य की बोली की नकल उतारने में सिद्धस्थ इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने दिल की बात ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस’ कहकर वियोगिनी नारी यह संतोष करती रही कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुच रही है। कालांन्तर में सुआ के माध्यम से नारियों की पुकार और संदेश गीतों के रूप में गाये जाने लगे और प्रतीकात्मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते नें ले लिया, भाव कुछ इस कदर फूटते गये कि इसकी लयात्मकता के साथ नृत्य भी जुड गया।
सुआ गीत मूलत: गोंड आदिवासी नारियों का नृत्य गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियां ही गाती हैं । यह संपूर्ण छत्तीसगढ़ में दीपावली के पूर्व से गाई जाती है जो देवोत्थान (जेठउनी) एकादशी तक अलग-अलग परम्पराओं के अनुसार चलती है। सुवा गीत गाने की यह अवधि धान के फसल के खलिहानों में आ जाने से लेकर उन्हारी फसलों के परिपक्वता के बीच का ऐसा समय होता है जहां कृषि कार्य से कृषि प्रधान प्रदेश की जनता को किंचित विश्राम मिलता है।
सुआ सामूहिक गीत नृत्य है इसमें छत्तीसगढ़ की नारियां मिट्टी से निर्मित सुआ को एक टोकरी के बीच में रख कर वृत्ताकार रूप में खडी होती हैं। महिलायें सुआ की ओर ताकते हुए झुक-झुक कर चक्राकार चक्कर लगाते, ताली पीटते हुए नृत्य करते हुए गाती हैं। ताली एक बार दायें तथा एक बार बायें झुकते हुए बजाती हैं, उसी क्रम में पैरों को बढाते हुए शरीर में लोच भरती हैं।
गीत का आरम्भ ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना ....’ से एक दो नारियां करती हैं जिसे गीत उठाना कहते हैं । उनके द्वारा पदों को गाने के तुरन्त, बाद पूरी टोली उस पद को दुहराती हैं। तालियों के थप थप एवं गीतों के मधुर संयोजन इतना कर्णप्रिय होता है कि किसी भी वाद्य यंत्र की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। संयुक्त स्वर लहरियां दूर तक कानों में रूनझुन करती मीठे रस घोलती है।
गीतों में विरह के मूल भाव के साथ ही दाम्पत्य बोध, प्रश्नोत्तनर, कथोपकथन, मान्यताओं को स्वींकारने का सहज भाव पिरोया जाता है जिसमें कि नारियों के बीच परस्पर परंम्‍परा व मान्यताओं की शिक्षा का आदान प्रदान सहज रूप में गीतों के द्वारा पहुचाई जा सके। अपने स्व‍प्न प्रेमी के प्रेम में खोई अविवाहित बालायें, नवव्याही वधुयें, व्यापार के लिए विदेश गए पति का इंतजार करती व्याहता स्त्रियों के साथ जीवन के अनुभव से परिपूर्ण वयस्क महिलायें, सभी वय की नारियां सुवा गीतों को गाने और नाचने को सदैव उत्सुक रहती हैं । इसमें सम्मिलित होने किशोरवय छत्तीसगढी कन्या अपने संगी-सहेलियों को सुवा नृत्य हेतु जाते देखकर अपनी मां से अनुनय करती है कि उसे भी सुवा नाचने जाना है इसलिए वह मां से उसके श्रृंगार की वस्तुएं मांगती है। ‘देतो दाई देतो तोर गोड के पैरी, सुवा नांचे बर जाहूं’ यह गीत प्रदर्शित करता है कि सुवा गीत-नृत्य में नारियां संपूर्ण श्रृंगार के साथ प्रस्तुत होती थीं।
संपूर्ण भारत में अलग अलग रूपों में प्रस्तुंत विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीतों में एक जन गीत जिसमें नवविवाहित कन्यां विवाह के बाद अपने बाबुल के घर से अपने सभी नातेदारों के लिवाने आने पर भी नहीं जाने की बात कहती है किन्तु पति के लिवाने आने पर सहर्ष तैयार होती है। इसी गीत का निराला रूप यहां के सुआ गीतों में सुनने को मिलता है। यहां की परम्परा एवं नारी प्रधान गीत होने के कारण छत्तीसगढी सुवा गीतों में सास के लेने आने पर वह नवव्याही कन्या जाने को तैयार होती है क्योंकि सास ससुराल के रास्ते में अक्ल बतलाती है, परिवार समाज में रहने व चलने की रीति सिखाती है -
अरसी फूले सुनुक झुनुक गोंदा फुले छतनार, 
रे सुआना कि गोंदा फुले छतनार 
वोहू गोंदा ला खोंचे नई पायेंव, 
आगे ससुर लेनहार ...... 
ससुरे के संग में नि जाओं ओ दाई, 
कि रद्दा म आंखी बताथे 
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे देवर लेनहार 
देवर संग में नी जाओं दाई, 
कि रद्दा म ठठ्ठा मढाथे 
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे सैंया लेनहार
सैंया संग में नी जाओं वो दाई, 
कि रद्दा म सोंटा जमाथे
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे सास लेनहार 
सासे संग में तो जाहूं ओ दाई, 
कि रद्दा म अक्काल बताथे 
रे सुआ ना कि रद्दा म अक्काल बताथे .........
पुरूष प्रधान समाज में बेटी होने का दुख साथ ही कम वय में विवाह कर पति के घर भेज देने का दुख, बालिका को असह होता है। ससुराल में उसे घर के सारे काम करने पडते हैं, ताने सुनने पडते हैं। बेटी को पराई समझने की परम्परा पर प्रहार करती यहां की बेटियां अपना दुख इन्हीं गीतों में पिराते हुए कहती हैं कि मुझे नारी होने की सजा मिली है जो बाबुल नें मुझे विदेश दे दिया और भाई को दुमंजिला रंगमहल । छत्तीसगढी लोक गीतों में बहुत बार उपयोग में लिया गया और समस समय पर बारंबार संदर्भित बहुप्रचलित एक गीत है जिसमें नारी होने की कलपना दर्शित है -
पइयां परत हौं मैं चंदा सुरूज के, 
रे सुवना तिरिया जनम झनि देय 
तिरिया जनम मोर अति रे कलपना, 
रे सुवना जहंवा पठई तहं जाए 
अंगठी मोरी मोरी, घर लिपवावै, रे सुवना 
फेर ननंद के मन नहीं आए 
बांह पकरि के सैंया घर लाये, 
रे सुवना ससुर ह सटका बताय 
भाई ल देहे रंगमहलवा दुमंजला, 
रे सुवना हमला तो देहे बिदेस
ससुराल में पति व उसके परिवार वालों की सेवा करते हुए दुख झेलती नारी को अपने बाबुल का आसरा सदैव रहता है वह अपने बचपन की सुखमई यादों के सहारे जीवन जीती है व सदैव परिश्रम से किंचित विश्राम पाने अपने मायके जाने के लिए उद्धत रहती है। ऐसे में जब उसे पता चलता है कि उसका भाई उसे लेने आया है तब वह अपने ससुराल वालों से विनती करती है कि ‘उठव उठव ससुर भोजन जेवन बर, मोर बंधु आये लेनहार’ किन्तु उसे घर का सारा काम काज निबटाने के बाद ही मायके जाने की अनुमति मिलती है। कोयल की सुमधुर बोली भी करकस लग रही है क्योंकि नायिका अपने भाई के पास जाना चाहती है। उसने पत्र लिख लिख कर भाई को भेजे हैं कि भाई मुझे लेने आ जाओ। सारी बस्ती सो रही है किन्तु भाई भी अपनी प्यारी बहन के याद में सो नहीं पा रहा है -
करर करर करे कारी कोइलिया 
रे सुवना कि मिरगा बोले आधी रात 
मिरगा के बोली मोला बड सुख लागै 
रे सुवना कि सुख सोवे बसती के लोग 
एक नई सोवे मोर गांव के गरडिया 
रे सुवना कि जेखर बहिनी गए परदेश 
चिठी लिख लिख बहिनी भेजत हे 
रे सुवना कि मोरे बंधु आये लेनहार
छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीतों में पुरूष को व्यापार करने हेतु दूर देश जाने का उल्लेख बार बार आता है। अकेली विरहाग्नि में जलती नारी अपने यौवन धर्म की रक्षा बहु विधि कर रही है किन्तु मादक यौवन सारे बंद तोडने को आतुर है ‘डहत भुजावत, जीव ला जुडावत, रे सुवना कि चोलिया के बंद कसाय’। ऐसे में पति के बिना नारी का आंगन सूना है, महीनों बीत गए पर पति आ नहीं रहा है। वह निरमोही बन गया है उसे किसी बैरी नें रोक रखा है, अपने मोह पाश में जकड रखा है । इधर नारी बीड़ी की भांति जल जल कर राख हो रही है । पिया के वापसी के इंतजार में निहारती पलके थक गई हैं। आसरा अब टूट चुका है, विछोह की यह तड़फ जान देने तक बढ गई है ‘एक अठोरिया में कहूं नई अइहव, रे सुवना कि सार कटारी मर जांव’ कहती हुई वह अब दुख की सीमा निर्धारित कर रही है।
दिल्ली छै में सुवासित छत्तीसगढ़ी लोक गीत के भाव सुवा गीतों में भी देखने को मिलता है जिसमें विवाह के बाद पहली गौने से आकर ससुराल में बैठी बहु अपने पिया से सुवा के माध्यम से संदेशा भेजती है कि आप तो मुझे अकेली छोडकर व्यापार करने दूर देश चले गये हो। मैं किसके साथ खेलूंगी-खाउंगी, सखियां कहती हैं कि घर के आंगन में तुलसी का बिरवा लगा लो वही तुम्हारी रक्षा करेगा और वही तुम्हारा सहारा होगा –
पहिली गवन के मोर देहरी बैठारे, 
वो सुवना छाडि पिया गये बनिज बैपार 
काखर संग खेलिहौं काखर संग खइहौं, 
कि सुवना सुरता आवत है तुहांर 
अंगना लगा ले तैं तुलसी के बिरवा, 
रे सुवना राखही पत ला तुम्हार
देवर भाभी के बीच की चुहल व देवर को नंदलाल की उपमा देकर अद्भुत प्रेम रस बरसाने वाली छत्तीसगढ़ की नारियां देवर की उत्सुकता का सहज उत्तर देते हुए छोटे देवर को अपने बिस्तर में नहीं सोने देने के कारणों का मजाकिया बखान करते हुए कहती है कि मेरे पलंग में काली नाग है, छुरी कटारी है । तुम अपने भईया के पलंग में सोओं। देवर के इस प्रश्न पर कि तुम्हारे पलंग में काली नाग है तो भईया कैसे बच जाते हैं तो भाभी कहती है कि तुम्हारे भईया नाग नाथने वाले हैं इसलिए उनके प्राण बचते हैं –
तरी हरी नाना न नाना सुआ ना, 
तरी हरि नाह ना रे ना 
अंगरी ला मोरी मोरी देवता जगायेंव 
रे तरि हरि नाह ना रे ना 
दुर रे कुकुरवा, दुर रे बिलईया, 
कोन पापी हेरथे कपाट 
नों हंव कुकुरवा में नों हंव बिलईया, 
तोर छोटका देवर नंदलाल 
आये बर अइहौ बाबू मोर घर मा, 
फेर सुति जइहौ भईया के साथ 
भईया के पलंग भउजी भुसडी चाबत हैं, 
तोरे पलंग सुख के नींद 
मोरे पलंग बाबू छूरी कटारी, 
सुन ले देवर नंदलाल 
हमरे पलंग बाबू कारी नागिन रे, 
फेर डसि डसि जिवरा लेवाय 
तुंहरे पलंग भउजी कारी रे नांगिन, 
फेर भईया ल कईसे बंचाय 
तुंहरे भईया बाबू बड नंगमतिया, 
फेर अपने जियरा ला लेथे बंचाय ....
छत्तीसगढ़ में दो-तीन ऐसे सुआ गीत पारंपरिक रूप से प्रचलित हैं जिनमें इस काली नाग के संबंध में विवरण आता है। यह वही काली नाग है जो व्यापार के लिए दूर देश गए पिया के बिना अकेली नारी की रक्षा करती है। यह काली नागिन उसका विश्वास है, उसके अंतरमन की शक्ति है -
छोटका देवर मोर बडा नटकुटिया, 
रे सुवना छेंकत है मोर दुवार 
सोवा परे म फरिका ला पेलै, 
रे सुवना बांचिहै कइसे धरम हमार 
कारी नागिन मोर मितानिन, 
रे सुवना रात रहे संग आय
कातिक लगे तोर अइहैं सजनवा, 
रे सुवना जलहि जोत बिसाल
स्त्री सुलभ भाउकता से ओतप्रोत ऐसे ही कई सुवा गीत छत्तीसगढ़ में प्रचलित है, जिनको संकलित करने का प्रयास हेमनाथ यदु व कुछेक अन्य लोककला के पुरोधा पुरूषों नें किया है। इन गीतों का वास्तविक आनंद इनकी मौलिकता व स्वाभाविकता में है जो छत्तीगढ़ के गांवों में देखने को मिलता है।
रंग बिरंगी – रिंगी चीगी वस्त्रों से सजी धजी नारियां जब सुवा गीतों में विरह व दुख गाते हुए अपने दुखों को बिसरा कर नाचती हैं तो संपूर्ण वातावरण सुरमई हो जाता है। गीतों की स्वाभाविक सहजता व सुर मन को मोह लेता है और मन कल्पना लोक में इन मनभावन ललनाओं के प्रिय सुवा बनकर घंटों इनका नृत्य देखने को जी करता है। इस भाग-दौड व व्यस्त‍ जिन्दगी में अपने परिवेश से जोडती इन जड़ों में जड़वत होकर कल कल बहती लोकरंजन गीतों की नदियों का जल अपने रगो में भरने को जी चाहता है। क्योंकि समय के साथ साथ सरकती सभ्यता और संस्कृति में आदिम जीवन की झलक ऐसे ही लोकगीतों में दिखाई देती है ।

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्‍म, उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्‍य स्‍नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्‍य स्‍नातकोत्‍तर. प्रबंधन में डिप्‍लोमा एवं विधि स्‍नातक, हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर की पढ़ाई स्‍टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्‍यक्तित्‍व से ठेठ छत्‍तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्‍यवस्‍था से लगभग असंतुष्‍ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.

गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्‍कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्‍य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्‍लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...