छत्तीसगढ के ग्रामीण मजदूर कमाने खाने लद्दाख के बरफबारी से बंद हुए सडकों को साफ करने से लेकर आसाम के चाय बागानों तक एवं दिल्ली के कालोनी निर्माण से लेकर मुम्बई के माल निर्माण तक संपूर्ण देश में कार्य करने जाते हैं, किन्तु दीपावली में वे अपने-अपने गांव लौट आते हैं। वहां की हिन्दी एवं सस्ती आधुनिक संचार यंत्रों के साथ छत्तीसगढी मिश्रित बटलर हिन्दी बोलते इन लोगों को इसी दिन का इंतजार रहता हैं। उत्सवधर्मी इन भोले भाले लोगों के साथ दीपावली मनाने हम भी हर साल गांव चले आते हैं। वहां गांव की सांस्कृतिक परंपराओं का आनंद लेते हैं।
कई गांवों में रावत नाच के साथ 'मडई' भी चलता है। मडई लम्बे खडे बांस में साडी-धोती और बंदनवार को बांधकर बनाया जाता है। इस मडई को गांव के मडईहा परिवार के लोग मन्नत मांगने के लिए बनाते हैं एवं गांव में दीपावली से लेकर 'मडई' मनाए जाने तक बनाए रखते हैं। जब भी रावत नाच पार्टी के साथ इन मडईहा परिवार को रावत नाच उत्सव या मातर आदि का निमत्रण दिया जाता है ये मडई रावत नाच के पीछे पीछे अपनी लम्बी पताका लिए मौजूद रहता है।
छत्तीसगढ में दीपावली की रात गउरा उत्सव के रूप में मनाया जाता है, यहां गांवों में दीपावली का असली मजा दीपावली के दूसरे दिन ही आता है, गावों में इस दिन को गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है। कृषि प्रधान इस प्रदेश में पशुधन के महत्व को रेखांकित करने वाला यह त्यौहार गायों के श्रृंगार और पूजन का त्यौहार है। इस त्यौहार का संपूर्ण प्रतिनिधित्व यादव - ग्वालों (रावत) के समुदाय के हाथों रहता है, गांव में 'बाजा लगाने' (रावत नाच के साथ वाद्य यंत्र बजाने के लिए वाद्यकों के समूह एवं नृत्य करने के लिए स्त्री के रूपधारी पुरूषों को निश्चित पारिश्रमिक पर तय करना। इस पारिश्रमिक की व्यवस्था सामूहिक सहयोग से की जाती है) से लेकर मातर मनाने तक चलने वाला यह लगभग पंद्रह दिनो का उत्सव होता है। बाजे के साथ श्रृंगार किये हुए ग्वालों का समूह घर घर जाकर नृत्य करता है जिसे 'जोहारना' कहा जाता है 'ठाकुर जोहारे आयेन .... जैसे दोहों के साथ, रावत नाच प्रस्तुत किया जाता है।
भगवान कृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों और गोधन की रक्षा करने की स्मृति को जीवंत बनाने के लिए गोवर्धन पूजा किया जाता है। ग्वालों का विश्वास है कि वे यदुवंशी कृष्ण के वंशज है इसलिए वे परंपरागत रूप से इस त्यौहार को मनाते आ रहे हैं जो संपूर्ण छत्तीसगढ में मनाया जाता है। इस दिन सुबह गायों की पूजा की जाती है और उन्हें 'खिचडी' खिलाई जाती है। संध्या गांव के सहडा देव (जो सांढ देवता के रूप में पूज्य होता है)के पास गोवर्धन पर्वत के प्रतीक के रूप में गाय के गोबर से गोवर्धन भगवान की प्रतिकृति बनाई जाती है, एवं ग्वालों की पत्नियां उसकी पूजा करती हैं।
इधर ग्वाले बाजे गाजे के साथ अपने पारंपरिक रावत नाच नाचते हुए गांव के प्रत्येक घर जा-जा कर घरवालों को 'गोवर्धन पूजा' हेतू बुलाते हैं। जब गोधुली बेला में सारा गांव सहडा देव के पास इकत्रित हो जाता है ग्वाले गोवर्धन देव में नारियल अर्पित कर पूजा करते हैं और छोटे बछडे के पावों से उस गोवर्धन की प्रतिकृति को रौंदवाते हैं। इसके बाद गांव के सभी गायों को उस गोवर्धन की प्रतिकृति से गुजारा जाता है। गोवर्धन की प्रतिकृति को इस तरह से गायों के खुरों से रौंदवाने को देखकर हर बार मेरे मन में बचपन में सुने किस्से के अनुसार इंद्र का वह कोप जीवंत हो उठता है जब बृजवासियों एवं गायों पर भीषण वर्षा करके इंद्र नें अपना तूफानी कहर बरपाया था और नंदकिशोर नें कंदुक सम विशाल गोवर्धन पर्वत को तर्जनी उंगली में उठाकर इनकी रक्षा की थी। जहां तक मुझे लगता है कि इन ग्वालों के द्वारा 'गोवर्धन खुदवाना' इंद्र का मान मर्दन करना ही है, कभी इन पहलुओं पर विस्तृत लिखूंगा।
गोवर्धन खुंदवाने के बाद गोवर्धन की प्रतिकृति के बिखरे गोबर को बडे बुर्जुगों के माथे पर लगा कर आर्शिवाद ली जाती है। अजब प्रेम है यहां का, बेमोल गोबर को माथे में लगाकर सम्मान करने की इस परंपरा का सम्मान इस प्रदेश के सभी रहवासियों को करना ही चाहिए।
हे ग्राम्य देवी, हमारे स्नेह की बाट जोहते इन ग्रामीण बच्चों की चेहरों में मुस्कान और इनकी आंखों में दीपों की आभा देखने हम हर दीपावली आते ही रहेंगें।
संजीव तिवारी