भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार कार्तिक महीने में दीपों के उत्सव का त्यौहार दीपावली संपूर्ण भारत में मनाई जाती है. पत्र—पत्रिकायें, शुभकामना संदेश दीप और लक्ष्मी के तत्सम तद्भव शब्दों के लच्छेदार वाक्यांशों से भर जाते है. आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, क्योंकि यह हमारा महत्वपूर्ण त्यौहार जो है. अलग अलग स्थानों और आख्यानों में इसे मनाने के पीछे कारण जो भी रहे हों किन्तु सभी का केन्द्र धन, आनन्द और दीप से है. परम्पराओं में जन के लिए धन का मूल अर्थ धान्य से है जो हमारे देश का मूल है. लम्बे इंतजार और कठिन श्रम के उपरांत धान्य जब हमारे घर में आये तो उत्साह तो निश्चित है, उसके स्वागत में दीप जलाना हमारी परम्परा है. इस त्यौहार की परिकल्पना इसी से आगे बढ़ती है, कल्पना कीजिये ऐसे समय की जब रौशनी का माध्यम सिर्फ दीप रहा होगा. अमावस की रात को अनगिनत दीप जब जल उठे होंगें, जन स्वाभाविक रूप से नाच उठा होगा.
श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी. चाहे उनका जन शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के विरूद्ध. जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है.
कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण पशुओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है. यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है. इसी धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं. दीप और धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह जब इकट्ठा किया जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके उपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद धान की नपाई होती है. यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप प्रतीक है, राह दिखाता है.
प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन की आवश्यकता पड़ती है. बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है. पशुओं के कोठे लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है. कोठा सहित पूरे डीह डोंगर यानी गांव के हर जगह दीपक जलाया जाता है.
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह ‘दियारी’ खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है. परंपरानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहां जाकर गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता हैं, पशुपालकों के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है. दूसरे दिन बैलों को लाल टीका लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है. बाद में घर की महिलायें चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है. फलस, अन्न और पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त एश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी है. इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में लाला जगदलपुरी की एक हल्बी गीत ‘उडी गला चेडे’ प्रासंगिक है – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्ता धान के पायते रला/केडे सुन्दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘
लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्दर गौरैया आई, और उसने दोस्ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्ट भाग से गौरैया को क्या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में।
उत्सव के उत्साह को निरंतर रखने की जन सोंच भी गजब की है वह देवारी के बाद होरी के इंतजार में आनंदित होता है. दूसरे सेला के लिए उड चलता है. यादवों के बीच प्रचलित एक लोक दोहा देखें आवत देवारी लहुर लईया, जावत देवारी बड़ दूर/ जा जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावे धूर. यानी दिवाली के त्यौहार का महत्व बहुत है, उसके लिए हम उतावले रहते हैं और यह कब आके चली जाती है पता ही नहीं चलता, हम साल भर इसका इंतजार करते हैं. दीपावली अब तुम विदा लो क्योंकि अब हमारी स्मृत्तियों में फागुन को धूल उडाने दो. फिर अगले साल आयेगी दीपावली और हम अपनी प्राणदायी फसलों, पशुओं और दीपों की कल्पना कागजों में करेंगें.
संजीव तिवारी
श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी. चाहे उनका जन शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के विरूद्ध. जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है.
कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण पशुओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है. यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है. इसी धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं. दीप और धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह जब इकट्ठा किया जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके उपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद धान की नपाई होती है. यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप प्रतीक है, राह दिखाता है.
प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन की आवश्यकता पड़ती है. बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है. पशुओं के कोठे लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है. कोठा सहित पूरे डीह डोंगर यानी गांव के हर जगह दीपक जलाया जाता है.
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह ‘दियारी’ खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है. परंपरानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहां जाकर गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता हैं, पशुपालकों के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है. दूसरे दिन बैलों को लाल टीका लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है. बाद में घर की महिलायें चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है. फलस, अन्न और पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त एश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी है. इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में लाला जगदलपुरी की एक हल्बी गीत ‘उडी गला चेडे’ प्रासंगिक है – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्ता धान के पायते रला/केडे सुन्दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘
लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्दर गौरैया आई, और उसने दोस्ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्ट भाग से गौरैया को क्या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में।
उत्सव के उत्साह को निरंतर रखने की जन सोंच भी गजब की है वह देवारी के बाद होरी के इंतजार में आनंदित होता है. दूसरे सेला के लिए उड चलता है. यादवों के बीच प्रचलित एक लोक दोहा देखें आवत देवारी लहुर लईया, जावत देवारी बड़ दूर/ जा जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावे धूर. यानी दिवाली के त्यौहार का महत्व बहुत है, उसके लिए हम उतावले रहते हैं और यह कब आके चली जाती है पता ही नहीं चलता, हम साल भर इसका इंतजार करते हैं. दीपावली अब तुम विदा लो क्योंकि अब हमारी स्मृत्तियों में फागुन को धूल उडाने दो. फिर अगले साल आयेगी दीपावली और हम अपनी प्राणदायी फसलों, पशुओं और दीपों की कल्पना कागजों में करेंगें.
संजीव तिवारी