पूर्व अंश : छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 1- 2 - 3- 4
(अंतिम किश्त)
कला व संस्कृति के विकास में हमारे लोक कलाकारों नें उल्ले खनीय कार्य किये हैं इसके नेपथ्य में अनेक मनीषियों नें सहयोग व प्रोत्साहन दिया है किन्तु वर्तमान में इसके विकास की कोई धारा स्पष्ट नजर नहीं आती जबकि हमारी संस्कृति की सराहना विदेशी करते नहीं अधाते, जापान व जर्मनी के लोग हमारे पंडवानी का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और हम स्वयं थोथी अस्मिता का दंभ भरते हुए अपनी लोक शैली तक को बिसराते जा रहे हैं । शासन के द्वारा विभिन्न मेले मडाईयों व उत्सवों का आयोजन कर इसे जीवंत रखने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु हमें इसे अपने दिलों में जीवंत रखना है । डॉ. हीरालाल शुक्ल जी इस संबंध में गहराते संकट को इस प्रकार व्यक्त करते हैं - ’ रचनात्मकता के नाम पर आज जो हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं, वह सृजन क्षमता नहीं, पश्चिम की टोकरी में भरा हुआ कबाड है, जिसको आधुनिक बाजार किशोर संवेदनाओं को उत्तेजित कर संस्कृति के नाम पर बेंच रहा है । कहीं ऐसा न हो कि छत्तीसगढी नाचा सीखने के लिए हमें पश्चिम के किसी विश्वविद्यालय में जाना पडे ।‘
इसी चिंतन को पं.श्यामाचरण दुबे स्पष्ट करते हैं -’सांस्कृतिक चेतना का उदय भविष्य के समाज की उभरती परिकल्पनांए और सांस्कृतिक नीति के पक्ष हमें आश्वस्थ करते हैं कि लोक संस्कृतियां अस्तित्व के संकट का सामना नहीं कर रही, संभावना यही है कि वे पुष्पित पल्लवित और पुष्ट होंगी । लोक संस्कृतियों के संस्कृति की मुख्य धारा में विलियन संबंधी दुराग्रह हमें छोडने होंगें । लोक जगत में उन्हें दूसरी श्रेणी की नागरिकता देना केवल लोक कलाओं के लिए घातक सिद्ध होगा । हमें ऐसा दृष्टिकोण अपनाना है जो लोककलाओं के विकास और उत्कर्ष का मार्ग भी अवरूद्ध न करे, उन्हें अपनी दिशा खोजने का मौका दें और अपनी गति से आगे बढने दें । गांव की धरती छोडकर जब वे महानगरों के मंच पर जायेगी तब उसका रूप तो बदलेगा ही सांस्कृतिक आदान प्रदान भी उन्हें प्रभावित करेगा ।‘
वर्तमान शासकीय योजनाओं एवं सत्य के धरातल पर उपस्थित विकास पर वे आगे कहते हैं - ‘शासन की मंशा के बावजूद ग्रामीण जीवन में आजादी के 25 वर्षो बाद भी कोई बहुत सकारात्मक परिवर्तन नहीं दिखाई देता । शोषण, गरीबी, अत्याचार लगभग उसी रूप में बरकरार है । लेकिन जागृति की किरणें अवश्य दिखाई देती है । दुखित और मरही जैसे लोग हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बदले कुछ मुखर हो चले हैं । उन्हें मालूम हो गया है कि भारतीय गणतंत्र में उनकी भी एक निर्णायक भूमिका है इसलिये दुखों को अपनी नियति समझकर चुप रह जाना कायरता है । इतना ही नहीं सरकारी नीतियों और घोषणाओं का विरोध करते हैं । काल्पनिक पंचवर्षीय योजनाओं की जगह धरती से जुडे हुए क्षेत्रीय प्रसाधनों का उपयोग कर हरित क्रांति को सफल बनाने के लिये सही दिशा निर्देश देते हैं । कहना न होगा, लघु सिंचाई योजनाओं का विस्तार सर्वथा उचित एवं क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप है । इसके साथ ही साथ इस पिछडे अंचल में भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादूर शास्त्री के जय जवान जय किसान के नारे के अनुरूप दुखित का हर लडका वीर सैनिक के रूप में सरहद पर अपनी कुर्बानी देता है । दूसरा एक कर्मठ किसान के रूप में स्वावलम्ब न के सपनों को साकार कर रहा है इसके बावजूद लोकगीतों पर आधारित चंदैनी गोंदा का मूल ढांचा परम्परागत है ।‘ विकास और परम्परा दो अलग अलग अस्तित्व को बयां करते हैं, पर कला एवं संस्कृति में परम्पराओं के विकास का प्रभाव धीरे धीरे यदि छाता है तो वह स्वीकार्य होता है किन्तु हमने अपनी परम्पराओं को आज तक कायम रखा है ।
छत्तीअसगढ के प्रथम मुख्य मंत्री अजीत जोगी जी अक्सर ये कहा करते थे कि हम अमीर धरती के गरीब लोग हैं । बार बार पत्र-पत्रिकाओं में यह बात सामने आती रही पर सात साल बाद भी हम अपनी गरीबी ओढे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे । जो अवसरवादी हैं वे राज्य बनने के पूर्व एवं राज्य बनने के बाद भी लगातार इस धरती का दोहने करते आ रहे हैं । पृथ्वी के गर्भ में छिपे अकूत खनिज संम्पदा से लेकर जंगल के उत्पादों तक का लूट खसोट जारी है । लूटने वालों नें मुखौटे बदल लिये हैं पर क्रम बदस्तूर जारी है । छत्तीसगढ में नदियों पर भी जनता का हक नहीं रहा यहां नदियां भी बेंच दी गई अब कहने के लिये मुहावरा शेष नहीं रहा कि नदियां बिक गई ‘पानी के मोल’ और हम अपनी छत्तीसगढी अस्मिता को संजोये बैठे हैं । आदिवासियों को बस्तर हाट में एक किलो चार चिरौंजी के बदले एक किलो नमक मिलता है और बस्तर हाट के फुल साईज विज्ञापन पत्र - पत्रिकाओं व राज्य के प्रमुख स्थानों पर बडे बडे होल्डींग्स के लिये जारी होता है जिसका भुगतान करोडो में होता है और आदिवासी उसी चार आने के नमक के लिये रोता है । आदिवासी अस्मिता पर हमले के समाचार समाचारों पर छपते हैं, हम दो चार दिन इस पर ज्ञान चर्चा कर चुप बैठ जाते हैं उसी तरह से जिस तरह से सन् 1755 में हैहयवंशी क्षत्रियों पर मराठा सेनापति भास्कर पंथ नें हमला कर छत्तीसगढ का राज्य हथिया लिया था और हम यह सदविचार को लिये बैठे रहे कि राजकाज व राज्य रक्षा का दायित्व तो राजा का है । यदि उसी समय जनता नें बस्तर के आदिवासियों की तरह बाहरी सत्ता का जमकर विरोध किया होता तो आज छत्तीसगढ का इतिहास कुछ और होता । सदियों तक अंग्रेजों के ताल में ताल ठोंकते रहने एवं शेष छत्तीसगढ के साथ नहीं देने के कारण आदिवासियों की शक्ति भी शनै: शनै: क्षीण हो गई । आरंभ से आदिवासी विरोधियों को सत्ता और शक्ति प्रदान किया गया और आदिवासियों पर षडयंत्रपूर्वक दमन व अत्याचार किये गये, वर्षों से इस दुख को झेलते हुए आदिवासियों का स्वाभिमान भी जंगलों में सो गया ।
पिछले दिनों नेट पर सर्फिंग करते हुए मुझे बस्तर के आदिम जनजातियों के कुछ चित्र मिले जिसकी कापीराईट अमेरिका के एक फोटोग्राफर का था और उसमें उल्लेख था कि वह अधनंगी तस्वीर कब कब कहां कहां पोस्टर साईज में लाखों में बिकी थी । ये हाल है हमारी अस्मिता का, हमारी सहजता इनकी प्रदर्शनी की वस्तु है । यहां हमें यह भी सोंचना है कि क्या अकेले इन्ही विदेशियों के हाथों हमारी अस्मिता तार तार हुई है ? नहीं । इसके लिये हमारे बीच के ही लोग जिम्मेदार है, हमें छला गया है । इस घृणित कार्य में संलिप्त जो बिचौलिये हैं वे कहीं न कहीं छत्तीसगढिया के रूप में खाल ओढे शैतान ही हैं । 17 वीं सदी से लेकर आज तक छत्तीसगढियों नें ही दूसरे लोगों के साथ मिलकर अपनी क्षणिक स्वार्थ सिद्धि के लिये हमारी अस्मिता के साथ खिलवाड किया है और जब जब हमारी अस्मिता जागी उसे दमन के क्रूर पांवों तले कुचल दिया गया और हम छत्तीसगढिया सबले बढिया बने रहे दमन के विपरीत भाव को वीतरागी बन संतोष के भाव को सर्वत्र फैलाते हुए । हमें हमारी संतोषी प्रवृत्ति व सहजता का एक मार्मिक किस्सा याद आता है ‘अजीत जोगी सदी के मोड पर – 2001’ में अजीत जोगी बताते हैं – ‘ एक दिन एकदम सुबह देवभोग के रेस्ट हाउस में एक आदिवासी मुझसे और क्षेत्र के सांसद पवन दीवान से मिलने आया । उसे एक हीरे का पत्थर मिला था, जिसे उसने 10000 रूपये में एक स्थानीय व्यापारी को बेंच दिया था । सूरत-बम्बई से प्राप्त सूचना के अनुसार वह हीरा 20-25 लाख रूपये में बिका था । जब मैने उसे डांटा और कहा कि तुमने हीरा इतने सस्ते में क्यों बेंच दिया ? तुम तो बडे बेवकूफ निकले, तो वह ठहाका मार कर हंसने लगा । मुझसे बोला, तुम कहते हो मैं बेवकूफ हूं ? चलो मेरे साथ मेरे गांव । मुझे देख रहे हो, मैं सुबह छ: बजे से पीकर मस्त हूं । गांव चलोगे तो पाओगे कि मेरी पत्नी भी न केवल पीकर प्रसन्न है, बल्कि वह तो इन दिनों शराब में स्नान करती है । उस भोले आदिवासी को लगा था कि एक पत्थर का उसे इतना पैसा मिला कि वह उसकी पत्नी खा-पीकर मस्ता हैं फिर भी मेरे जैसा नादान व्यक्ति उसे समझाइस दे रहा है कि वह ठगा गया । उसे तो उतना मिल ही गया था, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी । ऐसे भोले आदिवासियों के साथ अन्याय न हो, कम से कम इतना तो हम सबको सुनिश्चित करना ही होगा ।‘ पवन दीवान जी छत्तीसगढ की इन्हीं परिस्थितियों को अपने एक गीत में कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं –
सडकों की नंगी जांघों पर,
नारे उछला करते हैं,
सिद्धांतों के निर्मम पंजे,
कृतियां कुचला करते हैं
हर भूखा भाषण खाता है,
प्यासा पीता है दारू,
नंगा है हर स्वप्न यहां पर,
हर आशा है बाजारू
मूर्ख यहां परिभाषा रचते,
सारे बौद्विक बिके हुए हैं,
नींव नहीं हैं फिर भी जाने,
बंगले कैसे टिके हुए हैं ।
इन सब के बावजूद हमें आशा की डोर को नहीं छोडना है, विकास की किरणे अब हम तक पंहुच रही है । पूर्व विधायक एवं चिंतक महेश तिवारी जी अपने एक लेख में आशा व्यक्त करते हुए लिखते हैं - ’ अंत में स्वामी विवेकानंद की तर्ज में यही कहना सार्थक होगा : सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती जान पडती है । महासुख का प्राय: अंत ही अतीत होता है । महानिद्रा में निद्रित शव मानव जागृत हो रहा है । जो अंधे हैं वे देख नहीं सकते और जो विकृत बुद्धि हैं वे समझ नहीं सकते कि हमारा छत्तीसगढ अपनी गंभीर निद्रा से अब जाग रहा है । अब कोई इसकी उन्नति को रोक नहीं सकता । यह अब और नहीं सोयेगा, कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती । कुंभकर्ण की दीर्घ निद्रा को अब टूटना ही होगा ।‘ आशावाद के इन शव्दों के साथ ही आत्ममुग्धता से परे हमें अपने संपूर्ण विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करना है, वैचारिक क्रांति को विकास की धारा से जोड देना है । अपनी छत्तीसगढी अस्मिता के साथ अपनी परम्पराओं के बीच ही समस्याओं को एक परिवार की भांति सुलझाते हुए आगे पढना है । अब हमें विश्वास हो चला है कि एक न एक दिन तो दीर्ध निद्रा में सोया छत्तीसगढिया जागेगा और पवन दीवान जी के ये शव्द सार्थक होंगें - घोर अंधेरा भाग रहा है, छत्तीसगढ अब जाग रहा है ।
आलेख एवं प्रस्तुति –
संजीव तिवारी
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छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे एक छोटे से गॉंव में जन्म, उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की पढ़ाई गॉंव से सात किलोमीटर दूर सिमगा में, बेमेतरा से 1986 में वाणिज्य स्नातक एवं दुर्ग से 1988 में वाणिज्य स्नातकोत्तर. प्रबंधन में डिप्लोमा एवं विधि स्नातक, हिन्दी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई स्टील सिटी में निजी क्षेत्रों में रोजगार करते हुए अनायास हुई. अब पेशे से विधिक सलाहकार हूँ. व्यक्तित्व से ठेठ छत्तीसगढि़या, देश-प्रदेश की वर्तमान व्यवस्था से लगभग असंतुष्ट, मंच और माईक से भकुवा जाने में माहिर.
गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...
गॉंव में नदी, खेत, बगीचा, गुड़ी और खलिहानों में धमाचौकड़ी के साथ ही खदर के कुरिया में, कंडिल की रौशनी में सारिका और हंस से मेरी मॉं नें साक्षात्कार कराया. तब से लेखन के क्षेत्र में जो साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित है उन हर्फों को पढ़नें में रूचि है. पढ़ते पढ़ते कुछ लिखना भी हो जाता है, गूगल बाबा की किरपा से 2007 से तथाकथित रूप से ब्लॉगर हैं जिसे साधने का प्रयास है यह ...